भारत के विघटन का वैश्विक षड्यंत्र और अभारतीय संगठनों का व्यापक तंत्र

पिछली दो शताब्दियों में औपनिवेशिक साम्राज्यवाद के पुरोधा बने इंग्लैण्ड द्वारा ‘फुट डालो-शासन करो’ की नीति के तहत भारत पर शासन करते हुए अपनी दूरगामी योजना के तहत सन १९४७ में इसे खण्डित कर इसकी सत्ता का हस्तान्तरण कर दिए जाने के बावजूद शेष भारत के और अधिक विखण्डन का षड्यंत्र आज भी जारी है । हालाकि पश्चिम की उन साम्राज्यवादी शक्तियों का नीति-नियन्ता आज भी वेटिकन सिटी ही है , जिसके गुप्त निर्देशानुसार सन ४७ से इस षडयंत्र की दूसरी पारी चल रही है ; किन्तु अब इसका पुरोधा इंग्लैण्ड नहीं , बल्कि अमेरिका बना हुआ है अमेरिका । पारी-परिवर्तन के बाद इस षड्यंत्र के क्रियान्वयन की रीति-नीति में भी परिवर्तन होना स्वाभाविक ही था , सो अमेरिका ने ब्रिटेन द्वारा भारत की ध्वस्त की जा चुकी पारम्परिक-सामाजिक-शैक्षिक-राजनीतिक परम्पराओं के ध्वंशावशेष पर बोये गए विषैले बीजों को खाद-पानी देना तो जारी रखा, किन्तु इसके माध्यम बदल दिए । इतना ही नहीं , बल्कि इन बदले हुए माध्यमों के चाल-चलन और चेहरे भी बदल दिए ।
अब अमेरिका विभिन्न अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं एवं बहुराष्ट्रीय कम्पनियों तथा स्वयंसेवी-समाजसेवी संस्थाओं और गैर-सरकारी व गैर-राजनीतिक संगठनों के माध्यम से ‘मुंह में राम बगल में छुरी’ वाली कहावत की तर्ज पर छद्म तरीके से पश्चिम के साम्राज्यवादी षड्यंत्रों को अंजाम देने में लगा हुआ है । वेटिकन सिटी से निर्देशित और अमेरिका से पोषित-संचालित इन संस्थाओं को बेनकाब किया जाना अब जरुरी हो गया है , जब एक तरफ विश्व-मंच पर भारत से उसकी दोस्ती और विविध विषयक संधियों की नयी-नयी ईबारतें लिखी जा रही हैं , तो दूसरे तरफ यहां कभी ‘असहिष्णुता’ का ग्राफ ऊपर की ओर बढा हुआ मापा जा रहा है , तो कभी ‘दलितों की सुरक्षा ’ का ग्राफ नीचे की ओर घटा हुआ दिखाया जा रहा है । ये संस्थायें भिन्न-भिन्न प्रकृति और प्रवृति की हैं । कुछ शैक्षणिक-अकादमिक हैं जो शिक्षण-अध्ययन के नाम पर भारत के विभिन्न मुद्दों पर तरह-तरह का शोध-अनुसंधान करती रहती हैं ; तो कुछ मानवाधिकारवादी और लोकतंत्राधिकारवादी हैं , जो वैसे तो दुनिया भर में मानवता एवं लोकतंत्र की पहरेदारी करती हैं किन्तु भारत में विशेष निगरानी भी करती हैं । जबकि कुछ संस्थायें ऐसी हैं , जो इन कार्यों के लिए अनेकानेक संस्थायें खडी कर उन्हें धन मुहैय्या करती-कराती हैं , तो कुछ ऐसी भी हैं , जो इन तमाम संस्थाओं का ध्रुवीकरण (नेटवर्किंग) करती हुई तत्सम्बन्धी कार्यों के लिए उनका मार्ग प्रशस्त करती हैं ।
‘दलित फ्रीडम नेटवर्क’ (डी०एफ०एन०) संयुक्त राज्य अमेरिका एक ऐसी संस्था है , जो भारत में दलितों के अधिकारों की सुरक्षा के नाम पर उन्हें भडकाने के लिए विभिन्न भारतीय-अभारतीय संस्थानों का वित्त-पोषण और नीति-निर्धारण करती है । इसका प्रमुख कर्त्ता-धर्ता डा० जोजेफ डिसुजा नामक अंग्रेज है , जो आल इण्डिया क्रिश्चियन काउंसिल (ए०आई०सी०सी०) का भी प्रमुख है । डी०एन०एफ० के लोग खुद को भारतीय दलितों की मुक्ति का अगुवा होने का दावा करते हैं । इस डी०एन०एफ० की कार्यकारिणी समिति और सलाहकार बोर्ड में तमाम वैसे ही लोग हैं , जो हिन्दुओं के धर्मान्तरण एवं भारत के विभाजन के लिए काम करने वाली विभिन्न ईसाई मिशनरियों से सम्बद्ध हैं । वस्तुतः धर्मान्तरण और विभाजन ही डी०एन०एफ० की दलित-मुक्ति परियोजना का गुप्त एजेण्डा है , जिसके लिए यह संस्था भारत में दलितों के उत्पीडन की इक्की-दुक्की घटनाओं को भी बढा-चढा कर दुनिया भर में प्रचारित करती है , तथा दलितों को सवर्णों के विरूद्ध विभाजन की हद तक भडकाने के निमित्त विविध विषयक उत्त्पीडन साहित्य के प्रकाशन-वितरण व तत्सम्बन्धी विभिन्न कार्यक्रमों का आयोजन करती-कराती है । डी०एन०एफ० और इससे जुडी संस्थाओं के दलित-मुक्ति कार्यक्रमों की सफलता का आलम यह है कि इनका नियमित पाक्षिक प्रकाशन- ‘दलित वायस’ भारत में पाकिस्तान की तर्ज पर एक पृथक ‘दलितस्तान ’ राज्य की वकालत करता रहता है । डी०एन०एफ० को अमेरिकी सरकार का ऐसा वरदहस्त प्राप्त है कि वह अमेरिका-स्थित दलित-विषयक विभिन्न सकारी आयोगों के समक्ष भारत से दलित आन्दोलनकारियों को ले जा-ले जा कर भारत सरकार के विरूद्ध गवाहियां भी दिलाता है । अखिल भारतीय अनुसूचित जाति-जनजाति संगठन महासंघ के अध्यक्ष उदित राज ऐसे ही एक दलित नेता हैं , जो डी०एन०एफ० के धन से राजनीति करते हुए भारत सरकार के विरूद्ध विभिन्न अमेरिकी आयोगों व मंचों के समक्ष गवाहियां देते रहने के बावजूद इन दिनों भाजपा से सांसद भी बने हुए हैं । डी०एन०एफ० दलितों को भडकाने वाली राजनीति करने के लिए ही नहीं , बल्कि भारत के बहुसंख्य समाज के विरूद्ध दलित उत्त्पीडन और उसके निवारणार्थ विभाजन की वकालत-विषयक शोध- अनुसंधान के लिए शिक्षार्थियों व शिक्षाविदों को भी फेलोशिप और छात्रवृत्ति प्रदान करता है ।
प्रवासी भारतीय अमेरिकी लेखक राजीव मलहोत्रा ने अपनी पुस्तक- ‘ब्रिकिंग इण्डिया’ में भारत के विरूद्ध भारत में सक्रिय इन संस्थाओं की कलई खोल कर रख दी है । उनके अनुसार भारत में डी०एन०एफ० के सम्बन्ध राजीव गांधी फाउण्डेशन के साथ भी हैं , जो अब दलित अलगाववाद विषयक शोध-अनुसंधान कार्यक्रमों को भी प्रायोजित करता है । यह डी०एन०एफ० ‘क्रिश्चियन सालिडैरिटी वर्ल्ड वाइल्ड’ नामक अंतर्राष्ट्रीय संगठन से भी सम्बद्ध है , जो दलित-ईसाई गठजोड के वैश्वीकरण का काम करता है और विविध वैश्विक मंचों पर दलित उत्त्पीडन का हौवा खडा कर विश्व-महाशक्तियों से भारत में हस्तक्षेप करने की अपील करते रहता है ।
‘पालिसी इंस्टिच्युट फार रिलिजन एण्ड स्टेट’ (पी०आई०एफ०आर०ए०एस०) अर्थात ‘पिफ्रास’ अमेरिका की एक ऐसी संस्था है , जिसका चेहरा तो समाज और राज्य के मानवतावादी लोकतान्त्रिक आधार के अनुकूल नीति-निर्धारण को प्रोत्साहित करने वाला है , किन्तु इसकी खोपडी में भारत की वैविध्यतापूर्ण एकता को खण्डित करने की योजनायें घूमती रहती हैं । इसके स्वरुप की वास्तविकता यह है कि इसका कार्यपालक निदेशक जौन प्रभुदोस नामक एक ऐसा व्यक्ति है , जो धर्मान्तरणकारी कट्टरपंथी चर्च-मिशनरी संगठनों के गठबन्धन “द फेडरेशन आफ इण्डियन अमेरिकन क्रिश्चियन आर्गनाइजेसंस आफ नार्थ अमेरिका” अर्थात ‘फियाकोना’ का भी प्रतिनिधित्व करता है । ये दोनो संगठन एक ओर विश्व-मंच पर भारत को ‘मुस्लिम व ईसाई अल्पसंख्यकों का उत्त्पीडक देश’ के रुप में घेरने की साजिशें रचते रहते हैं , तो दूसरी ओर भारत के भीतर नस्ली भेद-भाव एवं सामाजिक फुट पैदा करने के लिए विभिन्न तरह के हथकण्डे अपनाते रहते हैं ।
‘पिफ्रास’ का एक सदस्य सी० राबर्ट्सन अमेरिकी सरकार के विदेश-सेवा संस्थान से सम्बद्ध है , जो ‘अमरिकन नेशनल एण्डाउमेण्ट आफ ह्यूमैनिटिज’ नामक संस्था के आर्थिक सहयोग से भारत में रामायण के राम को नस्लवादी , महिला उत्पीडक व मुस्लिम-विरोधी बताने के लिए बहुविध कार्यक्रमों का आयोजन कराता है । इन दोनों अमेरिकी संस्थाओं की भारत-विरोधी विखण्डनकारी गतिविधियों का आलम यह है कि ‘पिफ्रास’ ने ‘युनाइटेड मेथोडिस्ट बोर्ड आफ चर्च एण्ड सोसाइटी’ और ‘द नेशनल काउन्सिल आफ चर्चेज आफ क्राइस्ट इन द यु०एस०ए०’ के सहयोग से सम्पूर्ण दक्षिण एशिया के विभिन्न देशों- विशेषकर भारत में सक्रिय अपनी विभिन्न संस्थाओं के प्रतिनिधियों का एक सम्मेलन सन २००२ में आयोजित किया था , जिसमें उसके एक भारतीय प्रतिनिधि और कांग्रेसी मनमोहनी सरकार की सोनिया-प्रणित राष्ट्रीय सलाहकर समिति के प्रमुख सदस्य- जान दयाल ने यह तर्क प्रस्तुत किया था कि भारत में अल्पसंख्यक लोग अपनी सुरक्षा और अपने प्रति किये जाने वाले अपराधों के मामले में अपराधियों को दण्डित करने के लिए भारतीय राज्य पर भरोसा नहीं कर सकते ।
इस तरह से यह अमेरिकी संस्था एक तरफ भारत के भीतर बहुसंख्यक समाज के विरूद्ध दलितों और अल्पसंख्यकों को भडका कर विखण्डन के दरार को चौडा करने में लगी हुई है , तो दूसरे तरफ भारत के बाहर वैश्विक मंचों पर भारतीय राज्य-व्यवस्था को अक्षम-अयोग्य व पक्षपाती होने का दुष्प्रचार कर इस देश में अमेरिका के हस्तक्षेप का वातवरण तैयार करने में लगी हुई है । ऐसी एक नहीं अनेक संस्थायें हैं , जो भिन्न-भिन्न तरह के मुद्दों को लेकर भारत के विरूद्ध अलग-अलग मोर्चा खोली हुई हैं किन्तु वैश्विक स्तर पर एक संगठित नेटवर्क के तहत उन सबका उद्देश्य एक है और वह है भारत के विखण्डन की जमीन तैयार करना एवं इसे अमेरिका के अघोषित साम्राज्य अथवा यों कहिए , नस्ल आधारित ‘श्वेत साम्राज्य ’ के अधीन करना ।
* अगस्त' 2016
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