फिर विकसित न हो पाये शिक्षा के वे सुंदर उपवन



२० अक्टूबर सन १९३१ को लन्दन के रायल इंस्टिच्यूट आफ इंटरनेशनल अफेयर्स के मंच से भाषण करते हुए महात्मा गांधी ने कहा था कि “ मैं बगैर किसी भय के कहता हूं कि भारत पर ब्रिटिश शासन की स्थापना से एक सौ साल पहले भारत आज की तुलना में अधिक सुशिक्षित था । भारत में आने के बाद अंग्रेज प्रशासकों ने यहां की हर चीज (परम्पराओं-व्यवस्थाओं) को यथावत स्वीकार करने के बजाय उन्हें उखाडना शुरू कर दिया । उननें मिट्टी खोद कर हमारी हर चीज की जडें बाहर निकाल कर देखी और फिर उन्हें वैसे ही खुला छोड दिया , जिससे हमारी उन पुरानी चीजों के सुन्दर उपवन एकबारगी नष्ट ही हो गए ”। गांधी जी के इस कथन पर उन दिनों इंग्लैण्ड में काफी हंगामा हुआ था । उन पर उनके भाषणों से सनसनी फैलाने के आरोप लगाए गए थे । महात्मा जी से जब यह पूछा गया कि आपने ऐसी गैर-जिम्मेदाराना बात कैसे कह दी, तब उन्होंने लिखित जवाब देते हुए कहा था कि “ आप स्वयं अपने अधिकारियों की तत्सम्बन्धी रिपोर्ट देख कर मेरे इस कथन की जांच कर सकते हैं ” । गांधीजी ने जिन रिपोर्टों का जिक्र किया था , उनमें शिक्षा की स्थिति जानने के लिए ईस्ट इण्डिया कम्पनी की ओर से थामस मुनरो द्वारा मद्रास प्रेसिडेन्सी (दक्षिण भारत ) तथा विलियम एडम द्वारा बंगाल प्रेसीडेन्सी (पूर्वांचल भारत ) और जी० डब्ल्यू० लिटनर द्वारा पंजाब प्रांत (उतर भारत ) में क्रमशः १८३५-३८-८२ ई० में कराये गए सर्वेक्षणों के ततविषयक विवरण शामिल थे ।
प्रख्यात गांधीवादी विचारक धर्मपाल ने लन्दन में रहते हुए वर्षों-वर्षों तक ब्रिटिश रायल लाइब्रेरी के इण्डिया आफिस सेण्टर में उपलब्ध दस्तावेजों के आधार पर ‘ए ब्यूटिफुल ट्री’ नामक पुस्तक लिख कर उसमें इन तथ्यों का विस्तार से खुलासा किया है । उस पुस्तक में वर्णित विलियम एडम की रिपोर्ट के अनुसार उस समय के बंगाल बिहार ( जिसमें आज के पश्चिम बंगाल , बांगलादेश , उतरप्रदेश , बिहार , झारखण्ड , उडीसा , मणिपुर शामिल हैं ) के लगभग एक लाख गांवों में एक भी ऐसा गांव नहीं था , जहां कम से कम एक विद्यालय न हों । इसी तरह से मद्रास के लगभग पचास हजार गांवों के सर्वेक्षण पर आधारित थामस मुनरों की रिपोर्ट में बताया गया है कि हर गांव में शिक्षा की अत्युत्तम व्यवस्था कायम थी । पंजाब और बम्बई के सर्वेक्षण-प्रतिवेदन में तो ग्रामवार-जिलावार विद्यालयों-महाविद्यालयों के शिक्षकों एवं बच्चों की संख्या से लेकर उनके जातिगत आंकडे भी दिए गए हैं , जिनसे यह प्रमाणित होता है कि सभी जातियों-वर्णों के बच्चों के लिए शिक्षा सुलभ थी । उन सर्वेक्षणों में बच्चों को पढायी जाने वाली विद्याओं और उनकी पुस्तकों के नाम तक उल्लिखित हैं । अंग्रेजी शासन से पूर्व भारत में शिक्षा की दशा-दिशा व गुणवत्ता को भी दर्शाने वाले वे सर्वेक्षण-प्रतिवेदन अपने देश के उन तथाकथित बुद्धिजीवियों को चौंका देने वाले हैं , जो अपनी औपनिवेशिक सोच की जकडन के कारण दिन-रात यह कोसते रहते हैं कि अंग्रेजों के आने से पहले भारत सबसे पिछडा मुल्क था ।
‘स्टेटस आफ एजुकेशन इन बंगाल’ नाम से सन १८३८ में तीन खण्डों में प्रकाशित विलियम एडम की रिपोर्ट के अनुसार बंगाल प्रेसिडेंसी के १८ जिलों के सभी ०१ लाख ५० हजार ७४८ गांवों में कम से कम एक-एक पाठशाला जरूर थे , जबकि उच्च शिक्षा के १८०० से अधिक ऐसे केन्द्र थे जहां १६ वर्ष की उम्र तक के बच्चे शिक्षा ग्रहण किया करते थे । रिपोर्ट के दूसरे खण्ड में प्रायः हर गांव में ग्राम-वैद्य होने तथा चेचक व हैजा से बचाव के बावत टीके लगाने व सर्पदंश के उपचार की चिकित्सकीय शिक्षा की भी व्यवस्था होने के साथ-साथ नातोर जिले में एक चिकित्सा महाविद्यालय होने की जानकारी भी दर्ज है । उसकी रिपोर्ट में पाठशालाओं-गुरुकुलों की संख्या के साथ-साथ वहां पढने वाले बच्चों की संख्या, उनकी जाति एवं उम्र का भी जिक्र है । उसी रिपोर्ट में मुर्शिदाबाद , वीरभूम , बर्द्धमान व तिरहुत जिले में २५६६ सामान्य पाठशालाओं के साथ-साथ आठ कन्या-पाठशालाओं और एक शिशुशाला का भी जिक्र है । इससे समझा जा सकता है कि कन्याओं की शिक्षा के मामले में भी अपना भारत युरोपीय देशों से बहुत आगे था । मद्रास प्रेसिडेंसी में थामस मुनरो के आदेशानुसार तत्कालीन कलक्टरों द्वारा प्रेषित रिपोर्टों में गंजाम जिले में २५५ और विशाखापट्टनम जिले में ९१४ विद्यालयों का उल्लेख है , तो राजमुन्दरी जिले में २७९ महाविद्यालयों (जिन्हें कालेज कहा गया है) का भी जिक्र है । इसके अलावे मालाबार जिले के कलक्टर की रिपोर्ट में पाठशाला व महाविद्यालय और गुरुकुल के अलावे शिक्षा की एक अनौपचारिक व्यवस्था का भी उल्लेख है , जिसके तहत १५९४ बच्चों को उनके घरों पर ही पढने-पढाने की व्यवस्था थी , जिसे उसने प्राईवेट ट्यूशन कहा है । रिपोर्ट में बताया गया है कि शिक्षा का श्रीगणेश करने के लिए बच्चे की उम्र के पांचवें साल के पांचवें महीने का पांचवां दिन शुभ माना जाता था । कडप्पा जिले के कलक्टर ने रिपोर्ट किया है कि ब्राह्मण बच्चे का पांच से छह साल की उम्र में और गैर ब्राह्मण व शुद्र बच्चे का छह से आठ साल की उम्र में पाठशालाओं में दाखिल कराया जता था । मद्रास के कलक्टर द्वारा मुनरो को भेजी गई रिपोर्ट में पाठशालाओं , मकतबों व गुरुकुलों में रोजाना पठन-पाठन का समय काफी लम्बा- प्रायः सूर्योदय से सूर्यास्त तक होने का जिक्र किया गया है । तीनों ही सर्वेक्षण रिपोर्टों में बच्चों के पठन-पाठन के विषय- गणित, व्याकरण, साहित्य, दर्शन, खगोल, ज्योतिष, न्याय, प्रकृति, कृषि, चिकित्सा, तर्कशास्त्र, धर्मशास्त्र, शिल्पकला, निर्माणकला आदि बताये गए हैं ; जबकि पाठ्य-पुस्तकों में- वेद , वेदांत , पुराण , उपनिषद , सांख्य , मीमांशा , आयुर्वेद रामायण , महाभारत , भागवत , पंचतंत्र , महातरंगिणी , शब्दमंजरी , अष्टाध्यायी , काव्यप्रकाश , शब्दमणि , सिद्धांत कौमुदी , रघुवंशम , कुमार सम्भवम , मेघदूतम , भारवी , नैषध , विश्वकर्मा , तंत्र आदि के उल्लेख किये गए हैं ।
धर्मपाल जी की पुस्तक- ‘ ए ब्युटिफुल ट्री ’ में वर्णित उपरोक्त सर्वेक्षण-रिपोर्ट के अनुसार उपरोक्त तमाम शिक्षा-केन्द्र राजसत्ता के हस्तक्षेप से सर्वथा मुक्त , किन्तु आत्म-निर्भर स्वशासित व समाज-पोषित थे । अधिकतर शिक्षा-केन्द्र किसी न किसी मठ-मंदिर-मस्जीद से संरक्षित-सम्पोषित थे तो कुछ राज-प्रदत भूमि पर स्थापित व खेती एवं दान की आय से समाज के विशिष्ट लोगों द्वारा संचालित । शिक्षकों को विशिष्ट सम्मान प्राप्त था , जिनसे किसी तरह का कर नहीं लिया जाता था , जबकि आवश्यकतानुसार उन्हें मान-धन भी दिया जाता था । बच्चों से कोई निर्धारित शुल्क नहीं लिया जता था , बल्कि उनके माता-पिता अपनी सामर्थ्य के अनुसार स्वेच्छा से पाठशालाओं को दान और शिक्षकों को दक्षिणा दिया करते थे । मदुरै जिले के कलक्टर आर० पिटर द्वारा मद्रास प्रेसिडेंसी को भेजी गई रिपोर्ट में पाठशालाओं व गुरुकुलों को गांव की ओर से दान में भूमि मिलने तथा उस भूमि के कर-मुक्त होने और उस पर होने वाली खेती की आय से उक्त शिक्षा-केन्द्रों के संचालन का जिक्र है ।
अहमदाबाद में हेमचन्द्राचार्य संस्कृत पाठशाला नाम से गुरुकुल चलाने वाले प्रखर शिक्षाविद उत्तमभाई जवानमल के पास इस सत्य के अनेक प्रमाण हैं कि शसन-सत्ता पर निर्भरता के बगैर समस्त भारत के गांव-गांव में शिक्षा का एक व्यवस्थित तंत्र उस जमाने में कायम था, जब इंग्लैण्ड में नस्ल व रंग के आधार पर भेदभावपूर्वक कुलिन वर्ग के लोगों को ही सिर्फ चर्च के द्वारा शिक्षा दी जाती थी । क्योंकि , वहां की राज-सत्ता गरीबों-मजदूरों-अश्वेतों को शिक्षा के काबिल समझती ही नहीं थी । इस मानसिकता से ग्रसित ईस्ट इण्डिया कम्पनी के गवर्नरों को भारत में ‘कर-मुक्त भूमि’ पर अवस्थित शिक्षा-विद्या के वे सुन्दर वृक्ष चूभने लगे थे । उनसे उन्हें ‘भूमि-कर’ का नुकसान होता दिखाई पडा, तो कर-धन के उन भूखे भेडियों ने उन तमाम शिक्षा-केन्द्रों की भूमि छीन कर तथा शिक्षकों को मिलने वाली रियायतें समाप्त कर और शिक्षा-तंत्र का भरण-पोषण करने वाले सारे आर्थिक स्रोतों को ही सूखा कर उन वृक्षों को जड से ही उखाड डाला । फलतः पचास-सौ वर्ष बीतते-बीतते भारत में नई पीढी पर निरक्षरता व अज्ञानता छा गई , जबकि भारतीय शिक्षा-व्यवस्था का ही अनुकरण कर ब्रिटेन में साक्षरता बढ गई और ब्रिटिश हुक्मरानों को भारत पर शासन करने के लिए शिक्षित भारतीयों की आवश्यकता महसूस होने लगी तब उनने हमे हमारी मौलिक शिक्षा-नीति-पद्धति से काट कर अपनी औपनिवेशिक शिक्षा-पद्धति के हवाले कर दिया । अंग्रेजी शासन की दासता से मुक्ति के बाद भी हमारी मौलिक शिक्षा-व्यवस्था के वे सुन्दर उपवन हरे-भरे न हो सके । आज गांव-गांव में मैकाले-अंग्रेजी शिक्षा-पद्धति के सरकारी-गैरसरकारी सस्ते से सस्ते और महंगे से महंगे स्कूल जरूर हैं , किन्तु वे धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष-प्रदायी शिक्षणशाला नहीं हैं , बल्कि भ्रष्टाचार की प्रयोगशाला हैं । और वैसे भी स्कूल और गुरुकुल समानार्थी तो कतई नहीं हैं ।
• दिसम्बर’ २०१६