पश्चिमी अनुवाद के षड्यंत्रकारी साम्राज्यवादी निहितार्थ
उपनिवेशकाल से लेकर आज तक पश्चिम के अनेक विद्वानों ने भारतीय वाङ्मय के विविध ग्रन्थों का विभिन्न भाषाओं में अनुवाद किया है । सर्वाधिक अनुवाद जर्मन,अंग्रेजी, फ्रेन्च और पुर्तगाली भाषाओं में हुए हैं । इस अनुवाद को हम हमारे शास्त्रों-ग्रन्थों की वैश्विक व्यापकता-स्वीकार्यता और उनके प्रति पश्चिमी विद्वानों की अभिरुचि मान स्वयं को गौरवान्वित महसूस करते हैं । किन्तु यह नहीं जानते और न जानने की कोशिश ही करते कि उनने क्यों अनुवाद किया है और क्या किया है । आम तौर पर यही समझा जाता है कि दूसरी भाषा के लोग भी अनुदित ग्रन्थ से ज्ञान हासिल कर सकें इसलिए किसी भाषा के ग्रन्थ का अनुवाद किया जाता है । ज्ञान-विज्ञान के प्रसार की दृष्टि से यह आवश्यक भी है और सराहनीय भी । मूल ग्रन्थ की सामग्री के शब्दों का ऐसा अनुवाद, जिससे उनके मौलिक अर्थ और भावार्थ न बदले वही उत्कृष्ट माना जाता है । किसी अनुवाद में अनुदित शब्दों के मूलार्थ और भावार्थ बदल जाने से उस मूल ग्रन्थ की स्थापनाएं भी बदल जाती हैं । इस कारण ऐसे अनुवाद को निकृष्ट और निन्दनीय माना गया है । इस मापदण्ड पर पश्चिमी अनुवाद किस स्तर का और कितना विश्वसनीय है यह जानने के लिए उस अनुवाद-कर्म की पृष्ठभूमि और उसका उद्देश्य जानना जरूरी है ।
.मालूम हो कि पश्चिमी विद्वानों द्वारा भारतीय ग्रन्थों के अनुवाद किये जाने का दौर तब शुरू हुआ, जब यूरोपीय साम्राज्यवादी उपनिवेशवाद के तहत भारत ब्रिटेन का उपनिवेश बन चुका था । ब्रिटिश उपनिवेशकों के साथ भारत आये ईसाई धर्म-प्रचारक मिशनरियों से सम्बद्ध विद्वानों-भाषाविदों ने इसकी शुरुआत की । किन्तु उनके उस अनुवाद का उद्देश्य भारतीय धर्म-शास्त्रों से यूरोप के आम जनमानस को अवगत कराना नहीं था, बल्कि ईसाई-धर्म-प्रचारकों को भारतीय वैदिक-सनातन धर्म के तत्वों से साक्षात्कार कराना था , ताकि वे ईसाइयत के प्रचारार्थ तदनुसार मार्ग-निर्धारण कर सकें । संस्कृत-साहित्य के अध्ययन से जब उन्हें यह ज्ञात हुआ कि बाइबिल में धर्म का एक बूंद मात्र है, जबकि संस्कृत-साहित्य के किसी भी ग्रन्थ में धर्म का महासागर ही है; तब उननें भारत में प्रचलित ‘भाषा-विज्ञान’ के समानान्तर ‘तुलनात्मक भाषा-विज्ञान’ का प्रतिपादन कर संस्कृत से यूरोपीय भाषाओं की तुलना करते हुए यह मनगढंत निष्कर्ष प्रचारित-घोषित कर-करा दिया कि संस्कृत भाषा तो ग्रीक और लैटिन से निकली हुई है । इसी तरह से उन्हें जब संस्कृत साहित्य में वर्णित आर्यों की श्रेष्ठता का भान हुआ, तब उननें ‘ नस्ल विज्ञान ’ का प्रतिपादन कर यह झूठ स्थापित किया कि ‘आर्य’ यूरोप मूल के थे तथा यूरोपीय आर्य नस्ली तौर पर सर्वाधिक शुद्ध व गोरी चमडी से युक्त एवं आध्यात्मिक तौर पर ईसाइयत की आभा से अभिमण्डित हैं ; जबकि भारतीय आर्य निम्नस्तरीय ही नहीं, बल्कि यूरोपीयन आर्यों के संसर्ग से उत्पन्न मिश्रित नस्ल के हैं और इस कारण वे पतित हो कर मूर्तिपूजक एवं बहुददेववादी हो गए । इसी क्रम में उननें साम्राज्यवादी उपनिवेशवाद को उचित ठहराने के बावत उपनिवेशित (गुलाम) देशों के निवासियों को बाइबिल की एक कथा के आधार पर नूह के तीन पुत्रों में से दो के अधीन रहने के लिए अभिशापित हेम का वंशज होने की कथा प्रचारित करायी ।
इसी पृष्ठभूमि पर पश्चिमी चिन्तकों-भाषाविदों ने गोरी चमडी एवं ईसाइयत की श्रेष्ठता और उपनिवेशवाद की अनिवार्यता सिद्ध करने के लिए उपरोक्त आधारहीन तथ्यों (?) की पुष्टि के बावत दुनिया के सबसे प्राचीन भारतीय धर्मशास्त्रों-ग्रन्थों में ही साक्ष्य प्रक्षेपित करने के छद्म उद्देश्य से उनका तद्नुसार अनुवाद किया, जिसकी विश्वसनीयता कितनी क्षीण है इसे परखने के लिए सिर्फ कुछ उदाहरणों पर गौर करना ही पर्याप्त है । भारतीय शास्त्रों-ग्रन्थों का योजनापूर्वक अनुवाद करने वालों में विलियम जोन्स और फ्रेडरिक मैक्समूलर के नाम काफी प्रसिद्ध हैं, जिनके बारे में आम भारतीय बुद्धिजीवी भी जानता है । भारतीय शास्त्रों-ग्रन्थों के पश्चिमी अनुवादों का व्यापक अध्ययन करने वाले अध्येता और लेखक राजीव मलहोत्रा ने अपनी पुस्तक- ‘भारत विखण्डन’ में लिखा है- “विलियम जोन्स ने संस्कृत के अपने अनुवादों को कुछ इस तरह से करने का प्रयास किया कि वे युनानी-रोमी ढांचे में सटीक बैठें । उसने हिन्दू देवताओं और युनानी-रोमी मूर्तिपूजकों के बीच अनेक समानताओं की श्रृंखला बनायी । उसने समझाया की सभी सभ्यतायें ‘हैम’ की वंशज थीं, जो पतित होकर मूर्तिपूजक बन गई, । अन्ततः ईसाइयत के द्वारा युनानी-रोमी लोगों को पतन से बचा लिया गया (ईसाई बना कर), किन्तु हिन्दू मूर्तिपूजक ही बने रहे ।”
सन १७९४ में मनुस्मृति का अंग्रेजी अनुवाद करने वाले जोन्स ने गोरी चमडी वालों की स्वघोषित श्रेष्ठता और ईसाइयत की आध्यात्मिकता को पुष्ट करने के उद्देश्य से हिन्दूत्व और ईसाइयत के बीच समानता को स्थापित करने के लिए हिन्दू-धर्म-ग्रन्थों (संस्कृत-ग्रन्थों) का उपयोग ईसाइयत के समर्थन में तर्क देने के लिए किया । उसने शब्दों की ध्वनियों से संयोगवश प्रकट होने वाली समानता के बाहरी आवरण के सहारे रामायण के ‘राम’ को बाइबिल के ‘रामा’ से जोड दिया और राम के पुत्र ‘कुश’ को बाइबिल के ‘कुशा’ से । इसी तरह की कई संगतियों को खींच-तान कर उसने यह प्रतिपादित किया कि बाइबिल-वर्णित नूह के जल प्लावन के बाद राम ने भारतीय समाज का पुनर्गठन किया, इसलिए भारत बाइबिल से जुडी सबसे पुरानी सभ्यताओं में से एक है । उसने बाइबिल में वर्णित बातों को सत्य प्रमाणित करने के लिए संस्कृत-ग्रन्थों से उसकी पुष्टि करने की दृष्टि से उनका अनुवाद किया है । इस क्रम में उसने ‘मनु’ को ‘एडम’ घोषित कर दिया और विष्णु के प्रथम तीन अवतारों को नूह के जल-प्लावन की कहानी में प्रक्षेपित कर दिया । इस विलक्षण वर्णन में उसने बाइबिल में वर्णित- ‘नाव पर सवार आठ मनुष्यों’ को मनुस्मृति के ‘सप्त-ऋषियों’ से जोड दिया ।
जोन्स के संस्कृत अनुवादों की विशेषता यह रही है कि सनातन धर्म के जो तत्व बाइबिल के सांचे में सटीक रूप से नहीं बैठे उन्हें जबरन सटीक बैठाने के लिए उसने तथ्यों को तोडा-मरोडा और जो तत्व उसके बाद भी सटीक नहीं बैठ पाये , उन्हें मिथक या अंधविश्वास कह कर उसने नकार दिया । मालूम हो कि जोन्स ने ईसाइयत की विश्वसनीयता बढाने के लिए भारतीय धर्म-ग्रन्थों का तदनुसार इस्तेमाल करने के निमित्त ‘एशियाटिक सोसायटी’ नामक संस्था की भी स्थापना कर रखी थी, जो उसके बाद उसके मिशन को आगे बढाती हुई आज भी सक्रिय है । उसके इस कार्य के लिए ईस्ट इण्डिया कम्पनी द्वारा उसके मरणोपरान्त इंग्लैण्ड के सेंट पाल चर्च में मनुस्मृति को थामे हुए उसकी एक प्रतिमा स्थापित कर उसे सम्मानित किया गया था ।
विलियम जोन्स के बाद भारतीय शास्त्रों-ग्रन्थों के अनुवाद से उसके मिशन को आगे बढाने वालों में फ्रेडरिक मैक्समूलर का नाम सर्वाधिक प्रसिद्ध रहा है, जिसने वेदों का भी अनुवाद किया । आर्यों के युरोपीय मूल के होने सम्बन्धी पूर्व कल्पित-प्रायोजित पश्चिमी कुतर्कों की स्थापना को मजबूती प्रदान करने के लिए भारत पर आर्यों के आक्रमण की तिथि भी घोषित कर देनेवाले मैक्समूलर का काम कितना विश्वसनीय है यह जानने के लिए उसके दो निजी पत्रों पर गौर करना पर्याप्त है । १६ दिसम्बर १८६८ को ओर्गोइल के ड्यूक , जो ब्रिटेन में एक मंत्री थे को लिखे पत्र में मैक्समूलर कहता है- “भारत का प्राचीन धर्म पूरी तरह ध्वस्त हो गया है, ऐसे समय में अगर ईसाइयत यहां पैर नहीं जमाती तो यह किसकी गलती होगी ?” उसी वर्ष अपनी पत्नी को लिखे पत्र में उसने लिखा है- “…..मैं उम्मीद करता हूं कि मैं इस कार्य को सम्पन्न करूंगा, और आश्वस्त हूं कि मैं वह दिन देखने के लिए जीवित नहीं रहूंगा , फिर भी मेरा यह संस्करण और वेदों का अनुवाद आज के बाद भारत के भविष्य और इस देश में मनुष्यों के विकास को बहुत सीमा तक प्रभावित करेगा । वेद उनके धर्म का मूल है और वह मूल क्या है , इसे उन्हें दिखाने के लिए मैं कटिबद्ध हूं ; जिसका सिर्फ एक रास्ता है कि पिछले तीन हजार वर्षों में जो कुछ भी इससे निकला है उसे उखाड दिया जाये ।”
ऐसे में अब आप समझ सकते हैं कि औपनिवेशिक सत्ता के सहारे स्थापित और प्रचार-माध्यमों के सहारे प्रतिष्ठित हुए इन पश्चिमी विद्वानों-भाषाविदों ने भारतीय शास्त्रों-ग्रन्थों का जो अनुवाद किया है, सो कितना षड्यंत्रकारी है ।
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• मई’ २०१६
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