ब्रिटिश उपनिवेशवादी कूटनीति और भारत की नियति


अंग्रेजों ने भारत पर अपना औपनिवेशिक शासन कायम कर लेने के बाद उसे स्थायी बनाने के लिए जो जो रणनीतियां अपनायी, उनमें सबसे प्रमुख रणनीति थी भारतवासियों की राष्ट्रीय चेतना को नष्ट-भ्रष्ट कर उन्हें अंग्रेजी-परस्त बना देना । इस दूरगामी कूट्नीतिक-शासनिक योजना के क्रियान्वयन हेतु उननें देश के नवनिहालों-नवजवानों को भारतीय संस्कृति से विमुख करना जरूरी समझा, जिसके लिए पर भारतीय साहित्य को निशाना बनाया और अंग्रेजी-शिक्षण पद्धति को उसका माध्यम । उननें मैकाले और मैक्समूलर के हाथों भारतीय संस्कृति-साहित्य को ब्रिटिश साम्राज्य के अनुकूल एवं भारतीय राष्ट्र के प्रतिकूल तोड्ने-मरोडने तथा शिक्षण पद्धति को तदनुसार बदल डालने का काम पूरी तत्परता से किया । अंग्रेजी शिक्षण पद्धति को भारत में लागू करने के पीछे ब्रिटिश हूक्मरानों की जो मंशा थी , वह इस शिक्षण-पद्धति के जनक- थामस वेलिंगटन मैकाले के एक लेख के निम्नांकित अंश मात्र से स्पष्ट हो जाता है –
अर्थात , “ जनता (भारतीय जन) की शिक्षा ईसाइयत के सभी रूपों के सामान्य सिद्धांतों व ईसाई मौलिकता के अनुसार व्यवहृत होनी चाहिये । यह शिक्षा (अंग्रेजी शिक्षा) उस मुख्य उद्देश्य की पूर्ति का एक उच्च व मूल्यवान साधन हो , जिसके लिये इस सरकार (ब्रिटिश) का अस्तित्व कायम हुआ है । निश्चय ही यह देश (भारत) ऐसा नहीं है , जहां ईसाइयत का प्रसार अधिक हुआ है ’’ ।
ब्रिटिश हुक्मरानों की योजना के तहत भारत के छात्र-छात्राओं को भारतीय राष्ट्रीयता के प्रतिकूल शिक्षा देने वाली अंग्रेजी शिक्षण-पद्धति जब भारत में (पहले बंगाल में) कायम कर दी गई , तब अपनी योजना को फलीभूत होते देख इसके प्रवर्तक थामस मैकाले नें हर्षित होकर अपनें पिता को जो पत्र लिखा उसका अनुवाद भी उल्लेखनीय है । उसने लिखा-
“ मेरे प्रिय पिताजी !
हमारे अंग्रेजी स्कूल आश्चर्यपूर्वक उन्नति कर रहे हैं । हिन्दुओं पर इस शिक्षा का अद्भूत प्रभाव पडा है । अंग्रेजी शिक्षा-प्राप्त कोई भी हिन्दू ऐसा नही है, जो अपने धर्म-मजहब से हार्दिक जुडाव रखता हो । कुछ लोग नीति के मामले में हिन्दू रह गए हैं , तो कुछ ईसाई बनते जा रहे हैं । मेरा यह विश्वास है कि अगर हमारी यह शिक्षण-पद्धति कायम रही तो, यहां की सम्मानित जातियों में आगामी तीस वर्षों के भीतर बंगाल के अंदर एक भी मूर्तिपूजक ( अर्थात हिन्दू ) नहीं रह जायगा । इनके मजहब में न्यूनतम हस्तक्षेप की भी आवश्यकता नहीं पडेगी । स्वाभाविक ही ज्ञान-बृद्धि की विचारशीलता से यह सब हो जायगा । इस सम्भावना पर मुझे हार्दिक प्रसन्न्ता हो रही है । ”
वही हुआ भी, और आज भी हो रहा है । उस अंग्रेजी शिक्षा ने राष्ट्र-भक्त के बजाय राजभक्त पैदा करना शुरु कर दिया । ऐसे राजभक्त, जो भारत व भारतीय परम्पराओं का मखौल उडायें, उसे तिरस्कृत करें और ईसाइयत अर्थात अंग्रेजी संस्कृति के रंग में रंग कर अंग्रेजी राज एवं अंग्रेजी राजनीति का प्रशंसक–संवर्द्धक-सेवक बन अंग्रेजी हितों के संवर्द्धन में प्रयुक्त होते रहें ; भारतीय ऐतिहासिक पुरुषों-पूर्वजों की गाली-गलौजपूर्ण निन्दा करें और ब्रिटिश शासनाधिकारियों को सहायता-समर्थन देते हुये भारत पर ब्रिटिश शासन को ही भारतीयों की उन्नति-प्रगति के लिये आवश्यक मानें । अपने इस कार्य को और अधिक मजबूति से अंजाम देने के लिये मैकाले नें भारतीयों के शिक्षणार्थ भारत का इतिहास शौर्य-स्वाभिमान-विहीनता के हिसाब से ऐसे लिखवाया और भारतीय धम-शास्त्रों व वैदिक ग्रंथों का ऐसा विकृत अनुवाद करवाया कि इन्हें पढनेवालों को सिर्फ हीनता के सिवाय कोई गर्व-बोध हो ही नहीं ; बल्कि ब्रिटेन की सत्ता-सभ्यता-संस्कृति व इतिहास के प्रति प्रशस्ति व भक्ति का मानस निर्मित होता रहे ।
अपने लक्ष्य की सिद्धि के लिए मैकाले ने एक तथाकथित यूरोपीय विद्वान- मैक्समूलर को इस कार्य के सम्पादन हेतु तैयार किया । अपनी ततसम्बन्धी मंशा पर ब्रिटिश सरकार की मुहर लगवाकर उसने मैक्समूलर को आक्सफोर्ड विश्वबिद्यालय में प्रतिनियुक्त करवाया और तब फिर उससे अपनी योजनापूर्वक भारतीय इतिहास-लेखन तथा वेदादि भारतीय शास्त्रों-ग्रंथों का अर्थानुवादकरण कार्य शुरु करवाया । साथ ही इधर भारत भर में यह प्रचारित करवा दिया कि मैक्समूलर संस्कृत व अंग्रेजी का ऐसा प्रकाण्ड विद्वान है कि उसने वेदों-उपनिषदों का अंग्रेजी में जो अर्थानुवाद किया है, सो बिल्कुल अदवितीय व प्रामाणिक है ।
उधर उस मैक्समूलर ने भारतीय साहित्य के अर्थानुवादन का काम कितनी प्रामाणिकतापूर्वक किया सो आप सिर्फ इतने ही से समझ सकते हैं कि उसके द्वारा लिखित-अनुदित पुस्तकों में भारतीयों को यह पढाया जाने लगा कि ‘आर्य’ भारत के निवासी नहीं थे, बल्कि विदेशी आक्रमणकारी थे और हिन्दू एक घिनौना व कायर मजहब है ; भारत कोई राष्ट्र नहीं है , बल्कि एक ऐसा महाद्वीप है , जिसमें अनेक देश व अनेक मजहबी संस्कृतियां रहती हैं ; और वेदों-उपनिषदों में अन्धविश्वासी किस्से-कहानियां लिखी हुई हैं , जिनके कारण ही भारत का पतन हुआ ; आदि-आदि ।
उसकी ऐसी कुटिल करतूतों का आपको अगर विश्वास न होता हो , तो लीजिये उसी के एक मित्र रेवरेण्ड एडवर्ड, डाक्टर आफ डिविनिटी ने उसके उन कार्यों पर प्रसन्न होकर उसे जो पत्र लिखा था, उसका यह अंश देखिये , इससे आपको सहज ही यह विश्वास हो जायेगा । अर्थात, “ तुम्हारा काम (प्राचीन भारतीय ग्रंथों के अनुवाद का काम ) भारत को धर्मांतरित करने के प्रयासों में एक नये युग का निर्माण करेगा । तुमको अपने यहां स्थान देकर आक्सफोर्ड ने एक ऐसे काम में सहायता प्रादान की है , जो भारत को धर्मांतरित करने में प्रारम्भिक और चिरस्थाई प्रभाव उत्तपन्न करेगा ।”
साफ है कि अंग्रेजों ने भारत पर अपनी प्रभुता-सत्ता को दीर्घ काल तक बनाये रखने के लिये न केवल भारत की प्राचीन गुरूकुलीय शिक्षण-पद्धति को ध्वस्त कर उसकी जगह अंग्रेजी शिक्षण-पद्धति कायम की ; बल्कि भारतीय संस्कृति के संवाहक साहित्य में भी घुसपैठ कर इसे अपने जद में ले लिया । और , इसके साथ ही उनने प्रेस-मीडिया नामक आधुनिक वैचारिक संस्था को भी जन्म दिया और उसके स्वतंत्र-निष्पक्ष होने का पाखण्ड कायम किया । फिर उस अंग्रेजी प्रेस-मीडिया के वे मैकालेजीवी कारिन्दे अपनी-अपनी कलम से ब्रिटिश साम्राज्य का हित-पोषण करने लगे । इतना ही नहीं, ब्रिटिश हूक्मरानों ने शिक्षण-संस्थानों से लेकर तमाम भाषिक-साहित्यिक-बौद्धिक संस्थानों तक में अंग्रेजी-परस्त लोगों की नियुक्ति कर उन्हें भारतीय संस्कृति व साहित्य की जडें काटने को तैनात कर दिया ।
लम्बे शासन के बाद देश-विभाजन के साथ अंग्रेजों ने अपनी कुटिल नीति के तहत अंग्रेजीपरस्त हाथों में ही रक्त-रंजित सत्ता का हस्तांतरण कर आजादी का भ्रम कायम कर दिया । फिर ‘ इण्डिया दैट इज भारत ’ की अंग्रेजी अवधारणा से युक्त गणतंत्र भी लागू हुआ , किन्तु गण और तंत्र ,दोनों ही अंग्रेजी-परस्तों के हाथ में है । फलतः नहीं बदल सकी भारत की नियति । वही की वहे है शिक्षण-पद्धति । आज थोडा शिक्षित व्यक्ति अपनी शिक्षा के कारण गांव छोड शहर भागने को तत्पर है और ज्यादा शिक्षित व्यक्ति भारत छोड कर यूरोपीय देशों की ओर उन्मुख । भारतीय शिक्षण-पद्धति की पुनर्स्थापना को प्रयत्नशील उत्तमभाई जवानमल शाह का कहना है कि आज हमारे देश में जिसके पास जितनी बडी शैक्षणिक डिग्री है , वह उतना ही ज्यादा अंग्रेज है , उसके भीतर भारत के प्रति उतना ही ज्यादा तिरस्कार-भाव है ; किन्तु ड्रग-डांस-डिस्को-डायवोर्स वाली पश्चिमी अपसंस्कृति से उसका उतना ही ज्यादा लगाव है । इस अपसंस्कृति के बढते प्रचलन के कारण आज एक ओर जहां राष्ट्रीयता और नैतिकता का क्षरण हो रहा है, वहीं दूसरी ओर समाज में व्याभिचार व भ्रष्टाचार बेतहाशा बढ रहा है , जिसके मूल में हैं अभारतीय मैकाले शिक्षण-पद्धति के स्कूल । व्यक्ति को व्यष्टि, समष्टि, सृष्टि व परमेष्टि के प्रति दृष्टि-सम्पन्न बनाने के मूल उद्देश्य से रहित यह शिक्षण-पद्धति और ये स्कूल ही हैं जो नवनिहालों-नवजवानों को मानव-मूल्यों की नहीं बल्कि बाजार-मूल्य का पाठ पढाते हैं और सिर्फ व सिर्फ नौकरी पाने अर्थात रुपया कमाने-बनाने की डिग्रियां बेचते-बांटते हैं तथा अंततः धनलोलुप बना देते हैं । नौकरियां तो कुछ को ही मिल पाती हैं, जबकि अधिकतर निकम्मे बन जाते हैं । आवश्यकतायें भडक चुकी होती हैं, जिन्हें पूरा करने के लिए वे या तो अपराध-कर्म अपना लेते हैं या आत्महत्या ।
• नवम्बर’ २०१६