थोडा पढे तो गांव छोड दे , ज्यादा पढे तो कस्बा-नगर ; और पढे सो देश छोड दे , मैकाले-शिक्षण का जो असर !



हिन्दुस्तान टाइम्स में प्रकाशित एक सर्वेक्षण को ले कर लिखे मेरे एक लेख- “देश छोडने को तैयार नवजवान” पर मेरे मेल-बाक्स में देश-विदेश से बुद्धिजीवियों की प्रतिक्रियायें लगातार आ रही हैं । उस लेख में मैंने हिन्दुस्तान टाइम्स के उक्त सर्वेक्षण के आधार पर अपने देश की वर्तमान शिक्षा-पद्धति का संक्षिप्त विश्लेषण मात्र किया है , जिसमें यह बताया गया है कि ६०% से भी अधिक हमारे नवजवान विदेशों में बस जाना चाहते हैं । पाठकों की टिप्पणियों-प्रतिक्रियाओं को थोडा विस्तार देने पर तैयार इस प्रस्तुत लेख का उपरोक्त शीर्षक मैंने बहुत सोच-समझ कर यह रखा है , जो थोडा लम्बा जरूर है , जिसे ऊपर से आप पढते आ रहे हैं ; किन्तु उपयुक्त यही है कदाचित । इस शीर्षक की रचना मेरी है , शब्द उत्तम भाई शाह के हैं , जो अहमदाबाद के साबरमति में हेमचन्द्राचार्य संस्कृत पाठशाला नामक एक गुरुकुल खोल कर मैकाले-अंग्रेजी शिक्षा-पद्धति को खुलेआम चुनौती दे रहे हैं । क्योंकि, बकौल शाह , हमारे देश की समस्त समस्याओं की जड में चालू शिक्षा पद्धति ही है ।
आज कोई भी पढा-लिखा आदमी , खास कर नवजवान गांव में रहना नहीं चाहता , खेती करना तो दूसरी बात है । आई०आई०टी० आई०आई०एम० जैसे नामी शिक्षण संस्थानों से उच्च शिक्षा प्राप्त किया हुआ कोई व्यक्ति अगर गांव में आकर पैसे कमाने के लिए ही खेती करता है तो वह खबर बन अखबारों की सुर्खियों में आ जाता है , जिसका सीधा सा मतलब यह होता है कि ऊंची शिक्षा ग्रहण कर खेती नहीं करनी चाहिए , गांव में नहीं रहना चाहिए । जिस देश में “उत्तम खेती , मध्यम वाण ; करे चाकरी , अधम जान” जैसी कहावत प्रचलित थी, वहां इस क्रम को उलट देने वाली यह शिक्षा-पद्धति ही है , जो हमें हमारे देश के विरूद्ध खडा करने तथा घर-परिवार गांवों से उजाडने और हमारी जडों से हमें काटने में लगी हुई है । इस शिक्षा के कारण परिवार का मतलब बडे-बूढों से अलग सिर्फ पति-पत्नी-बच्चे तक सिमट कर रह गया है । समाज एक बाजार बन गया है , जिसमें हर व्यक्ति एक दूसरे का प्रतिस्पर्द्धी बना हुआ है । स्वार्थपरायणता इस कदर बढ गई है कि पारिवारिक- सामाजिक ताना-बाना टूटता जा रहा है । हर आदमी शहर-बाजार की ओर दौड रहा है और शहर ‘पश्चिम’ से आकर्षित है , तो जाहिर है सबका उद्देश्य जैसे-तैसे धन कमा कर ‘पश्चिम’ की ओर भागना अथवा पश्चिम जाकर धन कमाना हो गया है । थोडा पढा नवजवान गांव छोड कर नगर का हो जाता है , ज्यादा पढा नवजवान अपना नगर छोड महानगर को चला जाता है तो और अधिक पढा हुआ स्वदेश छोड विदेश को । महज साक्षरों की तो कोई बिसात ही नहीं , शिक्षितों का पीछा करने में परिस्थितियां जहां ले जाए ।
ऐसा इस कारण क्योंकि यह शिक्षा-पद्धति न केवल पश्चिमोन्मुखी है , बल्कि भारतीय चित्त के विरूद्ध भारत-विरोधी भी है । भारतीय शिक्षा-पद्धति धर्म-अर्थ-काम-मोक्षलक्षी रही है , तो पश्चिम की यह अंग्रेजी शिक्षा-पद्धति काम-धंधा-मुनाफा-भोगलक्षी है । भारतीय जीवन-दृष्टि तथा शिक्षा की भारतीय पद्धति में धन-धंधा व कामना-भोग पूरी तरह से धर्म पर आधारित और मोक्ष को प्रेरित है ; जबकि युरोपीय जीवन-दृष्टि तथा अंग्रेजी शिक्षा-पद्धति में कामना ही समस्त चेष्टाओं का आधार है , जो उपभोग-प्रेरित है , भोग ही उसका लक्ष्य है । धर्म का भारतीय अर्थ भी पश्चिम के ‘रिलिजन’ से भिन्न है । वहां काम-क्रीडा की परिणति से शुरू हुआ जीवन कामनामय होकर कामनाओं की तॄप्ति के लिए भिन्न-भिन्न तरह के भिन्न-भिन्न तरीकों से उचित-अनुचित , नैतिक-अनैतिक, वैध-अवैध काम-धंधा करते हुए धन-लाभ कमाने और उसके माध्यम से भोग-उपभोग करने में ही व्यतीत हो जाता है । पश्चिम में जीवन की सार्थकता यही और इतनी ही है , जितनी पशुओं की है , क्योंकि वहां मनुष्य एक ‘सामाजिक पशु’ (शोसल एनिमल) ही है । किन्तु इससे उलट , भारतीय जीवन-दृष्टि सर्वथा भिन्न है । यहां मानवीय जीवन चेतना-आत्मा की अनादि-अनंत यात्रा के बीच की मानवी काया-सम्पन्न अवस्था है , जो परमात्म की ओर उन्मुख है । यहां मानवी काया में आत्मा के अवतरण अर्थात व्यक्ति के जन्म से लेकर दूसरी काया में उसके परावर्तन अर्थात व्यक्ति के मरण तक पूरा का पूरा मानव-जीवन धर्ममय है , जिसका लक्ष्य जन्म-जन्मान्तर के इस यात्रा-चक्र से मुक्ति अर्थात परमात्म की प्राप्ति है , जो मोक्ष कहलाता है । मानव-जीवन की उत्पत्ति और परिणति का सच भी यही है । इस सच का अन्वेषण कर हमारे ऋषियों ने जीवन को धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष क्रम से चतुष्पदी आयाम प्रदान करते हुए हमारी समस्त चेष्टाओं-शिक्षाओं का निर्धारण किया है , जिसके अनुसार मनुष्य कोई सामाजिक पशु नहीं है, बल्कि संसार का सर्वश्रेष्ठ प्राणी है , जो ‘नर’ से ‘नारायाण’ बन जाने की समस्त क्षमताओं-सम्भावनाओं से सम्पनन है । पाश्चात्य पद्धति की शिक्षा-दीक्षा सिर्फ भोग-लक्षी व स्वार्थी है , जो मनुष्य नामक ‘सामाजिक पशु’ को बढिया से बढिया , अधिक से अधिक असीमित भोग भोगने ही के निमित्त अनन्त उत्पादन, विपणन, शोषण, विभाजन, धनार्जन और विकसित पशुतायुक्त उद्यम सिखाती है ।
पश्चिम की इसी उद्यमिता का परिणाम था उपनिवेशवाद का जन्म , ईस्ट इण्डिया कम्पनी का भारत में आगमन तथा उसका शासन, जिसने अपनी कमाऊ-खाऊ नीतियों के तहत पहले तो हमारी शिक्षा-व्यवस्था को समूल नष्ट कर दिया और फिर ब्रिटेन की औपनिवेशिक-शासनिक जरूरतों के अनुसार हमारी शिक्षा-पद्धति को उखाड फेंक कर शिक्षा की ऐसी पद्धति व ऐसी व्यवस्था कायम कर दी जो ब्रिटिश उपनिवेशवाद और ईसाई विस्तारवाद को मजबूती प्रदान करने का साधन बन गई । इस शिक्षा-पद्धति के प्रवर्तक थामस विलिंग्टन मैकाले ने इसके औचित्य के सम्बन्ध में यह तर्क प्रस्तुत किया था कि - “ हमें भारत में ऐसा शिक्षित वर्ग तैयार करना है , जो हमारे और उन करोडों भारतवासियों के बीच , जिन पर हम शासन करते हैं उन्हें समझाने-बुझाने का काम कर सके ; जो केवल खून और रंग की दृष्टि से भारतीय हों ; किन्तु रुचि , भाषा व भावों की दृष्टि से अंग्रेज हों ”।
ऐसा ही हुआ , बल्कि यह कहिए कि उन उपनिवेशवादी रणनीतिकारों के निर्धारित लक्ष्य की हदें पार हो गई । उस औपनिवेशिक अंग्रेजी शासन की समाप्ति के बाद भी हमारे देश के नीति नियन्ताओं द्वारा अंग्रेजी माध्यम की उसी शिक्षा-पद्धति को खाद-पानी दिया जाता रहा , जो स्वार्थ-केन्द्रित, भोग-लक्षी व पश्चिमोन्मुख है । नतीजा यह हुआ कि अंग्रेजी भाषा व संस्कृति ‘अमरबेल’ की लत्तर की तरह हमारे ऊपर छाती गई और आज स्थिति यह है कि हिन्दी सहित हमारी तमाम भारतीय भाषाओं का अंग्रेजीकरण हो गया है तो जाहिर है हमारे निष्ठा-भक्ति का भी क्षरण होना ही था , जो होते-होते अब इतना हो गया कि ६०% से अधिक नवजवान स्वदेश छोड विदेशों में ही बस जाने को तैयार हैं । अंग्रेजी भाषा अपनाने के प्रति हमारा दृष्टिकोण चाहे कितना भी उदार क्यों न हो और उससे होने वाली क्षति को हम चाहे कितना भी कम क्यों न आंकते रहें , किन्तु वास्तविकता यही है कि बोल-चाल व कार्य-व्यापार की भाषा ही व्यक्ति की निष्ठा का संवाहक होती है । इस तथ्य को जान कर ही उपनिवेशवादियों ने हमारी शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी को बनाया था । एक ब्रिटिश इतिहासकार- डा० डफ ने अपनी पुस्तक “ लौर्ड्स कमिटिज-सेकण्ड रिपोर्ट आन इण्डियन टेरिट्रिज- १८५३” में लिखा है कि भाषा का प्रभाव इतना जबर्दस्त होता है कि जिस समय तक भारत के सभी देशी राजाओं-रजवाडों के साथ अंग्रेज हुक्मरानों का पत्र-व्यवहार किसी भारतीय भाषा में होता रहेगा , उस समय तक भारतवासियों की भक्ति दिल्ली के बादशाह की ओर बनी रहेगी , इस कारण ब्रिटेन के प्रति निष्ठा कायम करने के लिए जरूरी है कि अंग्रेजी को सरकारी काम-काज की अनिवार्य भाषा बना दी जाए ”। उसके बाद ही अंग्रेजी की अनिवार्यता कायम कर दी गई , जो आज भी है ।
मैकाले के बहनोई- चार्ल्स ट्रेवेलियन ने एक बार ब्रिटिश पार्लियामेण्ट की एक समिति के समक्ष ‘ भारत की भिन्न-भिन्न शिक्षा-पद्धतियों के भिन्न-भिन्न परिणाम’ शीर्षक से एक लेख प्रस्तुत किया था, जिसका एक अंश उल्लेखनीय है- “ अंग्रेजी भाषा-साहित्य का प्रभाव अंग्रेजी राज के लिए हितकर हुए बिना नहीं रह सकता ……. हमारे पास उपाय केवल यही है कि हम भारतवासियों को युरोपियन ढंग की उन्नति में लगा दें …..इससे हमारे लिए भारत पर अनंत काल तक अपना साम्राज्य कायम रखना बहुत आसान और असन्दिग्द्ध हो जाएगा ”। तो इसी ‘युरोपीयन ढंग की उन्नति’ और तदनुसार शिक्षा-पद्धति का परिणाम है कि उन्हीं युरोपियन देशों में ही बस जाना चाह्ते हैं हमारे नवजवान । क्योंकि इस पद्धति से शिक्षित मानस हर मायने में भारत को अधम और युरोप को उत्तम समझता है । वह अपनी श्रेष्ठता-योग्यता पर भी युरोप-अमेरिका की मुहर चाहता है तथा युरोपियन जीवन-शैली को विकास का पैमाना और अनंत सुख-भोग हेतु असीमित धनार्जन को जीवन का परम लक्ष्य मानता है । यही कारण है कि कुछ अपवादों को छोड कर जो जितना ज्यादा शिक्षित है, वह पश्चिमी देशों के प्रति उतना ही ज्यादा आकर्षित है । क्योंकि पश्चिम में अनंत अनियण्त्रित भोग और भोग-लक्षी उन्नति की अनुकूलतायें ज्यादा हैं ।
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