चिंगारी हुई आग ; शिक्षा में बदलाव का चौतरफा राग




दुनिया में अब तक हुई बडी-बडी क्रांतियों के पीछे विचारों की छोटी-छोटी चिंगारियों से निर्मित जनमत का जनाकांक्षाओं की आग में परिणत हो जाना ही मुख्य कारण रहा है । तमाम तरह के आन्दोलनों और हर तरह की विचारधाराओं के मूल में यही तथ्य सत्य के रूप में विद्यमान रहा है । आरम्भ में किसी एक व्यक्ति ने किसी विषय पर गम्भीरता से कुछ विचारा , उस विचार को जांचा-परखा अथवा प्रयोग-व्यवहार में उतारा और उसके निष्कर्षों से समाज को अवगत कराया तो लोगों ने उसे हाथों-हाथ ले लिया । इस तरह से विचारों का फैलाव हुआ तो विचारधारायें निर्मित होती चली गईं और विचारधाराओं से आन्दोलन व परिवर्तन घटित होते रहे ; आज भी हो रहे हैं । महावीर और बुद्ध ने अहिंसा का विचार दिया , तो कालान्तर बाद अहिंसावाद निर्मित-स्थापित हो गया । आधुनिक भारत में किसी राम सिंह कुका ने ब्रिटिश विदेशी वस्त्रों का बहिष्कार किया और स्वदेशी का विचार दिया तो कालान्तर बाद वही विचार गांधीजी के नेतृत्व में खादी-स्वदेशी आन्दोलन के रूप में फुट पडा । ब्रिटेन के थामस विलिंग्टन मैकाले ने भारत को लम्बे समय तक गुलाम बनाए रखने के लिए अंग्रेजी शिक्षण-पद्धति का विचार दिया तो ब्रिटिश सरकार ने पार्लियामेण्ट मे बहस-विमर्श कर के भारत की परम्परागत शिक्षण-पद्धति को जड-मूल से उखाड फेंक कर उसके स्थान पर जो पद्धति कायम की , सो आज भी मैकाले शिक्षण-पद्धति के नाम से न केवल स्थापित है , बल्कि भारतीय ज्ञान-विज्ञान में बाधक बन यहां के लोगों को मानसिक बौद्धिक रूप से गुलाम भी बनाए हुए है ।
अंग्रेजों की वापसी अथवा अंग्रेजी शासन की समाप्ति के बाद ऐसा समझा जा रहा था कि अंग्रेजी शिक्षण-पद्धति भी हटायी जाएगी और भारतीय शिक्षण-पद्धति पुनर्स्थापित होगी , किन्तु देश के कर्णधारों ने अंग्रेजों की बनायी हुई सारी व्यवस्थाओं को ही कायम रखा और उन्हें ही खाद-पानी दिया जाता रहा , जिसके दुखद परिणाम हमारे सामने हैं । शासन की ऐसी अंग्रेज-परस्ती के कारण ज्ञान-विज्ञान से लेकर जीवन यापन के तौर तरीकों तक , सब पर पश्चिमी कुरीति-कुनीति-असभ्यता-अपसंस्कृति इस कदर हावी हो गई कि उसकी चकाचौंध में चौंधियाये हुए हमारे ही लोगों द्वारा पश्चिम को ही हमारी नियति मान ली गई । किन्तु इस थोपी हुई नियति से बीतते समय के साथ लोगों का मोहभंग होने लगा तो देश भर में कई लोगों द्वारा यह सोचा-समझा और महसूस किया जाने लगा कि परायी भाषा , परायी संस्कृति और परायी शिक्षा-पद्धति से अपना कल्याण कतई नहीं हो सकता । किन्तु ऐसी सोच के बावजूद इसे बदलने की मांग दबी जुबान से ही होती रही , वैकल्पिक प्रयोग तो नहीं के बराबर ही हुए । मुखर विरोध और विद्रोह भी नहीं हुए , बल्कि ऐसे विचार मात्र धूंए की शक्ल में जनमानस के बीच कुहियाते रहे । कतिपय सामाजिक सांस्कृतिक संगठनों-संस्थाओं की ओर से कुछ भिन्न पाठ्य-सामग्रियों से युक्त गिने-चुने वैकल्पिक प्रयोग हुए भी तो प्रचलित शिक्षा-पद्धति के दायरे में ही ।
उल्लेखनीय है कि साबरमति का संत कहे जाने वाले महात्मा गांधी ब्रिटिश शासन-काल में ही इस शिक्षा-पद्धति के प्रति प्रायः अपनी असहमति जताते रहते थे । इस कारण ऐसा समझा जाने लगा था कि अंग्रेजी शासन की समाप्ति के पश्चात शिक्षा की पद्धति जरुर बदल दी जाएगी । किन्तु उनकी बैसाखी के सहारे शासन-सत्ता हासिल कर लेने के बाद सत्ताधीशों द्वारा उनके तमाम देशज विचारों की धज्जियां उडायी जाती रही । बावजूद इसके उसी साबरमति, अहमदाबाद में उत्तमभाई जवानमल शाह नामक एक मामूली अध्येता ने इस अंग्रेजी-मैकाले शिक्षा-पद्धति का मुखर विरोध करते हुए इससे ऐसा विद्रोह कर दिया कि बदलाव का दसकों से कुहियाता हुआ यह विचार उनके तत्सम्बंधी प्रयोग से चिंगारी का रुप ले लिया । यह तथाकथित आधुनिक शिक्षा-पद्धति निरर्थक डिग्रियां बांटने-बेचने वाली , किन्तु भारतीय बच्चों को उनकी जडों से काटने वाली है ; यह तथ्य व सत्य उत्तम भाई के मन-मस्तिष्क में ऐसा घर कर गया कि उन्होंने अपने स्वयं के और अपने संयुक्त परिवार के भाइयों के बच्चों को स्कूलों से निकाल कर उन्हें भारतीय परिवेश में अपने घर पर ही भारतीय पद्धति से भारतीय ज्ञान-विज्ञान की शिक्षा-विद्या पढाने-सिखाने लगे । भाषा-साहित्य, व्याकरण-गणित, खगोल-भूगोल, कला-विज्ञान, वास्तु-ज्योतिष, कृषि-वाणिज्य, योग-अध्यात्म, न्याय-मीमांसा, क्रीडा-कुस्ती, संगीत-नृत्य आदि तमाम तरह की भारतीय विद्याओं से युक्त ; किन्तु डिग्रियों से मुक्त निहायत व्यावहारिक शिक्षा प्रदान करने का उनका यह ‘उत्तम-प्रयोग’ धीरे-धीरे “ हेमचन्द्राचार्य संस्कृत पाठशाला ” नामक गुरुकुल के रूप में खडा हो गया , जिसमें भारत के सभी राज्यों से बच्चे व अभिभावक सहभागी बने हुए हैं । वर्तमान २१वीं सदी के प्रारम्भिक वर्षों से आकार लेता हुआ यह प्रयोग अब शैक्षिक परिवर्तन के विचारों की आग पैदा कर पश्चिम की अंधी-अंधेरी नकल के विरूद्ध भारतीय अस्मिता की ज्योति जलाने को तत्पर है ।
उत्तम भाई का मानना है कि अंग्रेजी शिक्षण पद्धति, लोगों को स्वार्थी-प्रपंची-भ्रष्टाचारी-व्याभिचारी-बलात्कारी बनाती है ; इस कारण यह सर्वनाशकारी है । इनके हेमचन्द्राचार्य गुरुकुल के विद्यार्थियों की प्रतिभा-योग्यता डिग्रियों से मुक्त, किन्तु ज्ञान की समग्रता से युक्त है । यहां पढने वाले छह साल से सोलह साल के इन विद्यार्थियों में से एक अदना सा विद्यार्थी भी मैकाले-स्कूलों के हर विद्यार्थी पर , हर तरह से भारी है । बकौल उत्तम भाई , जिस प्रकार एक छोटे से बीज के भीतर विशाल वृक्ष की भवितव्यता छिपी हुई होती है, उसी प्रकार एक बच्चे के भीतर एक महापुरुष होने की समस्त सम्भावनायें और प्रतिभायें उसके जन्म से ही विद्यमान रहती हैं । बीज के भीतर वृक्ष को बाहर से डाला नहीं जा सकता, तो बच्चे के मन-मस्तिष्क-अंतःकरण में प्रतिभा भी किसी माध्यम से घुसायी नहीं जा सकती । प्राचीन भारतीय गुरूकुलीय शिक्षण-पद्धति की इस अवधारणा के विपरीत पश्चिमी-अंग्रेजी शिक्षण-पद्धति बच्चों को बुराइयों के खर-पतवारों से मुक्त करने और उन्हें विकसित करने के बजाय उनमें बाहर से ज्ञान भरने तथा उन्हें जबरन ही कुछ का कुछ बनाने और नौकरी दिलाने अथवा पैसे कमाने की मशीन बनाने का प्रयास करती हुई उनके मन-मस्तिष्क में अवांछित भौतिक भोगों की भूख जागृत कर देती है । इस बावत इस पद्धति में तरह-तरह की निर्रथक डिग्रियां बांटी-बेची जाती हैं । उन डिग्रीधारियों में से अधिकतर को नौकरी मिलती ही नहीं है, जिन्हें मिलती भी है वे और ज्यादा कमाने की लालच में भ्रष्टाचारी-व्याभिचारी बन जाते हैं , जबकि असफल रहे लोग आत्महत्या-बेरोजगार-अपराध-कुण्ठा-अवसाद का शिकार हो मानव-जीवन के स्वाभाविक उद्देश्य से भटक जाते हैं । यह शिक्षण-पद्धति बच्चों-किशोरो-युवाओं को धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष-आधारित मानव-जीवन के वास्तविक उद्देश्यों से भटका कर उन्हें सिर्फ और सिर्फ पशुवत दुराचरण- आहार-निद्रा-मैथुन-उपद्रव एवं ततविषयक शोषण-दमन-द्वन्द्व-तिकडम सिखाती है ।
इस पर भी मैकाले शिक्षण-पद्धति तो कोढ में खाज की तरह है, जिसे लागू ही किया गया था इस उद्देश्य से कि भारत के लोग अपनी जडों से कट कर अंग्रेज-परस्त बन जाएं और यह देश हमेशा-हमेशा के लिए गुलाम बना रहे । अंग्रेजों का यह उद्देश्य आज अपने पूरे रौब के साथ फलीभूत हो रहा है । सत्ता-हस्तान्तरण को आजादी मान बैठे हमारे देश के लोगों की हालत यह है कि थोडा शिक्षित आदमी गांव छोड शहर की ओर भाग रहा है और ज्यादा शिक्षित आदमी भारत छोड युरोपीय देशों की ओर उन्मुख तथा भारतीय संस्कृति के प्रति तिरस्कार-भाव से पीडित हैं, और ‘डिस्को-डांस-ड्रग-डायवोर्स’ वाली पश्चिमी अपसंस्कृति के प्रति समर्पण भाव से आकर्षित हैं । इस शिक्षण-पद्धति के कारण आज एक ओर जहां भारतीय राष्ट्रीयता और मानवीय नैतिकता का क्षरण हो रहा है, वहीं दूसरी ओर समाज में व्याभिचार व भ्रष्टाचार बेतहाशा बढ रहा है । भ्रष्टाचार और बलात्कार जैसी समस्याओं का समाधान कडे से कडे कानून बना कर भी तब तक नहीं किया जा सकता है, जब तक इस शिक्षण-पद्धति को उखाड फेंक प्राचीन भारतीय गुरूकुलीय शिक्षण-पद्धति स्थापित नहीं की जाएगी ।
शिक्षण-पद्धति के बदलाव का जो विचार लोगों के मन में सिर्फ कुहिया रहा था , उसे चिंगारी में परिणत करने का काम उत्तम भाई ने बखुबी किया हुआ है । उन चिंगारियां से अब आग भभकने लगी है । बदलाव की मांग अब सरेआम होने लगी है । भारत को पश्चिम की औपनिवेशिक-बौद्धिक दासता से उबारने का मार्ग तलाशने के निमित्त पिछले दिनों भोपाल में आयोजित ‘लोकमन्थन’ कार्यक्रम में देश भर से आये बौद्धिक-शैक्षिक चिन्तकों-कर्मशीलों के बीच शिक्षण-पद्धति में बदलाव का राग चारो तरफ से साफ-साफ सुना गया । हालाकि उस कार्यक्रम में औपनिवेशिक दासता के तमाम तत्वों का परीक्षण-मन्थन हुआ, किन्तु तदोपरांत जो निष्कर्ष निकला उससे यही स्वर गुंजित हुआ । मालूम हो कि उस ‘लोकमन्थन’ का आयोजन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की एक आनुषांगिक संस्था- ‘प्रज्ञा प्रवाह’ और मध्यप्रदेश शासन के संस्कृति मंत्रालय ने संयुक्त रूप से किया हुआ था ।
• नवम्बर’ २०१६