भारत के विरूद्ध भारतीय बौद्धिक पहलवानों का अघोषित अहिंसक युद्ध
कहा जाता है कि मुट्ठी भर अंग्रेज इंग्लैण्ड से कई गुणा विशाल भारत पर शासन करने में इसी कारण सफल हो पाए , क्योंकि उनकी सेना और पुलिस में नब्बे प्रतिशत से अधिक भारतीय जवान ही थे । छल-छद्म की रीति और कुटिल कूटनीति से भारतीय राजाओं-रजवाडों का सहयोग-समर्थन और अंग्रेजी पढे-लिखे लोगों के अंग्रेज-परस्त प्रशिक्षण से निर्मित जन-मन में अंग्रेज-नस्ल की श्रेठता का भाव भर कर यहां शासन व विभाजन करने में सफल रहे वे लोग अब आजाद भारत को भी अपनी उसी नीति से शासित व विभाजित करने में लगे हुए हैं । अब उनके साधन बदल गए हैं । अब वे औपनिवेशिक सेना-पुलिस के जवानों का नहीं , बल्कि असैनिक शैक्षणिक-अकादमिक संस्थानों के भारतीय ‘बौद्धिक पहलवानों’ का इस्तेमाल कर रहे हैं ।
भारत के प्राचीन शास्त्रों-ग्रन्थों के ईसाई-हितपोषक औपनिवेशिक अनुवाद हों , या आर्यों के पश्चिमी-विदेशी मूल के होने का बेसुरा-बेतुका राग ; नस्ल-विज्ञान का गोरी चमडी की कपोल-कल्पित श्रेठता-विषयक प्रतिपादन हो या संस्कृत को ग्रीक व लैटीन से निकली भाषा बताने वाले भाषा-विज्ञान का अनर्गल प्रलाप ; इन सब प्रायोजित अवधारणाओं को भारतीय जन-मानस पर थोपने और इससे अपना उल्लू सीधा करने में वेटिकन चर्च के पश्चिमी रणनीतिकार भारत के बुद्धिजीवियों का खूब इस्तेमाल करते आ रहे हैं । इसी तरह से लोकतंत्र , समता , स्वतंत्रता , मानवाधिकार , धर्म , सम्प्रदाय , सहिष्णुता , असहिष्णुता , आस्था विश्वास आदि तमाम विषयों को स्वयं के हित-साधन और भारत के विखण्डन की कूटनीति से परिभाषित करने और फिर उस परिभाषा के अनुसार अपनी योजनाओं को हमारे ऊपर थोपने के लिए भी उननें भारतीय बौद्धिक पहलवानों की ही फौज कायम कर रखी है ।
‘दलित फ्रीडम नेटवर्क’ से सम्बद्ध ऐसे ही एक बौद्धिक पहलवान का नाम है- ‘कांचा इलाइया’ , जो भारत में मानवाधिकारों की वकालत करता है और भारत की प्राचीन भाषा-साहित्य को दलित-अधिकारों के मार्ग में सबसे बडा बाधक बताते हुए ‘संस्कृत’ की हत्या कर देने का हास्यास्पद बौद्धिक दांव-पेंच भिडाते रहे हैं । ‘इण्डियन एक्सप्रेस’ की एक रिपोर्ट के अनुसार वर्ष-२००१ में मानवाधिकार पर आयोजित एक राष्ट्रीय सम्मेलन को संबोधित करते हुए संस्कृत की हत्या कर देने के अपने कार्यक्रम का एलान कर चुके कांचा इलाइया सनातन वैदिक धर्म को भारत की समस्त समस्याओं का कारण बताने का अभियान चलाते रहे हैं । चर्च से बहुप्रचारित उनकी पुस्तक- “ ह्वाई आई एम नाट ए हिन्दू ” में हिन्दू धर्म की ऐसी ही अनर्गल व्याख्या की गई है । इस पुस्तक पर कांचा को डी०एन०एफ० ने ‘पोस्ट डाक्टोरल फेलोशिप’ प्रदान किया है, तो भारत में राजीव गांधी फाऊण्डेशन द्वारा इसे प्रायोजित किया गया है । इस पुस्तक में इस बौद्धिक पहलवान के द्वारा हिन्दू धर्म की तुलना जर्मनी के नाजीवाद से की गई है और इसे आध्यात्मिक फासीवाद के रूप में वर्णित किया गया है । हिटलर की तानाशाही के लिए भी हिन्दू धर्म को जिम्मेवार ठहराया गया है , क्योंकि वह जर्मन तानाशाह बडे शौक से हिन्दू-धर्म के एक प्रतीक-चिह्न (स्वास्तिक) का इस्तेमाल किया करता था और स्वयं को ‘आर्य’ कहा करता था । ‘पोस्ट हिन्दू इण्डिया’ नामक अपनी पुस्तक में इस कांचा पहलवान ने हिन्दू धर्म के विरुद्ध एक नस्लवादी सिद्धांत गढते हुए लिखा है कि “ हिन्दू समाज में ब्राह्मण पशुओं से भी बदतर हैं , क्योंकि उनके मामले में पशुवृति भी अल्पविकसित है ” । इतना ही नहीं यह बौद्धिक पहलवान वेटिकन चर्च-पोषित अपनी बौद्धिकता के बूते भारत के बहुसंख्यक समाज में सामुदायिक घृणा का विष-वमन करते हुए दलितों को गृहयुद्ध के लिए भडकाता है और कहता है- “ ऐतिहासिक रूप से अगडी जतियों ने पिछडी जाति के लोगों को हथियारों के बल पर दबाया है , जैसा कि हिन्दू-देवी-देवताओं का स्रोत हथियारों के उपयोग की संस्कृति में जड जमाये हुए है । भारत में गृह-युद्ध की अगुवाई करने की क्षमता दलितों में है , जिन्हें ईसाइयों का भी साथ मिलेगा ; क्योंकि भारतीय दलित ईसा मसिह को सर्वाधिक शक्तिशाली मुक्तिदाता के रूप में पाते हैं । भारत में गृह-युद्ध की परिस्थितियां निर्मित करने और इसके आन्तरिक मामलों में युरोप-अमेरिका के हस्तक्षेप का आधार और औचित्य गढने के बावत वेटिकन-चर्च-पोषित संस्थाओं से दौलत-शोहरत हासिल करते रहने की कीमत पर अपनी बौद्धिकता का डंडा भांजने वाले ऐसे बौद्धिक पहलवानों में और भी कई नाम हैं ।
रोमिला थापर ऐसा ही एक बहुचर्चित नाम हैं , जिन्हें चर्च- पोषित पश्चिमी संस्थाओं ने परस्पर दुरभिसंधि कर इतिहासकार बना दिया है । वह तथाकथित इतिहासकार बडे जोरदार तरीके से यह लिखती-कहती है कि सम्पूर्ण भारतीय सभ्यता और भारतीय राज्य-व्यवस्था दबदबा रखने वाले जातीय समूहों द्वारा नियंत्रित दमनकारी उपकरणों के अतिरिक्त कुछ नहीं है , जिन्हें ध्वस्त कर देने की आवश्यकता है ।
इसी तरह से मीरा नन्दा नामक बौद्धिक वीरांगना महिला बायो-टेक्नोलाजिस्ट है , जो प्राचीन भारतीय सभ्यता-संस्कृति अर्थात सनातन वैदिक धर्म की निराधार निन्दा करने में अपने जैव-प्रौद्योगिकीय ज्ञान का इस्तेमाल करती है, क्योंकि उसे टेम्पलटन फाऊण्डेशन से दौलत और शोहरत दोनों हासिल होते रहता है ।
भारतीय धर्म-दर्शन-संस्कृति-प्रदर्शक संस्थानों से जुडे हुए भारतीय बुद्धिजीवियों को भी भारत-विरोधी षड्यंत्रकारी संस्थाओं ने एक तरह से ऊंचे दामों पर खरीद लिया है , जो रंगे सियारों की तरह दिखते कुछ हैं और बोलते कुछ हैं । महर्षि अरविन्द के भारतीय दर्शन को प्रोत्साहित करने के निमित्त अमेरिका के सैन-फ्रान्सिस्कों-स्थित ‘कैलिफोर्निया इंस्टिच्युट आफ इण्टेग्रल स्टडिज’ में स्थापित एक संकाय से सम्बद्ध अंगना चटर्जी की बौद्धिकता ऐसी बिकाऊ माल जो भारत की सनातन वैदिक संस्कृति के किसी भी तथ्य को दलितों के दमन का षड्यंत्र प्रमाणित कर उसके विरूद्ध अपना ज्ञान बघारते रहती है ।
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