राष्ट्रपति के बजाय राष्ट्र-प्रमुख अब ‘राष्ट्राध्यक्ष’ कहे जायें
भारतीय भाषाओं में ‘पति’ और ‘अध्यक्ष’ दो भिन्नार्थी शब्द हैं, समानार्थी तो कतई नहीं हैं । जबकि , अंग्रेजी का ‘प्रेसिडेण्ट’ शब्द भी पति का अर्थ प्रकट नहीं करता है , बल्कि इसका हिन्दी-अनुवाद है- ‘अध्यक्ष’ । किन्तु ‘राष्ट्राध्यक्ष’ अर्थात ‘प्रेसिडेण्ट आफ नेशन’ के लिए हिन्दी में इसे तभी से ‘राष्ट्रपति’ कहा जाने लगा है , जबसे हमारा देश अंग्रेजों की बुद्धिबाजी से निर्मित संविधान के द्वारा शासित-संचालित हो रहा है । अंग्रेजी में लिखित हमारे देश के संविधान में राष्ट्र-प्रमुख के लिए ‘प्रेसिडेण्ट’ नामक पद का प्रावधान किया गया है , जिसे संविधान के प्रभावी होने के बाद से ही हिन्दी में ‘राष्ट्रपति’ कहा जाता रहा है । गौरतलब है कि हिन्दी में ‘पति’ शब्द का अर्थ ‘मालिक’ , ‘स्वामी’ , ‘पभु’ , ‘ईश्वर’ अथवा ‘स्त्री का विवाहित पुरुष’ होता है ; जो किसी राष्ट्र के लिए न उपयुक्त है , न अपेक्षित । क्योंकि , राष्ट्र कोई वस्तु नहीं है , कोई सम्पति नहीं है और लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था में ‘राष्ट्र-प्रमुख’ भी कोई ‘तानाशाह’ प्रभु अथवा ईश्वर नहीं है । राष्ट स्त्री भी नहीं है , जिसका कोई पुरुष या पति हो ।
चुनावी लोकतंत्र में तो कोई स्त्री भी राष्ट्रपति बन सकती है , बनती रही है । अपने देश में जब पहली बार एक स्त्री (प्रतिभा पाटिल) राष्ट्रपति निर्वाचित हुई , तब मैंने कुछ सज्जनों को कौतूहलवश यह चर्चा करते हुए पाया था कि एक स्त्री को भला राष्ट्रपति कैसे कहा जाएगा , जबकि ‘राष्ट्रपत्नी’ नाम का तो कोई पद ही नहीं है । और , स्त्री जब राष्ट्रपति होगी , तब हिन्दी भाषा-व्याकरण के अनुसार उस राष्ट्रपति को स्त्रीलिंग माना जाएगा या पुंलिंग ? और यह भी कि अपने देश में जब ‘राष्ट्रपति’ के साथ-साथ ‘राष्ट्रपिता’ भी हैं , तो ‘राष्ट्र-पत्नी’ व ‘राष्ट्रमाता’ का भी एक-एक पद सृजित कर देना चाहिए ताकि अगर कोई स्त्री ‘प्रथम नागरिक’ निर्वाचित हो जाए अथवा महात्मा गांधी के समान हो जाए , तो उसके आसन को ले कर कोई असमंजस न हो ; वह ‘राष्ट्रपत्नी’ अथवा ‘राष्ट्रमाता’ ही कहलाये । तब मुझे उन सज्जनों को समझाना पडा था कि देश का प्रथम नागरिक स्त्री या पुरुष कोई भी हो , उसे भारतीय संविधान के अनुसार राष्ट्रपति ही कहा जाएगा ; जबकि हिन्दी भाषा-व्याकरण के अनुसार पुरुष भारत ‘का’ राष्ट्रपति कहलाएगा और स्त्री भारत ‘की’ राष्ट्रपति कहलायगी । अर्थात लोकतंत्र में स्त्री भी पुरुष का (की) पति बन सकती है , क्योंकि संस्कृत-हिन्दी का ‘राष्ट्र’ शब्द पुंलिंग है ।
यह हास्यास्पद घालमेल दरअसल ‘राष्ट्र’ की पश्चिमी अवधारणा के कारण हुई प्रतीत होती है । पश्चिम का राष्ट्र असल में राजनीतिक उद्यम का भौगोलिक साधन है और राजसत्ता उसका साध्य है । जबकि भारतीय दृष्टि का राष्ट्र तो राज्य की सांस्कृतिक अभिव्यक्ति का भावात्मक विस्तार है । यहां राजसत्ता साधन है, राष्ट्र उसका साध्य ; जिसका उद्देश्य है विश्व-कल्याण । यहां राष्ट्र कोई भौगोलिक सम्पदा नहीं है, जिसका कोई मालिक , स्वामी अथवा पति हो । यह ऐसा सीमित परिवार भी नहीं है , जिसका माता-पिता अथवा पति हो ; बल्कि भारतीय राष्ट्र की परिकल्पना में तो समस्त विश्व-वसुधा ही एक परिवार है- ‘वसुधैव कुटुम्बकम’, जिसका कोई व्यक्ति विशेष माता-पिता हो ही नहीं सकता । यहां राष्ट्र तो विश्व-कल्याण का एक भाव है , ध्येय है , पथ और पाथेय है , जो भौगोलिक सीमाओं से परे है । भरात में सैकडों राज्यों और राजाओं के होने के बावजूद , सदियों-सदियों से सबका राष्ट्र एक ही रहा है- ‘भारतवर्ष’ । क्योंकि, राज्यों और राजाओं की विभिन्नताओं के बावजूद ‘आसेतु-हिमाचल’ एक ही संस्कृति का व्याप होने के कारण यह समस्त भू-प्रदेश एक ही राष्ट्र रहा है । यहां इस राष्ट्र-भाव के जागरण-रक्षण-पोषण के लिए वेद-विदित ‘पुरोहित’ हुआ करते हैं- ‘वयं राष्ट्रे जाग्रयाम पुरोहिता’ । यहां राष्ट्र एक यज्ञ है और यज्ञ एक कल्याण्कारी आयोजन है , जिसे क्रियान्वित-सम्पादित करने-कराने वाले यजमान और पुरोहित कहलाते हैं । ऐसे में इस राष्ट्र के लिए किसी पिता , पति अथवा माता , भ्राता या मालिक , ईश्वर न अभीष्ट हो सकते हैं , न अपेक्षित । वर्तमान लोकतांतिक और सांगठनिक व्यवस्था में राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करने वाले राष्ट्र-प्रमुख के लिए तो सिर्फ और सिर्फ एक ही शब्द उपयुक्त है और वह है- ‘राष्ट्राध्यक्ष’ अर्थात राष्ट्र का अध्यक्ष ।
हालाकि पश्चिम में भी राष्ट्र-प्रमुख को ‘आनर’ (मालिक-पति-स्वामी) नहीं कहा जाता है , बल्कि ‘प्रेसिडेण्ट’ कहा जाता है तो शायद इसी कारण । मालूम हो कि अध्यक्ष को ही अंग्रेजी में प्रेसिडेण्ट कहते हैं । भारत के राष्ट्रपति को भी अंग्रेजी में प्रेसिडेण्ट ही कहते हैं । दुनिया के सभी देशों के राष्ट्राध्यक्ष अंग्रेजी में प्रेसिडेण्ट ही कहे जाते हैं । इतना ही नहीं , तमाम संगठनों के प्रमुख भी अंग्रेजी में ‘प्रेसिडेण्ट’ और हिन्दी में ‘अध्यक्ष’ ही कहे जाते हैं । न कांग्रेस के प्रमुख अथवा प्रेसिडेण्ट ‘कांग्रेस-पति’ कहलाते हैं , न भाजपा के प्रमुख अथवा प्रेसिडेण्ट ‘भाजपा-पति’ ; तो फिर राष्ट्र का प्रेसिडेण्ट ही ‘राष्ट्रपति’ क्यों कहलाए , यह समझ से परे है । संगठनों के परिप्रेक्ष्य में हालांकि उनके प्रमुख कर्यकारी के लिए कहीं-कहीं ‘सभापति’ शब्द का प्रचलन है , किन्तु इस तर्ज पर भी राष्ट्र-प्रमुख के लिए ‘राष्ट्रपति’ शब्द समुचित व सुसंगत प्रतीत नहीं होता है, क्योंकि ‘सभा’ तो स्त्रिलिंग शब्द है , जबकि ‘राष्ट्र’ पुंलिंग है । इसी तरह से कांग्रेस, भाजपा, माकपा, भाकपा, आदि तमाम राजनीतिक दल , जिनके नाम के आगे ‘पार्टी’ शब्द लगा है , सो सब स्त्रीलिंग हैं ; जबकि वे सभी राजनीतिक पार्टियां जिनके नाम के आगे ‘दल’ शब्द लगा है , सो सब पुंलिंग हैं । बावजूद इसके , इनमें से किसी भी पार्टी अथवा दल का प्रमुख अपने देश में ‘पति’ नहीं कहलाता है ; तो ऐसे में इन तमाम राजनीतिक संगठनों के लोगों को इस तथ्य पर गौर करना चाहिए कि राष्ट्र-प्रमुख को ‘राष्ट्राध्यक्ष’ कहा जाना चाहिए, राष्ट्रपति कहना कहीं से भी उचित नहीं है ।
यह भी गौरतलब है कि ‘पति’ शब्द से जैसा कि इसका ऊपर वर्णित अर्थ है तानाशाही और निरंकुशता का बोध होता है , जो किसी लोकतांत्रिक व्यवस्था के अनुकूल नहीं है । क्योंकि ‘पति’ नाम की संस्था अथवा सत्ता न तो चुनाव की परिण्ति नहीं है और न ही पसंद की अभिव्यक्ति । आम तौर पर यह परिवर्तनीय तो कतई नहीं है । किसी सम्पत्ति का ‘पति’ अथवा किसी स्त्री का ही ‘पति’ सामान्य स्थिति में पांच साल या छह साल पर न तो बदला जाता है , न ही पुनर्चयनित होता है । आम तौर पर सम्पत्तियों का पति वंशानुगत होता है , तो किसी स्त्री का पति उसका जीवन-साथी होता है । परन्तु राष्ट्र का ‘पति’ ? यह तो व्यापक निर्वाचन-प्रक्रिया के तहत चुना जाता है और एक निश्चित अवधि के अन्तराल पर बदला जाता है अथवा पुनर्चयनित होता है ।
ऐसे में यह जरूरी है कि भारत जैसे विशाल लोकतांत्रिक देश के राष्ट्र-प्रमुख को ‘राष्ट्रपति’ के बजाय ‘राष्ट्राध्यक्ष’ कहा जाए । एक राष्ट्र के परिप्रेक्ष्य में ‘अध्यक्ष’ शब्द ‘पति’ की तुलना में ज्यादा गम्भीर , ज्यादा अर्थपूर्ण , ज्यादा व्यापक और ज्यादा ही उपयुक्त है । क्योंकि ‘अध्यक्ष’ शब्द में ‘व्यापक जनमत की अभिव्यक्ति’ का अनुगूंज और सार्वजनिक उद्देश्यों-हितों के व्यापक संरक्षक-संवर्द्धक का प्रतिविम्ब समाहित है । जबकि ‘पति’ शब्द में संकीर्णतापूर्ण अधिकारिता मात्र है । अध्यक्ष शब्द कर्तव्य-परायण है , किन्तु ‘पति’ शब्द अधिकार-परायण है । ‘अध्यक्ष’ शब्द प्रतिनिधित्व व नेतृत्वकारी है , जबकि ‘पति’ शब्द स्वत्व व स्वामीत्वकारी है । ऐसे में हमारे देश के नीति-नियन्ताओं को मेरे इस विनम्र सुझाव पर विचार करना चाहिए और यह बदलाव अगर सम्भव हो , तो राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी के बाद ही से निर्वाचित प्रथम नागरिक को सांवैधानिक व आधिकारिक रूप से ‘राष्ट्राध्यक्ष’ कहे जाने का शुभारम्भ कर दें । संसद-भवन को मंदिर मान उसके द्वार पर दण्ड्वत करने तथा ऐसे ही कई उदात व उत्कृष्ट परम्पराओं की शुरुआत करने वाले और अपने ‘मन की बात’ खुल कर कहने व ‘अपने मन’ की ही करने वाले देश के अभूतपूर्व यशस्वी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ही इस नई परम्परा की नींव डाल सकते हैं , यह ‘मेरे मन की’ आशा है । मैं समझता हूं कि इस बदलाव में सांवैधानिक प्रावधान कहीं से भी बाधक नहीं हो सकते , क्योंकि ‘प्रेसिडेण्ट’ शब्द का उपयुक्त हिन्दी अनुवाद भाषा-शास्त्र का विषय है, संविधान का नहीं । बावजूद इसके , इस सांवैधानिक शब्द के हिन्दी रुपान्तरण को वैधानिक मान्यता देना-दिलाना तो देश के प्रधानमंत्री का ही काम है ।
• मनोज ज्वाला
• दूरभाष- ९९७३९३६३९१
‘राष्ट्राध्यक्ष’ हों राष्ट्र के प्रमुख
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मनोज ज्वाला
भारतीय भाषाओं में ‘पति’ और ‘अध्यक्ष’ दो भिन्नार्थी शब्द हैं, समानार्थी तो कतई नहीं हैं । जबकि , अंग्रेजी का ‘प्रेसिडेण्ट’ शब्द भी पति का अर्थ प्रकट नहीं करता है , बल्कि इसका हिन्दी-अनुवाद है- ‘अध्यक्ष’ । किन्तु ‘राष्ट्राध्यक्ष’ अर्थात ‘प्रेसिडेण्ट आफ नेशन’ के लिए हिन्दी में इसे तभी से ‘राष्ट्रपति’ कहा जाने लगा है , जबसे हमारा देश अंग्रेजों की बुद्धिबाजी से निर्मित संविधान के द्वारा शासित-संचालित हो रहा है । अंग्रेजी में लिखित हमारे देश के संविधान में राष्ट्र-प्रमुख के लिए ‘प्रेसिडेण्ट’ नामक पद का प्रावधान किया गया है , जिसे संविधान के प्रभावी होने के बाद से ही हिन्दी में ‘राष्ट्रपति’ कहा जाता रहा है । गौरतलब है कि हिन्दी में ‘पति’ शब्द का अर्थ ‘मालिक’ , ‘स्वामी’ , ‘पभु’ , ‘ईश्वर’ अथवा ‘स्त्री का विवाहित पुरुष’ होता है ; जो किसी राष्ट्र के लिए न उपयुक्त है , न अपेक्षित । क्योंकि , राष्ट्र कोई वस्तु नहीं है , कोई सम्पति नहीं है और लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था में ‘राष्ट्र-प्रमुख’ भी कोई ‘तानाशाह’ प्रभु अथवा ईश्वर नहीं है । राष्ट स्त्री भी नहीं है , जिसका कोई पुरुष या पति हो ।
चुनावी लोकतंत्र में तो कोई स्त्री भी राष्ट्रपति बन सकती है , बनती रही है । अपने देश में जब पहली बार एक स्त्री (प्रतिभा पाटिल) राष्ट्रपति निर्वाचित हुई , तब मैंने कुछ सज्जनों को कौतूहलवश यह चर्चा करते हुए पाया था कि एक स्त्री को भला राष्ट्रपति कैसे कहा जाएगा , जबकि ‘राष्ट्रपत्नी’ नाम का तो कोई पद ही नहीं है । और , स्त्री जब राष्ट्रपति होगी , तब हिन्दी भाषा-व्याकरण के अनुसार उस राष्ट्रपति को स्त्रीलिंग माना जाएगा या पुंलिंग ? और यह भी कि अपने देश में जब ‘राष्ट्रपति’ के साथ-साथ ‘राष्ट्रपिता’ भी हैं , तो ‘राष्ट्र-पत्नी’ व ‘राष्ट्रमाता’ का भी एक-एक पद सृजित कर देना चाहिए ताकि अगर कोई स्त्री ‘प्रथम नागरिक’ निर्वाचित हो जाए अथवा महात्मा गांधी के समान हो जाए , तो उसके आसन को ले कर कोई असमंजस न हो ; वह ‘राष्ट्रपत्नी’ अथवा ‘राष्ट्रमाता’ ही कहलाये । तब मुझे उन सज्जनों को समझाना पडा था कि देश का प्रथम नागरिक स्त्री या पुरुष कोई भी हो , उसे भारतीय संविधान के अनुसार राष्ट्रपति ही कहा जाएगा ; जबकि हिन्दी भाषा-व्याकरण के अनुसार पुरुष भारत ‘का’ राष्ट्रपति कहलाएगा और स्त्री भारत ‘की’ राष्ट्रपति कहलायगी । अर्थात लोकतंत्र में स्त्री भी पुरुष का (की) पति बन सकती है , क्योंकि संस्कृत-हिन्दी का ‘राष्ट्र’ शब्द पुंलिंग है ।
यह हास्यास्पद घालमेल दरअसल ‘राष्ट्र’ की पश्चिमी अवधारणा के कारण हुई प्रतीत होती है । पश्चिम का राष्ट्र असल में राजनीतिक उद्यम का भौगोलिक साधन है और राजसत्ता उसका साध्य है । जबकि भारतीय दृष्टि का राष्ट्र तो राज्य की सांस्कृतिक अभिव्यक्ति का भावात्मक विस्तार है । यहां राजसत्ता साधन है, राष्ट्र उसका साध्य ; जिसका उद्देश्य है विश्व-कल्याण । यहां राष्ट्र कोई भौगोलिक सम्पदा नहीं है, जिसका कोई मालिक , स्वामी अथवा पति हो । यह ऐसा सीमित परिवार भी नहीं है , जिसका माता-पिता अथवा पति हो ; बल्कि भारतीय राष्ट्र की परिकल्पना में तो समस्त विश्व-वसुधा ही एक परिवार है- ‘वसुधैव कुटुम्बकम’, जिसका कोई व्यक्ति विशेष माता-पिता हो ही नहीं सकता । यहां राष्ट्र तो विश्व-कल्याण का एक भाव है , ध्येय है , पथ और पाथेय है , जो भौगोलिक सीमाओं से परे है । भरात में सैकडों राज्यों और राजाओं के होने के बावजूद , सदियों-सदियों से सबका राष्ट्र एक ही रहा है- ‘भारतवर्ष’ । क्योंकि, राज्यों और राजाओं की विभिन्नताओं के बावजूद ‘आसेतु-हिमाचल’ एक ही संस्कृति का व्याप होने के कारण यह समस्त भू-प्रदेश एक ही राष्ट्र रहा है । यहां इस राष्ट्र-भाव के जागरण-रक्षण-पोषण के लिए वेद-विदित ‘पुरोहित’ हुआ करते हैं- ‘वयं राष्ट्रे जाग्रयाम पुरोहिता’ । यहां राष्ट्र एक यज्ञ है और यज्ञ एक कल्याण्कारी आयोजन है , जिसे क्रियान्वित-सम्पादित करने-कराने वाले यजमान और पुरोहित कहलाते हैं । ऐसे में इस राष्ट्र के लिए किसी पिता , पति अथवा माता , भ्राता या मालिक , ईश्वर न अभीष्ट हो सकते हैं , न अपेक्षित । वर्तमान लोकतांतिक और सांगठनिक व्यवस्था में राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करने वाले राष्ट्र-प्रमुख के लिए तो सिर्फ और सिर्फ एक ही शब्द उपयुक्त है और वह है- ‘राष्ट्राध्यक्ष’ अर्थात राष्ट्र का अध्यक्ष ।
हालाकि पश्चिम में भी राष्ट्र-प्रमुख को ‘आनर’ (मालिक-पति-स्वामी) नहीं कहा जाता है , बल्कि ‘प्रेसिडेण्ट’ कहा जाता है तो शायद इसी कारण । मालूम हो कि अध्यक्ष को ही अंग्रेजी में प्रेसिडेण्ट कहते हैं । भारत के राष्ट्रपति को भी अंग्रेजी में प्रेसिडेण्ट ही कहते हैं । दुनिया के सभी देशों के राष्ट्राध्यक्ष अंग्रेजी में प्रेसिडेण्ट ही कहे जाते हैं । इतना ही नहीं , तमाम संगठनों के प्रमुख भी अंग्रेजी में ‘प्रेसिडेण्ट’ और हिन्दी में ‘अध्यक्ष’ ही कहे जाते हैं । न कांग्रेस के प्रमुख अथवा प्रेसिडेण्ट ‘कांग्रेस-पति’ कहलाते हैं , न भाजपा के प्रमुख अथवा प्रेसिडेण्ट ‘भाजपा-पति’ ; तो फिर राष्ट्र का प्रेसिडेण्ट ही ‘राष्ट्रपति’ क्यों कहलाए , यह समझ से परे है । संगठनों के परिप्रेक्ष्य में हालांकि उनके प्रमुख कर्यकारी के लिए कहीं-कहीं ‘सभापति’ शब्द का प्रचलन है , किन्तु इस तर्ज पर भी राष्ट्र-प्रमुख के लिए ‘राष्ट्रपति’ शब्द समुचित व सुसंगत प्रतीत नहीं होता है, क्योंकि ‘सभा’ तो स्त्रिलिंग शब्द है , जबकि ‘राष्ट्र’ पुंलिंग है । इसी तरह से कांग्रेस, भाजपा, माकपा, भाकपा, आदि तमाम राजनीतिक दल , जिनके नाम के आगे ‘पार्टी’ शब्द लगा है , सो सब स्त्रीलिंग हैं ; जबकि वे सभी राजनीतिक पार्टियां जिनके नाम के आगे ‘दल’ शब्द लगा है , सो सब पुंलिंग हैं । बावजूद इसके , इनमें से किसी भी पार्टी अथवा दल का प्रमुख अपने देश में ‘पति’ नहीं कहलाता है ; तो ऐसे में इन तमाम राजनीतिक संगठनों के लोगों को इस तथ्य पर गौर करना चाहिए कि राष्ट्र-प्रमुख को ‘राष्ट्राध्यक्ष’ कहा जाना चाहिए, राष्ट्रपति कहना कहीं से भी उचित नहीं है ।
यह भी गौरतलब है कि ‘पति’ शब्द से जैसा कि इसका ऊपर वर्णित अर्थ है तानाशाही और निरंकुशता का बोध होता है , जो किसी लोकतांत्रिक व्यवस्था के अनुकूल नहीं है । क्योंकि ‘पति’ नाम की संस्था अथवा सत्ता न तो चुनाव की परिण्ति नहीं है और न ही पसंद की अभिव्यक्ति । आम तौर पर यह परिवर्तनीय तो कतई नहीं है । किसी सम्पत्ति का ‘पति’ अथवा किसी स्त्री का ही ‘पति’ सामान्य स्थिति में पांच साल या छह साल पर न तो बदला जाता है , न ही पुनर्चयनित होता है । आम तौर पर सम्पत्तियों का पति वंशानुगत होता है , तो किसी स्त्री का पति उसका जीवन-साथी होता है । परन्तु राष्ट्र का ‘पति’ ? यह तो व्यापक निर्वाचन-प्रक्रिया के तहत चुना जाता है और एक निश्चित अवधि के अन्तराल पर बदला जाता है अथवा पुनर्चयनित होता है ।
ऐसे में यह जरूरी है कि भारत जैसे विशाल लोकतांत्रिक देश के राष्ट्र-प्रमुख को ‘राष्ट्रपति’ के बजाय ‘राष्ट्राध्यक्ष’ कहा जाए । एक राष्ट्र के परिप्रेक्ष्य में ‘अध्यक्ष’ शब्द ‘पति’ की तुलना में ज्यादा गम्भीर , ज्यादा अर्थपूर्ण , ज्यादा व्यापक और ज्यादा ही उपयुक्त है । क्योंकि ‘अध्यक्ष’ शब्द में ‘व्यापक जनमत की अभिव्यक्ति’ का अनुगूंज और सार्वजनिक उद्देश्यों-हितों के व्यापक संरक्षक-संवर्द्धक का प्रतिविम्ब समाहित है । जबकि ‘पति’ शब्द में संकीर्णतापूर्ण अधिकारिता मात्र है । अध्यक्ष शब्द कर्तव्य-परायण है , किन्तु ‘पति’ शब्द अधिकार-परायण है । ‘अध्यक्ष’ शब्द प्रतिनिधित्व व नेतृत्वकारी है , जबकि ‘पति’ शब्द स्वत्व व स्वामीत्वकारी है । ऐसे में हमारे देश के नीति-नियन्ताओं को मेरे इस विनम्र सुझाव पर विचार करना चाहिए और यह बदलाव अगर सम्भव हो , तो राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी के बाद ही से निर्वाचित प्रथम नागरिक को सांवैधानिक व आधिकारिक रूप से ‘राष्ट्राध्यक्ष’ कहे जाने का शुभारम्भ कर दें । संसद-भवन को मंदिर मान उसके द्वार पर दण्ड्वत करने तथा ऐसे ही कई उदात व उत्कृष्ट परम्पराओं की शुरुआत करने वाले और अपने ‘मन की बात’ खुल कर कहने व ‘अपने मन’ की ही करने वाले देश के अभूतपूर्व यशस्वी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ही इस नई परम्परा की नींव डाल सकते हैं , यह ‘मेरे मन की’ आशा है । मैं समझता हूं कि इस बदलाव में सांवैधानिक प्रावधान कहीं से भी बाधक नहीं हो सकते , क्योंकि ‘प्रेसिडेण्ट’ शब्द का उपयुक्त हिन्दी अनुवाद भाषा-शास्त्र का विषय है, संविधान का नहीं । बावजूद इसके , इस सांवैधानिक शब्द के हिन्दी रुपान्तरण को वैधानिक मान्यता देना-दिलाना तो देश के प्रधानमंत्री का ही काम है ।
• मनोज ज्वाला
• दूरभाष- ९९७३९३६३९१
‘राष्ट्राध्यक्ष’ हों राष्ट्र के प्रमुख
भारतीय भाषाओं में ‘पति’ और ‘अध्यक्ष’ दो भिन्नार्थी शब्द हैं, समानार्थी तो कतई नहीं हैं । जबकि , अंग्रेजी का ‘प्रेसिडेण्ट’ शब्द भी पति का अर्थ प्रकट नहीं करता है , बल्कि इसका हिन्दी-अनुवाद है- ‘अध्यक्ष’ । किन्तु ‘राष्ट्राध्यक्ष’ अर्थात ‘प्रेसिडेण्ट आफ नेशन’ के लिए हिन्दी में इसे तभी से ‘राष्ट्रपति’ कहा जाने लगा है , जबसे हमारा देश अंग्रेजों की बुद्धिबाजी से निर्मित संविधान के द्वारा शासित-संचालित हो रहा है । अंग्रेजी में लिखित हमारे देश के संविधान में राष्ट्र-प्रमुख के लिए ‘प्रेसिडेण्ट’ नामक पद का प्रावधान किया गया है , जिसे संविधान के प्रभावी होने के बाद से ही हिन्दी में ‘राष्ट्रपति’ कहा जाता रहा है । गौरतलब है कि हिन्दी में ‘पति’ शब्द का अर्थ ‘मालिक’ , ‘स्वामी’ , ‘पभु’ , ‘ईश्वर’ अथवा ‘स्त्री का विवाहित पुरुष’ होता है ; जो किसी राष्ट्र के लिए न उपयुक्त है , न अपेक्षित । क्योंकि , राष्ट्र कोई वस्तु नहीं है , कोई सम्पति नहीं है और लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था में ‘राष्ट्र-प्रमुख’ भी कोई ‘तानाशाह’ प्रभु अथवा ईश्वर नहीं है । राष्ट स्त्री भी नहीं है , जिसका कोई पुरुष या पति हो ।
चुनावी लोकतंत्र में तो कोई स्त्री भी राष्ट्रपति बन सकती है , बनती रही है । अपने देश में जब पहली बार एक स्त्री (प्रतिभा पाटिल) राष्ट्रपति निर्वाचित हुई , तब मैंने कुछ सज्जनों को कौतूहलवश यह चर्चा करते हुए पाया था कि एक स्त्री को भला राष्ट्रपति कैसे कहा जाएगा , जबकि ‘राष्ट्रपत्नी’ नाम का तो कोई पद ही नहीं है । और , स्त्री जब राष्ट्रपति होगी , तब हिन्दी भाषा-व्याकरण के अनुसार उस राष्ट्रपति को स्त्रीलिंग माना जाएगा या पुंलिंग ? और यह भी कि अपने देश में जब ‘राष्ट्रपति’ के साथ-साथ ‘राष्ट्रपिता’ भी हैं , तो ‘राष्ट्र-पत्नी’ व ‘राष्ट्रमाता’ का भी एक-एक पद सृजित कर देना चाहिए ताकि अगर कोई स्त्री ‘प्रथम नागरिक’ निर्वाचित हो जाए अथवा महात्मा गांधी के समान हो जाए , तो उसके आसन को ले कर कोई असमंजस न हो ; वह ‘राष्ट्रपत्नी’ अथवा ‘राष्ट्रमाता’ ही कहलाये । तब मुझे उन सज्जनों को समझाना पडा था कि देश का प्रथम नागरिक स्त्री या पुरुष कोई भी हो , उसे भारतीय संविधान के अनुसार राष्ट्रपति ही कहा जाएगा ; जबकि हिन्दी भाषा-व्याकरण के अनुसार पुरुष भारत ‘का’ राष्ट्रपति कहलाएगा और स्त्री भारत ‘की’ राष्ट्रपति कहलायगी । अर्थात लोकतंत्र में स्त्री भी पुरुष का (की) पति बन सकती है , क्योंकि संस्कृत-हिन्दी का ‘राष्ट्र’ शब्द पुंलिंग है ।
यह हास्यास्पद घालमेल दरअसल ‘राष्ट्र’ की पश्चिमी अवधारणा के कारण हुई प्रतीत होती है । पश्चिम का राष्ट्र असल में राजनीतिक उद्यम का भौगोलिक साधन है और राजसत्ता उसका साध्य है । जबकि भारतीय दृष्टि का राष्ट्र तो राज्य की सांस्कृतिक अभिव्यक्ति का भावात्मक विस्तार है । यहां राजसत्ता साधन है, राष्ट्र उसका साध्य ; जिसका उद्देश्य है विश्व-कल्याण । यहां राष्ट्र कोई भौगोलिक सम्पदा नहीं है, जिसका कोई मालिक , स्वामी अथवा पति हो । यह ऐसा सीमित परिवार भी नहीं है , जिसका माता-पिता अथवा पति हो ; बल्कि भारतीय राष्ट्र की परिकल्पना में तो समस्त विश्व-वसुधा ही एक परिवार है- ‘वसुधैव कुटुम्बकम’, जिसका कोई व्यक्ति विशेष माता-पिता हो ही नहीं सकता । यहां राष्ट्र तो विश्व-कल्याण का एक भाव है , ध्येय है , पथ और पाथेय है , जो भौगोलिक सीमाओं से परे है । भरात में सैकडों राज्यों और राजाओं के होने के बावजूद , सदियों-सदियों से सबका राष्ट्र एक ही रहा है- ‘भारतवर्ष’ । क्योंकि, राज्यों और राजाओं की विभिन्नताओं के बावजूद ‘आसेतु-हिमाचल’ एक ही संस्कृति का व्याप होने के कारण यह समस्त भू-प्रदेश एक ही राष्ट्र रहा है । यहां इस राष्ट्र-भाव के जागरण-रक्षण-पोषण के लिए वेद-विदित ‘पुरोहित’ हुआ करते हैं- ‘वयं राष्ट्रे जाग्रयाम पुरोहिता’ । यहां राष्ट्र एक यज्ञ है और यज्ञ एक कल्याण्कारी आयोजन है , जिसे क्रियान्वित-सम्पादित करने-कराने वाले यजमान और पुरोहित कहलाते हैं । ऐसे में इस राष्ट्र के लिए किसी पिता , पति अथवा माता , भ्राता या मालिक , ईश्वर न अभीष्ट हो सकते हैं , न अपेक्षित । वर्तमान लोकतांतिक और सांगठनिक व्यवस्था में राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करने वाले राष्ट्र-प्रमुख के लिए तो सिर्फ और सिर्फ एक ही शब्द उपयुक्त है और वह है- ‘राष्ट्राध्यक्ष’ अर्थात राष्ट्र का अध्यक्ष ।
हालाकि पश्चिम में भी राष्ट्र-प्रमुख को ‘आनर’ (मालिक-पति-स्वामी) नहीं कहा जाता है , बल्कि ‘प्रेसिडेण्ट’ कहा जाता है तो शायद इसी कारण । मालूम हो कि अध्यक्ष को ही अंग्रेजी में प्रेसिडेण्ट कहते हैं । भारत के राष्ट्रपति को भी अंग्रेजी में प्रेसिडेण्ट ही कहते हैं । दुनिया के सभी देशों के राष्ट्राध्यक्ष अंग्रेजी में प्रेसिडेण्ट ही कहे जाते हैं । इतना ही नहीं , तमाम संगठनों के प्रमुख भी अंग्रेजी में ‘प्रेसिडेण्ट’ और हिन्दी में ‘अध्यक्ष’ ही कहे जाते हैं । न कांग्रेस के प्रमुख अथवा प्रेसिडेण्ट ‘कांग्रेस-पति’ कहलाते हैं , न भाजपा के प्रमुख अथवा प्रेसिडेण्ट ‘भाजपा-पति’ ; तो फिर राष्ट्र का प्रेसिडेण्ट ही ‘राष्ट्रपति’ क्यों कहलाए , यह समझ से परे है । संगठनों के परिप्रेक्ष्य में हालांकि उनके प्रमुख कर्यकारी के लिए कहीं-कहीं ‘सभापति’ शब्द का प्रचलन है , किन्तु इस तर्ज पर भी राष्ट्र-प्रमुख के लिए ‘राष्ट्रपति’ शब्द समुचित व सुसंगत प्रतीत नहीं होता है, क्योंकि ‘सभा’ तो स्त्रिलिंग शब्द है , जबकि ‘राष्ट्र’ पुंलिंग है । इसी तरह से कांग्रेस, भाजपा, माकपा, भाकपा, आदि तमाम राजनीतिक दल , जिनके नाम के आगे ‘पार्टी’ शब्द लगा है , सो सब स्त्रीलिंग हैं ; जबकि वे सभी राजनीतिक पार्टियां जिनके नाम के आगे ‘दल’ शब्द लगा है , सो सब पुंलिंग हैं । बावजूद इसके , इनमें से किसी भी पार्टी अथवा दल का प्रमुख अपने देश में ‘पति’ नहीं कहलाता है ; तो ऐसे में इन तमाम राजनीतिक संगठनों के लोगों को इस तथ्य पर गौर करना चाहिए कि राष्ट्र-प्रमुख को ‘राष्ट्राध्यक्ष’ कहा जाना चाहिए, राष्ट्रपति कहना कहीं से भी उचित नहीं है ।
यह भी गौरतलब है कि ‘पति’ शब्द से जैसा कि इसका ऊपर वर्णित अर्थ है तानाशाही और निरंकुशता का बोध होता है , जो किसी लोकतांत्रिक व्यवस्था के अनुकूल नहीं है । क्योंकि ‘पति’ नाम की संस्था अथवा सत्ता न तो चुनाव की परिण्ति नहीं है और न ही पसंद की अभिव्यक्ति । आम तौर पर यह परिवर्तनीय तो कतई नहीं है । किसी सम्पत्ति का ‘पति’ अथवा किसी स्त्री का ही ‘पति’ सामान्य स्थिति में पांच साल या छह साल पर न तो बदला जाता है , न ही पुनर्चयनित होता है । आम तौर पर सम्पत्तियों का पति वंशानुगत होता है , तो किसी स्त्री का पति उसका जीवन-साथी होता है । परन्तु राष्ट्र का ‘पति’ ? यह तो व्यापक निर्वाचन-प्रक्रिया के तहत चुना जाता है और एक निश्चित अवधि के अन्तराल पर बदला जाता है अथवा पुनर्चयनित होता है ।
ऐसे में यह जरूरी है कि भारत जैसे विशाल लोकतांत्रिक देश के राष्ट्र-प्रमुख को ‘राष्ट्रपति’ के बजाय ‘राष्ट्राध्यक्ष’ कहा जाए । एक राष्ट्र के परिप्रेक्ष्य में ‘अध्यक्ष’ शब्द ‘पति’ की तुलना में ज्यादा गम्भीर , ज्यादा अर्थपूर्ण , ज्यादा व्यापक और ज्यादा ही उपयुक्त है । क्योंकि ‘अध्यक्ष’ शब्द में ‘व्यापक जनमत की अभिव्यक्ति’ का अनुगूंज और सार्वजनिक उद्देश्यों-हितों के व्यापक संरक्षक-संवर्द्धक का प्रतिविम्ब समाहित है । जबकि ‘पति’ शब्द में संकीर्णतापूर्ण अधिकारिता मात्र है । अध्यक्ष शब्द कर्तव्य-परायण है , किन्तु ‘पति’ शब्द अधिकार-परायण है । ‘अध्यक्ष’ शब्द प्रतिनिधित्व व नेतृत्वकारी है , जबकि ‘पति’ शब्द स्वत्व व स्वामीत्वकारी है । ऐसे में हमारे देश के नीति-नियन्ताओं को मेरे इस विनम्र सुझाव पर विचार करना चाहिए और यह बदलाव अगर सम्भव हो , तो राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी के बाद ही से निर्वाचित प्रथम नागरिक को सांवैधानिक व आधिकारिक रूप से ‘राष्ट्राध्यक्ष’ कहे जाने का शुभारम्भ कर दें । संसद-भवन को मंदिर मान उसके द्वार पर दण्ड्वत करने तथा ऐसे ही कई उदात व उत्कृष्ट परम्पराओं की शुरुआत करने वाले और अपने ‘मन की बात’ खुल कर कहने व ‘अपने मन’ की ही करने वाले देश के अभूतपूर्व यशस्वी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ही इस नई परम्परा की नींव डाल सकते हैं , यह ‘मेरे मन की’ आशा है । मैं समझता हूं कि इस बदलाव में सांवैधानिक प्रावधान कहीं से भी बाधक नहीं हो सकते , क्योंकि ‘प्रेसिडेण्ट’ शब्द का उपयुक्त हिन्दी अनुवाद भाषा-शास्त्र का विषय है, संविधान का नहीं । बावजूद इसके , इस सांवैधानिक शब्द के हिन्दी रुपान्तरण को वैधानिक मान्यता देना-दिलाना तो देश के प्रधानमंत्री का ही काम है ।
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