अमेरिकी राष्ट्रपति के वैदेशिक निर्णयों की चर्चा दुनिया भर में होती रही है । भारत भी इससे अछुता नहीं रहता है । क्योंकि, वैश्विक महाशक्ति कहे जाने वाले अमेरिका नामक देश के राष्ट्रपति की वैदेशिक-कूटनीतिक-आर्थिक-सामरिक नीतियों से भारत व्यापक अर्थों में प्रभावित होते रहता है ; इस कारण यह चर्चा उचित भी है । यह एक संयोग ही रहा कि डोनाल्ड ट्रम्प पहली बार जब वहां के राष्ट्रपति बने थे, तभी नरेन्द्र मोदी भी भारत के प्रधानमंत्री बने थे । ट्रम्प व मोदी के उस प्रथम कार्यकाल में दोनों के बीच बहुत बनती-निभती रही और उस दौर में अमेरिका से भारत के सम्बंधों की मिठास बढती रही । बाद में अगला चुनाव हार जाने पर ट्रम्प सत्ता से बेदखल हो गए, जबकि मोदी सत्तासीन ही रहे और जो वाईडन वहां के राष्ट्रपति बने । वाईडन के कार्यकाल में दोनों देशों के बीच के सम्बन्धों की उस मिठास में थोडी कमी दर्ज की जाती रही और यह माना जाता रहा कि ट्रम्प जब दुबारा सतासीन होंगे तब सारी भरपाई हो जाएगी । परंतु हुआ इसके ठीक विपरीत । ‘शिशु के पांव पालने में ही दीख जाते’ , यह मुहावरा तब चरितार्थ हो गया जब ट्रम्प की पुनर्वापसी पर आयोजित शपथ-ग्रहण समारोह में हवाईट हाउस की ओर से मोदी जी को आमंत्रण ही नहीं भेजा गया । फिर तो दूसरी बार सत्तासीन हुए ट्रम्प का दूसरा ही रूप देखने लगी दुनिया, जब अमेरिकी सरकार दूसरे देशों पर अनाप-शनाप ‘टैरिफ’ लगा कर व्यापारिक संबंधों को नए सिरे से परिभाषित करने लगी और अमेरिका में निवास करने वाले अन्य देशों के प्रवासियों की प्रवासन-व्यवस्था पर अनेक प्रकार के प्रतिबंध लगाने लगी । भारत भी ट्रम्प के उन फरमानों से अछूता नहीं रहा । अभी यह सब चल ही रहा था कि तभी पाकिस्तान-पोषित आतंकवाद के उन्मूलनार्थ भारत सरकार ने ‘ऑपरेशन सिंदूर’ चला कर पाक-हुकूमत को घुटनों पर लाने का जो काम किया उसे अमेरिकी सरकार से अपेक्षित समर्थन तो उसकी नैतिक विवशताओं के कारण अवश्य मिला, किन्तु ऐन मौके पर मोदी के मित्र कहे जाने वाले ट्रम्प को परदे के पीछे से पाकिस्तान को सहयोग प्रदान करते हुए देखा गया- पाकिस्तान को अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष से भारी-भरकम ऋण तत्काल ही मिल गया और कुछ ही दिनों बाद यूएनओ में आतंक-रोधी समिति का उपाध्यक्ष भी उसी पाकिस्तान को बना दिया गया जो आतंकवाद का पोषक है । यह सब अमेरिकी राष्ट्रपति की अनुशंसा के बगैर कभी संभव नहीं है, क्योंकि ‘आईएमएफ’ और ‘यूएनओ’ दोनों उन्हीं के इशारे पर काम करते हैं । अब प्रश्न यह उठता है कि ट्रम्प तो मोदी जी के मित्र हुआ करते थे और भारत के हितैषी माने जाते थे तो अमेरिकी वैदेशिक नीति में अब यह परिवर्तन क्यों दिख रहा है ? इस प्रश्न का उत्तर अमेरिकी राजनीति के नेपथ्य में है ।
यह तो सर्वविदित है कि नई दिल्ली के प्रति वाशिंगटन की नीति व नीयत कभी भी पाक-साफ नहीं रही है । अमेरिका सदा ही ‘गिरगिट’ की तरह रंग बदलते रहता है । जिस पाकिस्तान को वह आतंकवाद का पोषक एवं विश्वशांति के लिए खतरा घोषित कर चुका होता है और उसे प्रतिबन्धित करने की धमकियां देते हुए अमेरिकी सहायता की रेवडियों से वंचित कर देने की घुडकियां सुनाते रहता है, उसी की पीठ भी अचानक वही थपथपाने लगता है । अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रम्प हों या ओबामा, सभी ऐसा ही करते रहे हैं । दरअसल अमेरिकी विदेश नीति और खास कर उसकी ‘भारत-नीति’ का ‘दर्शन’ कुछ और ही है, जिसे जानने-समझने के लिए अमेरिकी राष्ट्रपति की वैदेशिक नीतियों के निर्धारण-क्रियान्वयन में शामिल व्यक्तियों-संस्थाओं की नीयत को जानना जरुरी है ।
मालूम हो कि अंतर्राष्ट्रीय मसलों पर अमेरिकी राष्ट्रपति को सलाह
देने हेतु ‘प्रेसिडेण्ट्स एड्वाइजरी कॉउंसिल ऑन फेथ-बेस्ड नेबरहुड
पार्टनरशिप’ नामक एक परिषद कायम है । यह परिषद अमेरिकी राष्ट्रपति के
‘आंख-कान’ के रुप में जानी जाती है । इस २५ सदस्यीय सलाहकार परिषद में
तमाम सदस्य वर्ल्ड विजन, क्रिश्चियन कम्युनिटी डेवलपमेण्ट एशोसिएशन,
वर्ल्ड इवैंजेलिकल एलायन्स, नैशनल बैपटिस्ट कॉन्वेंशन , रैण्ड कॉरपोरेशन,
ग्लोबल ह्यूमन राइट्स एण्ड इण्टरनेशनल ऑपरेशन्स व पॉलिसी इंस्टिच्युट
फॉर रिलीजन एण्ड स्टेट आदि विभिन्न कट्टर क्रिश्चियन-विस्तारवादी चर्च-मिशनरी
संस्थाओं के प्रमुख हुआ करते हैं, जो क्रिश्चियनिटी की सर्वोच्च वैश्विक सत्ता- ‘वेटिकन सिटी’ से निर्देशित होते हैं और जिनकी प्राथमिकताओं में शामिल होता है- सनातन धर्म का उन्मूलन व हिन्दू समाज का विघटन एवं भारत राष्ट्र का विखण्डन । उनकी इन प्राथमिकताओं का खास कारण है । वह यह है कि वे विस्तारवादी चर्च-मिशनरी संस्थायें पूरी दुनिया को जिस क्रिश्चियनिटी के अधीन कर लेने पर आमदा हैं, सो इस्लाम के समान ही पैगम्बरवादी अब्राहमी मजहब है और अमेरिका व युरोपीय राज्यों की राष्ट्रीयता भी है; जबकि भारत की राष्ट्रीयता जो
है- ‘सनातन धर्म’, सो पैगम्बरवादी नहीं है तथा स्वाभाविक ही क्रिश्चियनिटी के
विस्तार में बाधक भी है । यही कारण है कि इस्लामी आतंकवाद से यदा-कदा
आक्रांत होते रहने के बावजूद उन आतंकी संगठनों एवं उन्हें पनाह देने वाले
राज्यों की वे तरफदारी करते रहते हैं और भारत के विरुद्ध उपकरण के तौर पर
उनका इस्तेमाल भी करते हैं । आप समझ सकते हैं कि पिछले ६०-७० वर्षों के
भीतर जिस पाकिस्तान व बांग्लादेश में राज्य-प्रायोजित हिंसा व आतंक से
हिन्दुओं का लगभग सफाया कर दिया गया, उन दोनों देशों के विरुद्ध कोई आपत्ति दर्ज करने एवं तत्समबन्धी कार्रवाई-सुनवाई की पहल करने से भी अमेरिकी विदेश
मंत्रालय और अंतर्राष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता विषयक अमेरिकी आयोग आखिर
क्यों कतराते रहे हैं ? जबकि, कश्मीर में आतंकियों के विरुद्ध भारतीय
सेना की कार्रवाई पर वही अमेरिका कई बार मानवाधिकार-हनन का सवाल उठाते
रहा है । उसका विदेश मंत्रालय अंतर्राष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता अधिनियम
के तहत भारत को तो धर्मान्तरण-विरोधी भारतीय कानूनों की वजह से
हिन्दू-संगठनों की तथाकथित आक्रामकता का ढिंढोरा पीटते हुए तत्सम्बन्धी
अमेरिकी आयोग के समक्ष कठघरे में खडा करते रहता है, किन्तु हिन्दू-समाज
के उत्पीडन-उन्मूलन पर आमदा इस्लामी आक्रामकता वाले देशों की
शासन-संपोषित करतूतों पर चुप्पी साधे रहता है । अभी हाल ही में अमेरिकी
विदेश मंत्रालय ने भारत के खिलाफ धार्मिक स्वतंत्रता-विषयक रिपोर्ट जारी
किया हुआ है । जाहिर है, अमेरिकी राष्ट्रपति की ‘भारत-नीति’ असल में
‘प्रेसिडेण्ट्स एड्वाइजरी कॉउंसिल ऑन फेथ-बेस्ड नेबरहुड पार्टनरशिप’ नामक
उसकी सलाहकार परिषद की नीयत के अनुसार ही निर्धारित होती है । भारत के
प्रति अमेरिकी विदेश-नीति भी इसका अपवाद नहीं है ; चाहे वह कश्मीर को ले
कर हो या पाक-प्रायोजित आतंकवाद से सम्बन्धित हो ।
बराक ओबामा के राष्ट्रपति बनने पर ऐसा कयास लगाया जा रहा था कि
अमेरिकी शासन में ऐसी गहरी पैठ रखने वाली क्रिश्चियन विस्तारवादी चर्च-मिशनरी
शक्तियां कमजोर पड जाएंगी, जिससे भारत के प्रति अमेरिकी नीति में भी
बदलाव आएगा, किन्तु ऐसा बिल्कुल नहीं हुआ; बल्कि हुआ यह कि खुद ओबामा ने ही उपरोक्त सलाहकार परिषद के एक सदस्य- जोशुआ ड्युबॉय नामक उस व्यक्ति
को अपना दाहिना हाथ बनाये रखा, जिसने चुनाव में उनके लिए कट्टरपंथी
विस्तारवादी ईसाई समूहों का वोट-बैंक पटाया था । इस सलाहकार परिषद की
सलाहों-सिफारिसों की उपेक्षा कोई भी अमेरिकी राष्ट्रपति कतई नहीं कर पाता
। उदारवादी व स्वतंत्र विचारों के हिमायती कहे जाने वाले जिमी कॉर्टर और
बिल क्लिंटन जैसे अमेरिकी राष्ट्रपति भी इस परिषद में शामिल
धर्मान्तरणकारी विस्तारवादी कट्टरपंथी चर्च-मिशनरी संस्थाओं की अनदेखी
नहीं कर सके थे, तो ट्रम्प इसके अपवाद कैसे हो सकते हैं ?
उल्लेखनीय है कि भारत-पाकिस्तान के बीच का ‘कश्मीर-मामला’
दक्षिण एशिया में हस्तक्षेप की अमेरिकी कूटनीति का ही परिणाम है, जिसके
तहत सन १९४७ में ही ब्रिटिश वायसराय माउण्ट्बैटन द्वारा कश्मीर को
पाकिस्तान में शामिल करने के बावत वहां के महाराजा पर दबाव डालने की
बहुविध कोशिशें की गई थीं । एक ब्रिटिश लेखक लॉरी कालिन्स ने ‘माउण्टबैटन
एण्ड इण्डिपेण्डेण्ट इण्डिया’ में माउण्टबैटन के हवाले से ही लिखा है- “
मैंने बडी मुश्किल से पटेल को मना लिया था कि वे पाकिस्तान में
जम्मू-कश्मीर के शामिल होने का बुरा न मानें, लेकिन मेरी सारी योजना ‘गूड
गोबर’ हो गई , तो मुझे बहुत दुःख हुआ और यह सब उस ‘ब्लडी फूल’ हरि सिंह
के कारण हुआ” । फिर उस असफलता से खीझे माउण्टबैटन ने ‘आगे सलट लेने’ की सोच कर भारत-कश्मीर विलय मामले को नेहरुजी के माध्यम से संयुक्त राष्ट्र
संघ में भेज दिया । उस पूरे प्रकरण के भीतर का राज यही है कि ब्रिटिश-अमेरिकी गठजोड वस्तुतः ईसाई-विस्तारवाद की योजना क्रियान्वित करने के निमित्त दक्षिण एशिया में अपनी सामरिक अनुकूलता के अनुसार कश्मीर को भारत से पृथक कर देने में ही रुचि लेता रहा है । ऐसा इस कारण, क्योंकि अंतर्राष्ट्रीय सीमाओं से युक्त कश्मीर का पाकिस्तान में विलय हो जाने अथवा एक स्वतंत्र राज्य बन जाने पर ही अमरिकी-ब्रिटिश गठजोड इस भूमि का मनमाना सामरिक इस्तेमाल भारत व चीन के विरुद्ध कर सकता है । इसी कूटनीति एवं भारत के एक और विखण्डन की युक्ति के तहत अमेरिकी शासन कश्मीर-मामले में मध्यस्थता के अवसर और हस्तक्षेप की जमीन तैयार करने में लगा रहता है । कभी पाकिस्तान के माध्यम से , तो कभी युएनओ० के माध्यम से । किन्तु भारत से आर्थिक हितों का नुकसान होने के कारण खुल कर इसकी हिमाकत नहीं करता । यही कारण है कि डोनाल्ड ट्रम्प भी नरेन्द्र मोदी के साथ गलबाहियां करते रहने के बावजूद कश्मीर मामले पर मध्यस्थता करने सम्बन्धी बयान दे कर अपनी किरकिरी करा चुके हैं और प्रायः हर अमेरिकी राष्ट्रपति भारत-पाकिस्तान के बीच मध्यस्थ बनने के अवसर की तलाश करता रहा है । बहरहाल, अपने देश के नीति-नियन्ताओं को यह तो समझना ही चाहिए कि ट्रम्प हों या ओबामा, अमेरिकी ‘भारत-नीति’ का एक ही ‘दर्शन’ है और वह है ईसाई-विस्तारवाद का हित साधना और इस हेतु भारतीय राष्ट्रीयता (सनातन धर्म) की विरोधी मजहबी शक्तियों का तदनुसार इस्तेमाल करते हुए उनका पक्षपोषण करना ।
• मनोज ज्वाला ; जून’ 2025
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