मनोज ज्वाला
अपने देश के गीने-चुने अत्याधुनिक शहरों में शुमार अहमदाबाद में पिछले दिनों मैंने एक अचम्भा सा देखा- मात्र एक सौ बिद्यार्थियों और उन्हें पढाने वाले तीन सौ शिक्षकों का एक गुरूकुल । जीवन के विविध क्षेत्रों से जुडी समस्त विद्याओं और ७२ कलाओं की शिक्षा दी जाती हैं बच्चों को । कोई डिग्री और कोई प्रमाण-पत्र नहीं । बस केवल शिक्षा । किन्तु शिक्षा ऐसी कि उससे निर्मित प्रतिभा उन बच्चों के व्यक्तित्व से टपकती हुई दिखती है । ब्च्चों को पैसे कमाने की मशीन बनाने के बजाय सर्वगुण-सम्पन्न प्रतिभावान व्यक्ति बनाने का टकशाल है वह गुरूकुल, जहां विद्याथियों, शिक्षकों और शिक्षकेत्तर कर्मियों के बठने के लिए आधुनिक फर्निचर से भी परहेज है । गोबर-माटी से लेपित भूमि पर टाट और गद्दा बिछा कर बैठते हैं सभी लोग । विशाल आलिशान भवन की एक-एक दीवारें तक गोबर-माटी से लेपित हैं । इसके कर्ता-धर्ता उत्तमभाई जावनमल शाह एक अभिनव प्रयोग कर रहे हैं- देश को विविध समस्याओं-अवांछनीयताओं से उबारने का ।
आज दुनिया भर में विशेषकर अपने भारत में व्याप्त सभी प्रकार की समस्याओं में सबसे प्रमुख समस्या है- भ्रष्टाचार , जिसके मूल में है चारित्रिक पतन और नैतिक मूल्यों का क्षरण । इसका सीधा सम्बन्ध शिक्षा और संस्कार से है । चारित्रिक पतन और नैतिक-क्षरण का अर्थ सिर्फ कानून-उल्लंघन और अनुचित यौनकर्म नहीं है । यह तो इसकी पश्चिमी अवधारणा है । भारतीय जीवन-चिन्तन और समाज-दर्शन में बहुत व्यापक अर्थ है इसका । व्यक्ति-परिवार-समाज-देश-राष्ट्र के समग्र कल्याण के विरूद्ध किया जाने वाला आचरण भारतीय-दृष्टि में चरित्र-हीनता है और किसी भी स्तर की चरित्र-हीनता यहां नीति के विरूद्ध है, अनैतिकता है । हालांकि भारतीय अर्थ में ‘नीति’ भी पश्चिम की ‘पालिसी’ से सर्वथा भिन्न है । यहां आचरण की शुचिता चरित्र है और चरित्र की वैचारिकता नीति है । जीवन के हर क्षेत्र में इसी चरित्र और नीति के व्यापक क्रियान्वयन के कारण भारत कभी जगद्गुरु था ।
किन्तु पश्चिम की औद्योगिक क्रांति के औपनिवेशिक उफान ने एक ओर जहां व्यक्ति की जीवन शैली को परिवर्तित कर दिया, वहीं दूसरी ओर उसने चरित्र और चिन्तन को बदल दिया तो नैतिक मूल्य भी स्वतः बदल गए । ये सारे बदलाव व्यक्ति और समाज को बाजार की दिशा में उन्मुख कर दिए , जिसका उद्देश्य सिर्फ और सिर्फ उपभोग व मुनाफा हो गया । शिक्षा को भी विभिन्न वस्तुओं के उत्पादन , बाजार के निर्माण , और अधिकाधिक मुनाफा अर्जित करने के तकनीकी ज्ञान का माध्यम बना दिया गया । भारत भी इससे अछूता नहीं रहा , बल्कि कई सौ वर्षों तक ब्रिटेन का उपनिवेश बना रहा और ब्रिटेन अपनी औपनिवेशिक जडें जमाने के लिए भारत की मौलिक शिक्षण-पद्धति को सुनियोजित योजनापूर्वक तदनुरूप बदल कर अपने को स्थापित कर दिया । ब्रिटिश सरकार ने भारत पर स्वयं को स्थापित किये रखने के लिए भारतीय ज्ञान-विज्ञान को अंध्रेरे के गर्त में धकेल कर भारतीय बच्चों को भारत की जडों से काट कर उन्हें अभारतीय-यूरोपीय सभ्यता-संस्कृति के प्रति निष्ठावान बनाने के जिस कुटिल उद्देश्य से अंग्रेजी शिक्षण-पद्धति को हमारे ऊपर थोप दिया , उसमें जाहिर है चरित्र-निर्माण का पक्ष कहीं नहीं था, आज भी नहीं है ।
यह कैसी विडम्बना है कि अंग्रेजों ने भारत पर अंग्रेजी शासन को बनाये रखने के लिए भारतीय जीवन-चिन्तन और समाज-दर्शन के विरूद्ध जिस अंग्रेजी शिक्षण-पद्धति को हमारे ऊपर थोप रखा था , वही पद्धति अंग्रेजों के चले जाने के बाद कथित रूप से स्वतंत्र भारत में आज भी उसी रूप में कायम है । अंतर सिर्फ इतना ही हुआ है कि आज उस शिक्षण-पद्धति में एक नया उद्देश्य जुड गया है- अधिक से अधिक मुनाफा कमाओ, अधिक से अधिक पैसा कमाओ और अधिक से अधिक उपभोग करो । आज शिक्षा की उपादेयता सिर्फ और सिर्फ नौकरी पाने की अर्हता भर है और नौकरियां भी इतनी कम है कि सबके लिए सुलभ तो कभी हो ही नहीं सकती | आज एक तरफ स्थिति यह है कि मात्र १०वीं पास की अर्हता वाली चपरासी की नौकरी के लिए महज कुछ सौ रिक्तियों के विरूद्ध एम०ए०, पी एच डी० , एम०बी०ए० की डिग्री धारण किए हुए लाखों लोग आवेदन कर रहे हैं , तो दूसरे तरफ महज डिग्रियां बांटने-बेचने वाली इस शिक्षण-पद्धति में व्यक्ति-परिवार-समाज-संस्कृति-देश-राष्ट्र के प्रति उत्कृष्ट चिन्तन कहीं नहीं है । सात्विक स्वावलम्बन तथा प्राकृतिक सह-जीवन और आध्यात्मिक उन्नयन की जीवन-विद्या से कोशों दूर है माडर्न इण्डिया की यह शिक्षण-पद्धति , जिसमें समग्रता का सर्वथा अभाव है । यह बिल्कुल एकाकी व एक-पक्षीय है ; मात्र पदार्थ और स्वार्थ ही इसके केन्द्र में है, जिसके कारण भौतिक विकास की ऊंचाइयों को छूने में सहायक होने के बावजूद समाज की समस्त बुराइयों, समस्याओं एवं अवांछनीयताओं की वाहक भी यही है ।
कम से कम भारत के संदर्भ में तो यह शिक्षण-पद्धति ही यहां की समस्त समस्याओं की जड है , क्योंकि यह यहां के जीवन-चिन्तन और समाज-दर्शन के विरूद्ध ही नहीं, विरोधी भी है । प्राचीन भारत की ‘गुरूकुलीय शिक्षण-पद्धति’ में पदार्थ और अध्यात्म , दोनों दो पहलू रहे हैं शिक्षा के, जिनके बीच में परमार्थ और मोक्ष इसका उद्देश्य रहा है । पदार्थ के ज्ञान से शरीर व संसार की जरुरतें पूरी होती हैं, तो अध्यात्म के ज्ञान से आत्मा को परमानन्द की प्राप्ति । परमार्थ भाव व्यक्ति को परिवार-समाज-राष्ट्र के प्रति ही नहीं , बल्कि समस्त प्रकृति और पर्यावरण के प्रति भी कर्त्तव्यपरायण व निष्ठावान बनाता है, तो मोक्ष भाव उसे भ्रष्टाचार-बलात्कार-व्याभिचार जैसे कुकर्मों के कुमार्ग पर जाने से रोकता है व आत्मसंयमी बनाता है ।
भारत की प्राचीन शिक्षण-पद्धति की इस अवधारणा पर उत्तमभाई जावनमल शाह तथा उनके गुरूकुल में पढनेवाले विद्यार्थियों और उनके अभिभावकों के समन्वित प्रयास से थामस मैकाले की अंग्रेजी शिक्षण-पद्धति के विरूद्ध अहमदाबाद में जो प्रयोग हो रहा है, उसका ठोस परिणाम आना अभी बाकी जरूर हैं, किन्तु उसकी सार्थकता अभी से दिखाई देने लगी है । निःशुल्क शिक्षा पा रहे वहां के एक-एक विद्यार्थी महंगे से महंगे कान्वेण्ट स्कूलों के हजार-हजार विद्यार्थियों पर भारी पड रहे हैं, क्योंकि वे ७२ तरह की कलायें सीख रहे हैं । पदार्थ विज्ञान और अध्यात्म विज्ञान दोनों ही के विविध आयामों यथा- भूमि, रसायन, प्रकृति, कृषि, वाणिज्य, विविध भाषा-साहित्य, वैदिक गणित, व्याकरण, वेद-उपनिषद, योग, ध्यान , खेल, कुश्ती, संगीत, नृत्य, जादू , भाषण, वादन, मंचन, अभिनय, हस्त-शिल्प, वास्तु, ज्योतिष, चित्रांकन, आदि समस्त मानवीय कलाओं से परिपूर्ण धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष-केन्द्रित समग्र शिक्षा के सांचे में ऐसे ढल रहे हैं कि उन्हें देख सम्पन्न घरानों के अभिभावक भी सरकारी-गैरसरकारी स्कूलों-कालेजों से मिलने वाली डिग्रियों को रद्दी की वस्तु मान अपने बच्चों को लिए हुए उस गुरूकुल में आ रहे रहे हैं, जहां दाखिला के लिए किसी प्रमाण-पत्र की जरुरत नहीं , जन्म-पत्री देखी जाती है । उत्तम भाई का मानना है कि आज अधिक से अधिक धनार्जन करने एवं अधिकाधिक मुनाफा कमाने की आपाधापी के कारण भ्रष्टाचरण व परिवार-विघटन से लेकर, आर्थिक शोषण-वर्गीकरण व पर्यावरण-प्रदूषण तक विभिन्न समस्याओं का जो ग्राफ बढता जा रहा है और अनियंत्रित पशुवत आचार-व्यवहार के कारण लूट-मार-बलात्कार जैसे अपराधों की जो बाढ सी आती जा रही है , उन सबके मूल में पश्चिम की यही एकपक्षीय भोगवादी बाजारवादी औपनिवेशिक अंग्रेजी शिक्षण-पद्धति और उससे निर्मित सामाजिक अपसंस्कृति है । कठोर से कठोर कानून बना कर भी दुष्विचारों और दुष्चिन्तन से उत्त्पन होने वाली उपरोक्त समस्याओं-अवांछनीयताओं का निराकरण सम्भव नहीं है, बल्कि प्राचीन भारत की गुरूकुलीय शिक्षण-पद्धति में ही समाधान सन्निहित है ।
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