दक्षिण में ‘पश्चिम’ का हस्तक्षेप ज्यादा खतरनाक



यूरोपीय-ब्रिटिश साम्राज्यवादियों ने भारत में अपने औपनिवेशिक शासन को दीर्घकालिक बनाने और उसका औचित्य सिद्ध करने के लिए भारतीय भाषा-साहित्य, संस्कृति व शिक्षा-पद्धति को तो निशाना बनाया ही, ‘फुट डालो-राज करो’ नीति के तहत जो विभाजनकारी बीज बोया था , उसके विषैले फलों से आज भी हमारा राष्ट्र-जीवन उबर नहीं पा रहा है ।
मालूम हो कि उपनिवेशवादियों ने अपने प्रायोजित भाषा-विज्ञान में बे-सिर-पैर के विधान रचते हुए तरह-तरह की संगतियां-विसंगतियां उठा-बैठा कर दक्षिण भारत की दो प्रमुख भाषाओं- ‘तेलगू’ और ‘तमिल’ को जबरन ही ‘संस्कृत व भारतीय भाषा-परिवार’ से बाहर की ‘हिब्रू’ से मिलती-जुलती भाषा प्रतिपादित कर उसे इस कदर प्रचारित करा दिया कि अब वहां के शिक्षण-संस्थानों में भी कमो-बेस यही तथ्य स्थापित हो चुका है । जबकि यह निर्विवादित सत्य है कि भारत की समस्त भाषायें संस्कृत से निकली हुई एक ही भाषा-परिवार की हैं । इसी तरह से नस्ल-विज्ञान के अपने औपनिवेशिक विधान के सहारे उतर भारतीय लोगों को यूरोप से आये हुए आक्रमणकारी नस्ल का ‘आर्य’ और दक्षिण भारतीय लोगों को आर्यों से अलग ‘द्रविड’ नस्ल का होना प्रतिपादित कर उन्हें अफ्रीकी हब्सियों और निग्रो जन-जातीय समूहों में शामिल कर इस आधारहीन तथ्य को इस तरह से विश्लेषित-प्रचारित किया कि उतर भारत और दक्षिण भारत के बीच एक अदृश्य विभाजन रेखा खिंच गई ।
जबकि वास्तविकता कुछ और ही थी, जो दुनिया भर में हुए मानव-जाति विज्ञान के विभिन्न शोध-निष्कर्षों से प्रमाणित हो चुकी है कि वेद-वर्णित ‘आर्य’ शब्द जातिवाचक नहीं, बल्कि सदैव ही गुणवाचक रहा है । यह वेदों के प्रति आस्था रखने वाले और मन-वचन-कर्म से श्रेष्ठ लोगों के लिए प्रयुक्त हुआ है । इसी तरह ‘द्रविड’ शब्द भारत के दक्षिणी भाग में अवस्थित पांच राज्यों के समूह के लिए प्रयुक्त हुआ है , न कि मानव जाति के लिए । बावजूद इसके विलियम जोन्स और मैक्समूलर आदि यूरोपियन षड्यंत्रकारी भाषाविदों ने अपनी गुप्त औपनिवेशिक साम्राज्यवादी परियोजना के तहत ‘आर्य’ और ‘द्रविड’ दोनों शब्दों को ‘श्रेष्ठ और निकृष्ट नस्ल’ के रूप में परिभाषित-विश्लेषित कर श्वेत व अश्वेत चमडी के आधार पर समस्त संसार के लोगों का विभाजन करने वाले ‘नस्ल-विज्ञानियों’ के हाथों में एक उपकरण थमा दिया । इस उपकरण से औपनिवेशिक साम्राज्यवादियों ने स्वयं को ही ‘सर्वोत्तम आर्य’ घोषित कर लिया ; जबकि उतर भारतीय सवर्ण लोगों को ‘प्रदूषित आर्य’ और दक्षिण भारत के लोगों को उन आर्यों से शोषित-विजित ‘द्रविड’ नाम दे कर एक ही मूल भाषा- संस्कृत एवं एक ही मूल संस्कृति (वैदिक संस्कृति) से समरस बृहतर भारतीय सनातन समाज के बीच शोषक-शोषित की विभाजन-रेखा खींच दी । उपनिवेशवादियों ने इस आधारहीन विभाजन को अपने प्रायोजित भाषा-विज्ञान और नस्ल-विज्ञान के सहारे इतना हवा दिया कि यह सफेद झूठ ही सच के रूप में स्थापित हो गया \
दक्षिण में पश्चिम के इस हस्तक्षेप की शुरुआत भारत पर ईस्ट इण्डिया कम्पनी का शासन स्थापित हो जाने के बाद औपनिवेशिक शासन का औचित्य सिद्ध करने की बावत पश्चिमी विद्वानों द्वारा भाषा-विज्ञान व नस्ल-विज्ञान नामक हथकण्डा खडा किये जाने के साथ ही शुरू हो गई थी, किन्तु ‘द्रविड’ नस्ल गढने का षड्यंत्र सन १८५६ ई० में कैथोलिक चर्च के एक पादरी ने क्रियान्वित किया । अमरिकी शोध संस्थानों व अध्ययन केन्द्रों से गहरे जुडे लेखक राजीव मलहोत्रा के अनुसार लन्दन से आया राबर्ट काल्डवेल नामक वह पादरी ऐंग्लिकन चर्च के ‘सोसायटी फार द प्रोपेगेशन आफ द गास्पल’ से सम्बद्ध मद्रास-स्थित तिरुनेलवेली चर्च का ‘बिशप’ था । इस षड्यंत्र को अंजाम देने के लिए पहले उसने सन १८८१ ई० में ‘कम्परेटिव ग्रामर आफ द ड्रैवेडियन रेश’ नामक एक पुस्तक लिख कर ‘द्रविड’ शब्द के अर्थ का अनर्थ करते हुए यह प्रस्तावित किया कि भारत के मूलवासी द्रविड थे , जो आर्यों के आगमन के पश्चात उतर से दक्षिण में भगा कर ब्राह्मणों द्वारा छले-ठगे व बन्धक बना लिए गए और अब चर्च द्वारा उन्हें बन्धन-मुक्त किये जाने की आवश्यकता है । जाहिर है , द्रविड नस्ल के इस कपोल-कल्पित-सुनियोजित आविष्कार का उद्देश्य अंग्रेजी विदेशी शासन और ईसाईयत के प्रचार का औचित्य सिद्ध करना रहा था ।
मालूम हो कि बीशप काल्ड्वेल जिस ‘सोसायटी फार द प्रोपेगेशन आफ द गास्पल’ से सम्बद्ध था, वह ‘अश्वेतों पर श्वेतों की दासता’ का औचित्य प्रचारित करने वाली एक संस्था थी । उसकी तत्सम्बन्धी परियोजना के अनुसार काल्डवेल ने भारतीय लोगों को भाषा और धर्म के आधार पर दो भागों में विभाजित करने तथा तमिल-भारतीयों को ईसाइयत के ढांचे में बैठाने के उद्देश्य से दक्षिण भारत के एक स्थान-विशेष के तथाकथित इतिहास की एक पुस्तक लिखी- ‘ए पालिटिकल एण्ड जेनरल हिस्ट्री आफ द डिस्ट्रिक्ट आफ तिरुनेलवेली’ जिसे सन- १८८१ ई० में ईस्ट इण्डिया कम्पनी की मद्रास प्रेजिडेन्सी ने प्रकाशित कराया था । किताब में तिरुनेलवेली के उस कैथोलिक चर्च बीशप ने आसेतु हिमाचल व्याप्त बहुसंख्य बृहतर भारतीय धर्म-समाज में दरार पैदा करने तथा द्रविड नस्ल की संकल्पना प्रस्तुत करने और उस द्रविडता को ईसाइयत के नजदीक ले जाने का जो काम किया , उससे अंग्रेजी औपनिवेशिक शासन और चर्च के विस्तारवादी कार्यक्रम , दोनों को आगे चल कर बहुत लाभ मिला । एशिया में निवासियों की पहचान पर शोध करने वाले टिमोथी ब्रूक और आन्द्रे स्मिथ के अनुसार काल्डवेल ने “ व्यवस्थित रूप से द्रविड विचारधारा की बुनियाद रखी और…..उसने दक्षिण भारत की अल्पसंख्यक-ब्राह्मण-आबादी व बहुसंख्यंक गैर-ब्राह्मण-आबादी के बीच भाषिक, सांस्कृतिक, धार्मिक व नस्ली विभेद खडा कर गैर-ब्राह्मणों को ‘द्रविड’ घोषित कर उनके पुनरुद्धार की परियोजना प्रस्तुत की ।” इसी कारण बाद में अंग्रेज प्रशासकों ने मद्रास के मरीना समुद्र-तट पर बीशप काल्ड्वेल की एक प्रतिमा स्थापित कर दी, जो आज के चेन्नई शहर का एक ऐतिहासिक स्मारक बना हुआ है । न केवल उस षड्यंत्रकारी काल्ड्वेल की प्रतिमा ऐतिहासिक बनी हुई है , बल्कि उसके काले कारनामों को ही दक्षिण भारत का इतिहास बना दिया गया और उस विकृत इतिहास के आधार पर वहां के समाज-धर्म-संस्कृति को विकृत करने का एक अभियान सा चल पडा है , जिससे अब भविष्य की भयावहता भी निर्मित हो रही है ।
कालान्तर बाद उन्हीं चर्च मिशनरियों और उपनिवेशवादियों ने यह प्रचारित किया-कराया कि द्रविडों में अर्द्ध-ईसाइयत पहले से मौजूद है इस कारण उन्हें पूर्णरुपेन ईसाई बन जाना चाहिए । इस दावे की पुष्टि के लिए उननें ‘दक्षिण भारत की रामायण’ कहे जाने वाले कालजयी धर्मग्रन्थ- ‘तिरुकुरल’ का अंग्रेजी में तदनुसार अनुवाद प्रकाशित कर उसे ‘ईसाई-शिक्षाओं का ग्रन्थ’ घोषित करते हुए उसके मूल रचनाकार संत-कवि तिरुवल्लुवर को ईसा के प्रमुख शिष्यों में से एक- सेण्ट टामस से दीक्षित-धर्मान्तरित ईसाई घोषित कर दिया । इतना ही नहीं , दक्षिण भारत में प्राचीन काल से प्रचलित शिवोपासना विषयक- ‘शैव मत’ का भी ईसाईकरण कर दिया । दक्षिण भारतीय लोगों में शेष भारतीयों के प्रति घृणा व अलगाव पैदा करने तथा उन्हें ईसाइयत के नजदीक लाने के लिए चर्च-मिशन-संचालित विभिन्न शिक्षण-संस्थानों में ततविषयक पाठ्यक्रम और शोध कार्यक्रम भी चलाये जाने लगे , जिनके शिक्षार्थी और शोधार्थी खुलेआम दावा करने लगे कि संस्कृत-भाषी आर्यों अर्थात उतर भारतीय लोगों ने सदियों से दक्षिण भारतीय- द्रविडों को अपने अधीनस्थ रखा हुआ है , जिन्हें अब मुक्त होना चाहिए । इस विचारधारा के आधार पर सन १९१६ में चर्च-मिशनरियों ने ‘जस्टिस पार्टी’ नाम से एक राजनीतिक दल का गठन किया-कराया , जिसने सन १९४४ में एक पृथक ‘द्रविडस्तान’ देश की मांग कर डाली थी । उसी जस्टिस पार्टी का नया संस्करण है- ‘द्रविड मुनेत्र कड्गम’, जिसका अर्थ है- द्रविडोत्थान संघ ।
उल्लेखनीय है कि दक्षिण भारत में राष्ट्रभाषा- हिन्दी का विरोध किये जाने के पीछे यही पश्चिमी हस्तक्षेप सक्रिय हो जाता है । और तो और वहां ‘वन्दे-मातरम’ का भी विरोध होता रहता है । किन्तु दक्षिणी सीमा पर कोई मुस्लिम देश नहीं होने के कारण वह विरोध चूंकि कश्मीरी अलगावद की तर्ज पर हिंसक रूप नहीं ले पाता , इस कारण वह सुर्खियों में नहीं आ पाता है । कश्मीर में पाकिस्तान की शह पर जहां मुस्लिम जेहादी संगठन सक्रिय हैं , वहीं भारत के इस दक्षिण भाग में यूरोपीय देशों विशेष कर इंग्लैण्ड और अमेरिका की चर्च मिशनरियों के साथ एक दर्जन से अधिक एन०जी०ओ० अलगाववाद फैलाने के बावत इस कदर सक्रिय हैं कि तमिलनाडू में जिन दोनों प्रमुख राजनीतिक दलों- ‘द्रमुक’ और ‘अन्ना द्रमुक’ की सरकार हुआ करती है, वे दोनों भी द्रविडवाद की ही राजनीति करते हैं ।
मनोज ज्वाला ; ०६ जुलाई’ २०१६/ पुनर्प्रेषित- ३१ अक्तुबर ; २०१६
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