दक्षिण के साहित्य में ‘पश्चिम’ की राजनीति का हस्तक्षेप चिन्ताजनक
यूरोपीय-ब्रिटिश साम्राज्यवादियों ने भारत में अपने औपनिवेशिक शासन को दीर्घकालिक बनाने और उसका औचित्य सिद्ध करने के लिए न केवल यहां की शिक्षा और शिक्षा-पद्धति को तो निशाना बनाया ही , भारतीय भाषा-साहित्य में भी बुरी तरह से हस्तक्षेप किया । उनने अपने प्रायोजित भाषा-विज्ञान में बे-सिर-पैर के विधान रचते हुए तरह-तरह की संगतियां-विसंगतियां उठा-बैठा कर दक्षिण भारत की दो प्रमुख भाषाओं- ‘तेलगू’ व ‘तमिल’ को जबरन ही ‘संस्कृत व भारतीय भाषा-परिवार’ से बाहर की ‘हिब्रू’ से मिलती-जुलती भाषा प्रतिपादित कर कालान्तर बाद प्रमुख साहित्यिक ग्रन्थों को भी अपने घेरे में लेकर विकृत कर दिया । जबकि यह निर्विवादित सत्य है कि भारत की समस्त भाषायें संस्कृत से निकली हुई एक ही भाषा-परिवार की हैं ।
किसी सफेद झूठ को हजार मुखों से हजार-हजार बार कहलवा देने और हजार हाथों से उसे हजार किताबों में लिखवा देने से वह सच के रूप में स्थापित हो जाता है ; स्थापित हो या न हो , वास्तविक सच उसी अनुपात में अविश्वसनीय तो हो ही सकता है । इसी रणनीति के तहत पश्चिमी साम्राज्यवादी उपनिवेशवाद (अब नव-उपनिवेशवाद ) और ईसाई-विस्तारवाद के झण्डाबरदार बुद्धिजीवी-लेखक-भाषाविद पिछली कई सदियों से ‘नस्ल-विज्ञान’ और ‘तुलनात्मक भाषा-विज्ञान’ नामक अपने छद्म-शस्त्रों के सहारे समस्त भारतीय वाङ्ग्मय का अपहरण करने में लगे हुए हैं । चिन्ताजनक बात यह है कि अपने देश का साहित्यिक-बौद्धिक महकमा भी इस सरेआम चोरी-डकैती-अपहरण-बलात्कार से या तो अनजान है , या जानबूझ कर मौन है ।
गौरतलब है कि माल-असबाब की चोरी करने के लिए घरों में घुसने वाले चोर जिस तरह से सेंधमारी करते हैं अथवा किसी खास चाबी से घर के ताले को खोल लेते हैं , उसी तरह की तरकीबों का इस्तेमाल इन बौद्धिक अपहर्ताओं ने दक्षिण भारतीय में घुसने के लिए किया । सबसे पहले इन लोगों ने ‘नस्ल-विज्ञान’ के सहारे आर्यों को यूरोपीय-मूल का होना प्रतिपादित कर गोरी चमडी वाले ईसाइयों को सर्वश्रेठ आर्य व उतर-भारतीयों को प्रदूषित आर्य एवं दक्षिण भारतीयों को आर्य-विरोधी ‘द्रविड’ घोषित कर भारत में आर्य-द्रविड-संघर्ष का कपोल-कल्पित बीजारोपण किया और फिर अपने ‘तुलनात्मक भाषा-विज्ञान’ के सहारे संस्कृत को यूरोप की ग्रीक व लैटिन भाषा से निकली हुई भाषा घोषित कर तमिल-तेलगू को संस्कृत से भी पुरानी भाषा होने का मिथ्या-प्रलाप स्थापित करते हुए विभिन्न भारतीय शास्त्रों-ग्रन्थों के अपने मनमाफिक अनुवाद से बे-सिर-पैर की अपनी उपरोक्त स्थापनाओं को जबरिया प्रमाणित-प्रचारित भी कर दिया ।
पश्चिमी भाषा-विज्ञानियों और औपनिवेशिक शासकों-प्रशासकों ने ईसाइयत के प्रसार और साम्राज्यवाद के विस्तार हेतु दक्षिण भारतीय साहित्य को विकृत करने के लिए किस तरह से भाषाई षड्यंत्र को अंजाम दिया , यह मद्रास-स्थित कालेज आफ फोर्ट सेन्ट जार्ज के एक भाषाविद डी० कैम्पबेल और मद्रास के तत्कालीन कलेक्टर फ्रांसिस वाइट एलिस की सन-१८१६ में प्रकाशित पुस्तक- ‘ग्रामर आफ द तेलगू लैंग्वेज’ की सामग्री से स्पष्ट हो जाता है , जिसमें लेखक-द्वय ने दावा किया है कि “दक्षिण भारतीय भाषा-परिवार का उद्भव संस्कृत से नहीं हुआ है ।” उननें यह दलील दी है कि “तमिल और तेलगू के एक ही गैर-संस्कृत पूर्वज हैं ।” आप समझ सकते हैं कि उन दोनों महाशयों को तेलगू भाषा का व्याकरण लिखने और उसके उद्भव का स्रोत खोजने की जरूरत क्यों पड गई । जाहिर है, दक्षिण भारतीय लोगों को उतर भारतीयों से अलग करने के लिए । भारतीय भाषा, साहित्य व इतिहास में पश्चिम के हस्तक्षेप का भण्डाफोड करने वाली पुस्तक- ‘भारत विखण्डन’ के लेखक राजीव मलहोत्रा के अनुसार कैम्पबेल-एलिस के उस तेलगू-व्याकरण ने भारत के आन्तरिक सामाजिक राजनैतिक ढांचों में बाद के पश्चिमी हस्तक्षेप के लिए दरवाजा खोल दिया । मालूम हो कि उसके बाद से ही ईसावादियों द्वारा भाषा-विज्ञान के हवाले से ऐसे-ऐसे तथ्य गढ-गढ कर स्कूली पाठ्य-पुस्तकों में कीलों की तरह ठोके जा रहे हैं , जिनसे संस्कृत सहित अन्य भारतीय भाषायें ही नहीं , बल्कि भारत की सहस्त्राब्दियों पुरानी विविधतामूलक सांस्कृतिक-सामाजिक समरसता व राष्ट्रीय एकता भी सलीब पर लटकती जा रही है । स्काटलैण्ड के एक तथाकथित भाषाविद डुगाल्ड स्टुवार्ट ने न जाने कैसे और किस आधार पर यह प्रतिपादित किया है कि “संस्कृत ईसा के बाद सिकन्दर के आक्रमण द्वारा ग्रीक से आई हुई भाषा है । संस्कृत के ग्रीक से मिलते-जुलते होने का कारण यह नहीं है कि दोनों के स्रोत पूर्वज एक ही हैं , बल्कि इसका कारण यह है कि संस्कृत ‘भारतीय परिधान में ’ ग्रीक ही है ।
अब इस भाषाई षड्यंत्र के सहारे साहित्य में पश्चिमी हस्तक्षेप का उदाहरण देखिए । मालूम हो कि दक्षिण भारत की तमिल भाषा में ‘ तिरुकुरल ’ वैसा ही लोकप्रिय सनातनधर्मी भक्ति-साहित्य का ग्रन्थ है , जैसा उतर भारत में रामायण , महाभारत अथवा गीता । इसकी रचना वहां के महान संत कवि तिरूवल्लुवर ने की है । १९वीं सदी के मध्याह्न में एक कैथोलिक ईसाई मिशनरी जार्ज युग्लो पोप ने अंग्रेजी में इसका अनुवाद किया, जिसमें उसने प्रतिपादित किया कि यह ग्रन्थ ‘अ-भारतीय’ तथा ‘अ-हिन्दू’ है और ईसाइयत से जुडा हुआ है । उसकी इस स्थापना को मिशनरियों ने खूब प्रचारित किया । उनका यह प्रचार जब थोडा जम गया, तब उननें उसी अनुवाद के हवाले से यह कहना शुरू कर दिया कि ‘तिरूकुरल’ ईसाई-शिक्षाओं का ग्रन्थ है और इसके रचयिता संत तिरूवल्लुवर ने ईसाइयत से प्रेरणा ग्रहण कर इसकी रचना की थी, ताकि अधिक से अधिक लोग ईसाइयत की शिक्षाओं का लाभ उठा सकें । इस दावे की पुष्टि के लिए उनने उस अनुवादक द्वारा गढी गई उस कहानी का सहारा लिया, जिसमें यह कहा गया है कि ईसा के एक प्रमुख शिष्य सेण्ट टामस ने ईस्वी सन ५२ में भारत आकर ईसाइयत का प्रचार किया , तब उसी दौरान तिरूवल्लुवर को उसने दीक्षा दी थी । हालाकि मिशनरियों के इस दुष्प्रचार का कतिपय निष्पक्ष पश्चिमी विद्वानों ने ही उसी दौर में खण्डण भी किया था, किन्तु उपनिवेशवादी ब्रिटिश सरकार समर्थित उस मिशनरी प्रचार की आंधी में उनकी बात यों ही उड गई । फिर तो कई मिशनरी संस्थायें इस झूठ को सच साबित करने के लिए ईसा-शिष्य सेन्ट टामस के भारत आने और हिन्द महासागर के किनारे ईसाइयत की शिक्षा फैलाने सम्बन्धी किसिम-किसिम की कहानियां गढ कर अपने-अपने स्कूलों में पढाने लगीं । तदोपरान्त उन स्कूलों में ऐसी शिक्षाओं से शिक्षित हुए भारत की नयी पीढी के लोग ही इस नये ज्ञान को और व्यापक बनाने के लिए इस विषय पर विभिन्न कोणों से शोध अनुसंधान भी करने लगे । भारतीय भाषा-साहित्य में पश्चिमी घुसपैठ को रेखांकित करते हुए अरविन्दन नीलकन्दन ने अपनी पुस्तक में ऐसे अनेक शोधार्थियों में से एक तमिल भारतीय- ‘एम० देइवनयगम’ के तथाकथित शोध-कार्यों का विस्तार से खुलासा किया है । उनके अनुसार, देईवनयगम ने मिशनरियों के संरक्षण और उनके विभिन्न शोध-संस्थानों के निर्देशन में अपने कथित शोध के आधार पर अब सरेआम यह दावा कर दिया है कि ‘तिरूकुरल’ ही नहीं , बल्कि चारो वेद और भागवत गीता, महाभारत, रामायण भी ईसाई-शिक्षाओं के प्रभाव से प्रभावित एवं उन्हीं को व्याख्यायित करने वाले ग्रन्थ हैं और संस्कृत भाषा का आविष्कार ही ईसाईयत के प्रचार हेतु हुआ था । उसने वेदव्यास को द्रविड बताते हुए उनकी समस्त रचनाओं को गैर-सनातनधर्मी होने का दावा किया है । अपने शोध-निष्कर्षों को उसने १८वीं शताब्दी के युरोपीय भाषाविद विलियम जोन्स की उस स्थापना से जोड दिया है, जिसके अनुसार सनातन धर्म के प्रतिनिधि ग्रन्थों को ‘ईसाई सत्य के भ्रष्ट रूप’ में चिन्हित किया गया है ।
सन १९६९ में देइवनयगम ने एक शोध-पुस्तक प्रकाशित की- ‘वाज तिरूवल्लुवर ए क्रिश्चियन ?’, जिसमें उसने साफ शब्दों में लिखा है कि सन ५२ में ईसाइयत का प्रचार करने भारत आये सेन्ट टामस ने तमिल संत कवि- तिरूवल्लुवर का धर्मान्तरण करा कर उन्हें ईसाई बनाया था । अपने इस मिथ्या-प्रलाप की पुष्टि के लिए उसने संत-कवि की कालजयी कृति- ‘तिरूकुरल’ की कविताओं की तदनुसार प्रायोजित व्याख्या भी कर दी और उसकी सनातन-धर्मी अवधारणाओं को ईसाई- अवधारणाओं में तब्दील कर दिया । इस प्रकरण में सबसे खास बात यह है कि तमिलनाडू की ‘द्रमुक’-सरकार के तत्कालीन मुख्यमंत्री ने उस किताब की प्रशंसात्मक भूमिका लिखी है और उसके एक मंत्री ने उसका विमोचन किया ।
इस बौद्धिक अपहरण-अत्याचार को मिले उस राजनीतिक संरक्षण से प्रोत्साहित हो कर देइवनयगम दक्षिण भारतीय लोगों को ‘द्रविड’ और उनके धर्म को ईसाइयत के निकट , किन्तु सनातन धर्म से पृथक प्रतिपादित करने के चर्च-प्रायोजित अभियान के तहत ‘ड्रेवेडियन रिलिजन’ नामक पत्रिका भी प्रकाशित करता है । उस पत्रिका में लगातार यह दावा किया जाता रहा है कि सन- ५२ में भारत आये सेन्ट टामस द्वारा ईसाइयत का प्रचार करने के औजार के रूप में संस्कृत का उदय हुआ और वेदों की रचना भी ईसाई शिक्षाओं से ही दूसरी शताब्दी में हुई है, जिन्हें धूर्त ब्राह्मणों ने हथिया लिया । वह यह भी प्रचारित करता है कि “ ब्राह्मण, संस्कृत और वेदान्त बुरी शक्तियां हैं और इन्हें तमिल समाज के पुनर्शुद्धिकरण के लिए नष्ट कर दिये जाने की जरूरत है ।”
ऐसी वकालत करने की पीछे वे लोग सक्रिय हैं , जिनकी पुरानी पीढी के विद्वानों-भाषाविदों यथा विलियम जोन्स व मैक्समूलर आदि ने १८वीं सदी में ही संस्कृत को ईसा-पूर्व की और भारतीय आर्यों की भाषा होने पर मुहर लगा रखी है ; किन्तु ये लोग अब कह रहे हैं कि नहीं, इनके उन पूर्वजों से गलती हो गई थी । दरअसल संस्कृत को अब द्रविडों की भाषा बताने वाले इन साजिशकर्ताओं की रणनीति है- दो कदम आगे और दो कदम पीछे चलना ।
दक्षिण में ‘पश्चिम’ के इस हस्तक्षेप की शुरुआत भारत पर ईस्ट इण्डिया कम्पनी का शासन स्थापित हो जाने के बाद औपनिवेशिक शासन का औचित्य सिद्ध करने की बावत पश्चिमी विद्वानों द्वारा भाषा-विज्ञान व नस्ल-विज्ञान नामक हथकण्डा खडा किये जाने के साथ ही शुरू हो गई थी, किन्तु ‘द्रविड’ नस्ल गढने का षड्यंत्र सन १८५६ ई० में कैथोलिक चर्च के एक पादरी ने क्रियान्वित किया । अमरिकी शोध संस्थानों व अध्ययन केन्द्रों से गहरे जुडे लेखक श्री मलहोत्रा के अनुसार लन्दन से आया राबर्ट काल्डवेल नामक वह पादरी ऐंग्लिकन चर्च के ‘सोसायटी फार द प्रोपेगेशन आफ द गास्पल’ से सम्बद्ध मद्रास-स्थित तिरुनेलवेली चर्च का ‘बिशप’ था । इस षड्यंत्र को अंजाम देने के लिए पहले उसने सन १८८१ ई० में ‘कम्परेटिव ग्रामर आफ द ड्रैवेडियन रेश’ नामक एक पुस्तक लिख कर ‘द्रविड’ शब्द के अर्थ का अनर्थ करते हुए यह प्रस्तावित किया कि भारत के मूलवासी द्रविड थे , जो आर्यों के आगमन के पश्चात उतर से दक्षिण में भगा कर ब्राह्मणों द्वारा छले-ठगे व बन्धक बना लिए गए और अब चर्च द्वारा उन्हें बन्धन-मुक्त किये जाने की आवश्यकता है । जाहिर है , द्रविड नस्ल के इस कपोल-कल्पित-सुनियोजित आविष्कार का उद्देश्य अंग्रेजी विदेशी शासन और ईसाईयत के प्रचार का औचित्य सिद्ध करना रहा था ।
मालूम हो कि बीशप काल्ड्वेल जिस ‘सोसायटी फार द प्रोपेगेशन आफ द गास्पल’ से सम्बद्ध था, वह ‘अश्वेतों पर श्वेतों की दासता’ का औचित्य प्रचारित करने वाली एक संस्था थी । उसकी तत्सम्बन्धी परियोजना के अनुसार काल्डवेल ने भारतीय लोगों को भाषा और धर्म के आधार पर दो भागों में विभाजित करने तथा तमिल-भारतीयों को ईसाइयत के ढांचे में बैठाने के उद्देश्य से दक्षिण भारत के एक स्थान-विशेष के तथाकथित इतिहास की एक पुस्तक लिखी- ‘ए पालिटिकल एण्ड जेनरल हिस्ट्री आफ द डिस्ट्रिक्ट आफ तिरुनेलवेली’ जिसे सन- १८८१ ई० में ईस्ट इण्डिया कम्पनी की मद्रास प्रेजिडेन्सी ने प्रकाशित कराया था । किताब में तिरुनेलवेली के उस कैथोलिक चर्च बीशप ने आसेतु हिमाचल व्याप्त बहुसंख्य बृहतर भारतीय धर्म-समाज में दरार पैदा करने तथा द्रविड नस्ल की संकल्पना प्रस्तुत करने और उस द्रविडता को ईसाइयत के नजदीक ले जाने का जो काम किया , उससे अंग्रेजी औपनिवेशिक शासन और चर्च के विस्तारवादी कार्यक्रम , दोनों को आगे चल कर बहुत लाभ मिला । एशिया में निवासियों की पहचान पर शोध करने वाले टिमोथी ब्रूक और आन्द्रे स्मिथ के अनुसार काल्डवेल ने “ व्यवस्थित रूप से द्रविड विचारधारा की बुनियाद रखी और…..उसने दक्षिण भारत की अल्पसंख्यक-ब्राह्मण-आबादी व बहुसंख्यंक गैर-ब्राह्मण-आबादी के बीच भाषिक, सांस्कृतिक, धार्मिक व नस्ली विभेद खडा कर गैर-ब्राह्मणों को ‘द्रविड’ घोषित कर उनके पुनरुद्धार की परियोजना प्रस्तुत की ।” इसी कारण बाद में अंग्रेज प्रशासकों ने मद्रास के मरीना समुद्र-तट पर बीशप काल्ड्वेल की एक प्रतिमा स्थापित कर दी, जो आज के चेन्नई शहर का एक ऐतिहासिक स्मारक बना हुआ है । न केवल उस षड्यंत्रकारी काल्ड्वेल की प्रतिमा ऐतिहासिक बनी हुई है , बल्कि उसके काले कारनामों को ही दक्षिण भारत का इतिहास बना दिया गया और उस विकृत इतिहास के आधार पर वहां के समाज-धर्म-संस्कृति को विकृत करने का एक अभियान सा चल पडा है , जिससे अब भविष्य की भयावहता भी निर्मित हो रही है ।
कालान्तर बाद उन्हीं चर्च मिशनरियों और उपनिवेशवादियों ने यह प्रचारित किया-कराया कि द्रविडों में अर्द्ध-ईसाइयत पहले से मौजूद है , इस कारण उन्हें पूर्णरुपेन ईसाई बन जाना चाहिए । इस दावे की पुष्टि के लिए उननें ‘दक्षिण भारत की रामायण’ कहे जाने वाले कालजयी धर्मग्रन्थ- ‘तिरुकुरल’ का अंग्रेजी में तदनुसार अनुवाद प्रकाशित कर उसे ‘ईसाई-शिक्षाओं का ग्रन्थ’ घोषित करते हुए उसके मूल रचनाकार संत-कवि तिरुवल्लुवर को ईसा के प्रमुख शिष्यों में से एक- सेण्ट टामस से दीक्षित-धर्मान्तरित ईसाई घोषित कर दिया । इतना ही नहीं , दक्षिण भारत में प्राचीन काल से प्रचलित शिवोपासना विषयक- ‘शैव मत’ का भी ईसाईकरण कर दिया । दक्षिण भारतीय लोगों में शेष भारतीयों के प्रति घृणा व अलगाव पैदा करने तथा उन्हें ईसाइयत के नजदीक लाने के लिए चर्च-मिशन-संचालित विभिन्न शिक्षण-संस्थानों में ततविषयक पाठ्यक्रम और शोध कार्यक्रम भी चलाये जाने लगे , जिनके शिक्षार्थी और शोधार्थी खुलेआम दावा करने लगे कि संस्कृत-भाषी आर्यों अर्थात उतर भारतीय लोगों ने सदियों से दक्षिण भारतीय-द्रविडों को अपने अधीनस्थ रखा हुआ है , जिन्हें अब मुक्त होना चाहिए । इस विचारधारा के आधार पर सन १९१६ में चर्च-मिशनरियों ने ‘जस्टिस पार्टी’ नाम से एक राजनीतिक दल का गठन किया-कराया , जिसने सन १९४४ में एक पृथक ‘द्रविडस्तान’ देश की मांग कर डाली थी । उसी जस्टिस पार्टी का नया संस्करण है- ‘द्रविड मुनेत्र कड्गम’, जिसका अर्थ है- द्रविडोत्थान संघ । उल्लेखनीय है कि दक्षिण भारत में राष्ट्रभाषा- हिन्दी का विरोध किये जाने के पीछे यही पश्चिमी हस्तक्षेप सक्रिय हो जाता है ।
दक्षिण भारत के भाषा साहित्य में इस तरह के विघटनकारी हस्तक्षेप की बावत पश्चिम के देशों विशेषकर- अमेरिका व इंग्लैण्ड की चर्च मिशनरियों से सम्बद्ध दर्जनाधिक एन०जी०ओ० भिन्न-भिन्न तरीके से सक्रिय हैं , जिनमें से प्रमुख हैं- एशियाटिकएशि सोसाइटी, फोर्ट विलियम कालेज, ईस्ट इण्डिया कालेज, कालेज आफ फोर्ट सेन्ट जार्ज, रायल एशियाटिक सोसाइटी, बोडेन चेयर आक्सफोर्ड, तथा हेलिवेरी एण्ड इम्पिरियलिस्ट सर्विस कालेज और इण्डियन इंस्टिच्युट आफ आक्सफोर्ड । ये तमाम संस्थायें भारत की विभिन्न संस्थाओं को वित्त-पोषण करते हुए उनके माध्यम से भाषा-साहित्य को तोड-मडोर कर एक ओर भारत के समरस समाज में द्रविड-दलित के तथाकथित उत्थान का अन्दोलन चलाया करती हैं तो दूसरी ओर साहित्य में भी दलितवाद को हवा देते रहती हैं । और अब तो भारत की लगभग सभी भाषाओं में ‘दलित साहित्य’ के नाम से खास तरह का ‘साहित्य’ (?) ही रचवा डालने में लगी हुई हैं ये संस्थायें । इसके लिए ये तथाकथित साहित्यकारों-रचनाकारों को तरह-तरह के प्रलोभन-पुरस्कार-सम्मान भी समय-समय पर मुहैय्या करते-कराते रहती हैं । इसका प्रभाव उतर भारत में दलितवाद के रुप में तो दक्षिण भारत में द्रविडवाद के रुप साफ देखा जा रहा है । दक्षिण भारतीय भाषा-साहित्य में पश्चिम के हस्तक्षेप से उत्त्पन्न द्रविडवाद उतर के दलितवाद से ज्यादा खतरनाक है , क्योंकि यह अलगावकारी व विघटनकारी है ।
जुलाई’ २०१६
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