महर्षि अरविन्द का ‘सुपरचेतन’ और उत्तमभाई का ‘गुरुकुलम’



आधुनिक भारत में अरविन्द घोष नामक एक ऐसे स्वतंत्रता-सेनानी व मनीषी हुए जो अपने पारिवारिक रुझान के कारण बचपन से युवावस्था तक ब्रिटेन में निहायत अंग्रेजी परिवेश के बीच पले-बढे-पढे होने तथा सर्वोच्च आई०सी०एस० की परीक्षा उत्तीर्ण कर लेने के बावजूद भारत लौटने के पश्चात अंग्रेजी शासन के विरूद्ध क्रांतिकारी आन्दोलनों में सक्रिय रह कर तत्व-दर्शन की आध्यात्मिक योग-साधना से मानवीय चेतना के उच्चत्तम विकास की अवस्था प्राप्त करने की शिक्षा का सफल प्रयोग कर समूची दुनिया को अचम्भित कर दिए । भारतीय अध्यात्म-दर्शन में वर्णित ‘मोक्ष’ की अवधरणा को चेतना के सर्वोच्च आयाम के रूप में परिभाषित कर उसे सांसारिक जीवन के विकास-क्रम से प्राप्त कर लेने की शिक्षा का आविष्कार करने के करण वे महर्षि कहलाये । उन्होंने यह तथ्य और सत्य स्थापित किया कि मनुष्य लौकिक जीवन जीते हुए भी प्राचीन भारतीय शिक्षा-प्रणाली से अपनी चेतना को ‘अति मानस (सुपर माइण्ड) तथा अपने व्यक्तित्व को ‘अति मानव (सुपर मैन)’ की ‘सुपरचेतन’ अवस्था तक विकसित कर अलौकिक शक्तियां प्राप्त कर सकता है ।
महर्षि अरविन्द के शिक्षा-दर्शन का लक्ष्य “उदात्त सत्य का ज्ञान” है, जो “समग्र जीवन-दृष्टि” द्वारा प्राप्त होता है । समग्र जीवन-दृष्टि मानव के ब्रह्म में लीन या एकाकार होने पर विकसित होती है । ईश्वरीय तत्वज्ञान की शिक्षा से मानव ‘अति मानव’ बन सत, रज व तम की प्रवृत्ति से ऊपर उठकर ज्ञानी बन जाता है । ‘अतिमानव’ की स्थिति में व्यक्ति सभी प्राणियों को अपना ही रूप समझता है । जब व्यक्ति शारीरिक, मानसिक तथा आत्मिक स्तर पर एकाकार हो जाता है, तो उसमें ‘दैवी शक्ति’ निःसृत हो उठती है ।
अरविन्द के शैक्षिक दर्शन का ‘अतिमानस’ (सुपर माइण्ड) चेतना का उच्चत्त्म स्तर है तथा दैवीय शक्ति (डिवाइन पावर) का रूप है । अतिमानस की स्थिति तक शनै: शनै: पहुँचना ही शिक्षा का लक्ष्य होना चाहिए । उनके अनुसार भारतीय प्रतिभा की तीन विशेषताएँ हैं- आत्मज्ञान, सर्जनात्मकता तथा बुद्धिमत्ता । उन्होंने देशवासियों में इन्हीं प्राचीन आध्यात्मिक शक्तियों के विकास करने का संदेश देकर भारतीय पुनर्जागरण करना चाहा । वे वर्तमान शिक्षा-पद्धति के विरोधी थे । उनके अनुसार “सूचनात्मक ज्ञान कुशाग्र बुद्धि का आधार नहीं हो सकता”। यह ज्ञान तो नवीन अनुसंधानों तथा भावी क्रियाकलापों का आरम्भ मात्र होता है । वे चालू शिक्षा-पद्धति में भारतीय प्रतिभा की तीन विशेषताओं- आध्यात्मिकता, सर्जनात्मकता व बुद्धिमत्ता का ह्रास एवं पतन देखते थे और इसका कारण रुग्ण आध्यात्मिकता को मानते थे ।
अरविन्द बच्चों की मातृभाषा में इस प्रकार की शिक्षा-पद्धति चाहते थे, जो उनके ज्ञान-क्षेत्र का विस्तार करे और उनकी स्मृति, निर्णयन शक्ति एवं सर्जनात्मक क्षमता को विकसित करे । श्री अरविन्द शिक्षा-पद्धति को भारतीय परम्परानुसार ढालना चाहते थे । उन्होंने शिक्षा द्वारा पुनर्जागरण का संदेश दिया, जिसके तहत प्राचीन आध्यात्म-ज्ञान की पुर्नस्थापना तथा इस आध्यातम-ज्ञान का दर्शन, साहित्य, कला, विज्ञान व विवेचनात्मक ज्ञान में प्रयोग करना और वर्तमान समस्याओं का भारतीय तत्व-ज्ञान की दृष्टि से समाधान करते हुए अध्यात्म-प्रधान समाज की स्थापना करना उनका लक्ष्य था ।
श्री अरविंद के अनुसार “शिक्षा का प्रमुख लक्ष्य विकासशील आत्मा के सर्वांगीण विकास में सहायक होना तथा उसे उच्च आदर्शों के लिए प्रयोग हेतु सक्षम बनाना होना चाहिए । शिक्षा द्वारा व्यक्ति की अन्तर्निहित बौद्धिक एवं नैतिक क्षमताओं का सर्वोच्च विकास होना चाहिए । अरविंद कहते हैं कि मनुष्य दैवीय शक्ति से समन्वित है और शिक्षा का लक्ष्य इस चेतना शक्ति का विकास करना होना चाहिए । इसीलिए वे मस्तिष्क को ‘छठी ज्ञानेन्द्रिय’ बताते हैं । शिक्षा का प्रयोजन इन सभी ज्ञानेन्द्रियों का सदुपयोग करना सिखाना होना चाहिए । उन्होंने कहा है कि-“मस्तिष्क का उच्चतम सीमा तक पूर्ण प्रशिक्षण होना चाहिए , अन्यथा बालक अपूर्ण तथा एकांगी रह जायेगा । अत: शिक्षा का लक्ष्य मानव-व्यक्तित्व के समेकित विकास हेतु ‘अतिमानस’ (सुपरमाइण्ड) का उपयोग करना है।” अरविन्द के अनुसार भारतीय इतिहास एवं संस्कृति को शैक्षिक पाठ्यक्रम का अभिन्न अंग होना चाहिए , क्योंकि हर बच्चा में इतिहास बोध होता ही है , जो परी-कथाओं व खेल-खिलौनों के माध्यम से प्रकट होता है । अत: बच्चों में अपने देश के साहित्य एवं इतिहास के प्रति अभिरुचि विकसित करनी चाहिए ।
अरविन्द कहते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति में जिज्ञासा, खोज, विश्लेषण व संश्लेषण की प्रवृत्ति होती है, अतएव विज्ञान को भी पाठ्यक्रम में शामिल होना चाहिए , क्योंकि इसके द्वारा बच्चे प्राकृतिक वातावरण को समझते हैं तथा उनमें वस्तुनिष्ठ बुद्धि के विकास हेतु अनुशासन आता है । अपने शिक्षा-दर्शन में मस्तिष्क को प्रधानता देने के कारण अरविन्द मनोविज्ञान को भी सामान्य पाठ्यक्रम का विषय बनाना चाहते हैं , ताकि शिक्षार्थियों में ‘समग्र जीवन-दृष्टि’ विकसित हो सके । इसी उद्देश्य से वे पाठ्यक्रम में दर्शन एवं तर्कशास्त्र को भी स्थान देते हैं । वे बच्चों के बौद्धिक विकास के साथ उनका नैतिक एवं धार्मिक विकास भी चाहते हैं । उनकी धारणा है कि “मानव की मानसिक प्रवृत्ति नैतिक प्रवृति पर आधारित होती है , इस कारण वह बौद्धिक शिक्षा, जो नैतिक व भावनात्मक प्रगति से रहित हो, मानव के लिए हानिकारक है ।” महर्षि अरविन्द शिक्षा की प्राचीन भारतीय गुरूकुलीय परंपरा के पक्षधर थे, जिसमें गुरु, शिष्य का मित्र, पथ-प्रदर्शक तथा सहायक होता है । उनके अनुसार शिक्षा ‘संसूचन विधि’ द्वारा दी जानी चाहिए , जिसके तहत गुरु अपने व्यक्तिगत जीवनादर्श द्वारा विद्यार्थियों को नैतिक विकास हेतु उत्प्रेरित करते हैं ।
किन्तु अफसोस है कि अंग्रेजी शासन से भारत की मुक्ति ले लिए आध्यात्मिक साधना करने वाले अरविन्द की जयन्ती के दिन ही प्राप्त स्वतंत्रता का उत्सव हर साल मनाये जाते रहने के बावजूद हमारे देश में इस महान तत्वदर्शी-महर्षि के शिक्षा-दर्शन को नजरंदाज कर दिया गया , जिसका दुनिया भर के तत्ववेताओं-वैज्ञानिकों ने लोहा माना । जिस महर्षि ने हमारे राष्ट्र की चेतना को जगाने-झकझोरने के लिए पाण्डिचेरी में अपने शरीर का तिल-तिल जला कर हमें हमारी चेतना के उच्चत्तम विकास का सूत्र-समीकरण सिखाने-समझाने हेतु अपने शरीर को ही प्रयोगशाला बना दिया , उसके शिक्षा-दर्शन को हमारी सरकार ने प्रयोग के योग्य भी नहीं समझा , जबकि युरोपीय अंग्रेजी शिक्षा-पद्धति के दुष्परिणामों से हम रोज दो-चार हो रहे हैं । व्यक्ति के नैतिक पतन और चेतना के स्तर का स्खलन इस कदर बढता रहा है कि जन-जीवन पशुवत होता जा रहा है ।
ऐसे में अहमदाबाद (गुजरात ) के साबरमति में मुझे एक सुखद प्रयोग देखने को मिला, जिससे ऐसा प्रतीत होता है कि चेतना के सर्वोच्च स्तर से महर्षि अरविन्द ने भारत के भविष्य का जो चित्र प्रस्तुत किया था, उसके गढे जाने की शुरुआत अब हो चुकी है । वहां उत्तमभाई जवानमल शाह ने हेमचन्द्राचार्य संस्कृत पाठशाला नामक ‘गुरूकुलम’ स्थापित कर प्राचीन भारतीय शिक्षण-पद्धति से बच्चों को ‘महामानव’ और ‘अतिमानव’ बनाने की ऐसी पहल की है, जो एक ओर महान जैन-मुनियों-गुरुओं के दिव्य जीवन-दर्शन से ओत-प्रोत है, तो दूसरी ओर महर्षि अरविन्द के शिक्षा-दर्शन का जीता-जागता प्रकल्प मालूम पडता है । वहां के बच्चों की चेतना का स्तर इस कदर विकासोन्मुख है कि वे आपके मनोभावों को भी पढ सकते हैं और अपनी आंखों पर काली पट्टी बांध कर वस्तुओं का रंग-रूप के साथ उस पर अंकित लिखावट को भी बता देते हैं । विविध विस्मयकारी करतब करते रहने वाले इन बच्चों का मानस ‘परा-मेधा’ अथवा ‘मिड-माइण्ड’ के स्तर से आगे बढता हुआ महर्षि अरविन्द-प्रणीत ‘अतिमानस’ (सुपरचेतन) की ओर अग्रसर प्रतीत होता है ।
इस गुरुकुल के संस्थापक उत्तमभाई और संचालक अखिल भाई की सोच महर्षि अरविन्द के इन शब्दों की ही अभिव्यक्ति हैं कि “ वास्तविक शिक्षण का प्रथम सिद्धान्त है- ‘कुछ भी न पढ़ाना’ , अर्थात् शिक्षार्थी के मस्तिष्क पर बाहर से कोई ज्ञान थोपा न जाये । शिक्षण प्रक्रिया द्वारा शिक्षार्थी के मस्तिष्क की क्रिया को सिर्फ सही दिशा देते रहने से उसकी मेधा-प्रतिभा ही नहीं, चेतना भी विकसित हो सकती है ; जबकि बाहर से ज्ञान की घुट्टी पिलाने पर उसका आत्मिक विकास बाधित हो जाता है ।” वे कहते हैं कि बच्चों को उनकी व्यक्तिगत ‘अभिवृत्ति’ एवं उनके ‘स्वधर्म’ के अनुकूल शिक्षा मिलनी चाहिए । अरविन्द ‘मानस’ अर्थात् मस्तिष्क को छठी ज्ञानेन्द्रिय बताते हुए कहते हैं कि विकसित मानस से ‘सूक्ष्म दृष्टि’ और ‘निष्पक्ष दृष्टिकोण’ का निर्माण होता है । शिक्षा ऐसी होनी चाहिए , जो बच्चों के ज्ञानेन्द्रियों तथा मस्तिष्क के सही उपयोग द्वारा उनकी पर्यवेक्षण-क्षमता, एकाग्रचित्तता, निर्णय-क्षमता एवं स्मरण-शक्ति का विकास करने में सहायक हो और उनकी तर्क शक्ति के विकास द्वारा उनमें ‘अंतर्दृष्टि’ उत्पन्न करे । हेमचन्द्राचार्य गुरुकुलम में यही हो रहा है । देश के तमाम शिक्षण संस्थानों में यही होना चाहिए ।
मार्च, २०१७