ट्रम्प हों या वाईडन, अमेरिकी ‘भारत-नीति’ का एक ही समीकरण

संयुक्त राज्य अमेरिका की वैदेशिक नीति वहां के राष्ट्रपति या उनकी राजनीतिक पार्टी की विचारधारा से निर्मित नहीं हुआ करती है , बल्कि बहुसंख्यक अमेरिकी जनता की रिलीजियस आकांक्षाओं और चर्च की वैश्विक विस्तारवादी मान्यताओं-योजनाओं के अनुसार निर्मित होती है । उसकी वैदेशिक नीति के मूल में है- क्रिश्चियनिटी का वैश्वीकरण , अर्थात विश्व का क्रिश्चियनिटीकरण । उसके इस उद्देश्य-पूर्ति के मार्ग में भारत सबसे बडी बाधा है, क्योंकि यह रिलीजियस-मजहबी राष्ट्र नहीं है और अपनी ही राजनीतिक परिस्थितिजन्य सांवैधानिक विवशताओं के कारण धर्मनिरतेक्ष होते हुए भी मूल रुप से धर्मधारी राष्ट्र है । ‘धर्म’, अर्थात सनातन वैदिक हिन्दू धर्म, जो रिलीजन-मजहब (अब्राहमिक आस्था) के समक्ष बडी चुनौती है और यही भारत की राष्ट्रीयता है । भारत के ईसाइकरण के लिए इसकी राष्ट्रीयता अर्थात इस धर्म का उन्मूलन एवं धर्मोन्मूलन के लिए भारत का पुनः-पुनः विखण्डन-विभाजन और इस हेतु विखण्डित-विभाजित भारतीय भू-खण्डों (पाकिस्तान आदि) का रक्षण-पोषण-समर्थन करना अमेरिकी शासन की भारत विषयक नीति का रणनीतिक समीकरण है, जिसे रचने गढने व क्रियान्वित करने में वहां के अनेक रिलीजियस मिशन व वैचारिक संगठन सामूहिक रुप से समवेत सक्रिय हैं । अमेरिकी राष्ट्रपति किसी भी राजनीतिक पार्टी का कोई भी नेता हो, उसकी वैश्विक नीति के इस मूल उद्देश्य में कोई परिवर्तन कभी नहीं होता है, विशेष कर भारत के प्रति उसकी इस रणनीति में । इसी तथ्य व सत्य को रेखांकित करता हुआ प्रस्तुत है मेरा यह लेख-
अमेरिकी राष्ट्रपति का सुविचारित चरित्र- अमेरिकी राष्ट्रपति के वैदेशिक निर्णयों की चर्चा दुनिया भर में होती रही है । भारत भी इससे अछुता नहीं रहता है । क्योंकि, वैश्विक महाशक्ति कहे जाने वाले संयुक्त राज्य अमेरिका नामक देश के राष्ट्रपति की वैदेशिक-कूटनीतिक-आर्थिक-सामरिक नीतियों से भारत व्यापक अर्थों में प्रभावित होते रहता है ; इस कारण यह चर्चा उचित भी है । यह एक संयोग ही रहा कि डोनाल्ड ट्रम्प पहली बार जब वहां के राष्ट्रपति बने थे, तभी नरेन्द्र मोदी भी भारत के प्रधानमंत्री बने थे । ट्रम्प व मोदी के उस प्रथम कार्यकाल में दोनों के बीच बहुत बनती-निभती रही और उस दौर में अमेरिका से भारत के सम्बंधों की मिठास बढती भी रही । बाद में अगला चुनाव हार जाने पर ट्रम्प सत्ता से बेदखल हो गए, जबकि मोदी सत्तासीन ही रहे और जो वाईडन वहां के राष्ट्रपति बने । वाईडन के कार्यकाल में दोनों देशों के बीच के सम्बन्धों की उस मिठास में थोडी कमी दर्ज की जाती रही और यह माना जाता रहा कि ट्रम्प जब दुबारा सतासीन होंगे, तब सारी भरपाई हो जाएगी । परंतु हुआ उसके ठीक विपरीत । ट्रम्प की पुनर्वापसी पर आयोजित शपथ-ग्रहण समारोह में ह्वाइट हाउस की ओर से मोदी जी को आमंत्रण ही नहीं भेजा गया । फिर तो दूसरी बार सत्तासीन हुए ट्रम्प का दूसरा ही रूप देखने लगी दुनिया, जब अमेरिकी सरकार दूसरे देशों पर अनाप-शनाप ‘टैरिफ’ लगा कर व्यापारिक संबंधों को नए सिरे से परिभाषित करने लगी और अमेरिका में निवास करने वाले अन्य देशों के प्रवासियों की प्रवासन-व्यवस्था पर अनेक प्रकार के प्रतिबंध लगाने लगी । भारत भी ट्रम्प के उन फरमानों से प्रभावित हुए बिना नहीं रहा । आपको याद होगा कि अमेरिकी प्रशासन ने कुछ प्रवासी भारतीयों को ‘अवैध आप्रवासी’ बताते हुए एक विमान में भर कर वापस भेज दिया था और उन लोगों की हाथों में हथकड़ी एवं पैरों में बेड़ियां लगी हुई तस्वीरें भी मीडिया में प्रसारित हुई थीं । यह सब अभी यह सब चल ही रहा था कि तभी पाकिस्तान-पोषित आतंकवाद के उन्मूलनार्थ भारत सरकार ने ‘ऑपरेशन सिंदूर’ चला कर पाक-हुकूमत को घुटनों पर लाने का जो काम किया, उसे अमेरिकी सरकार से अपेक्षित समर्थन तो उसकी नैतिक विवशताओं के कारण अवश्य मिला, किन्तु ऐन मौके पर मोदी के मित्र कहे जाने वाले ट्रम्प को परदे के पीछे से पाकिस्तान को सहयोग प्रदान करते हुए देखा गया- पाकिस्तान को ‘अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष’ (आई एम एफ) से भारी-भरकम ऋण तत्काल ही मिल गया । वह भी तब , जब भारत ने उस पर आपत्ति जतायी थी । ‘आई एम एफ’ की ततसंबंधी बैठक में भारत की ओर से यह कहा गया था कि “पाकिस्तान को दी जाने वाली वित्तीय सहायता अप्रत्यक्ष रूप से उसकी खुफिया एजेंसियों और आतंकी संगठनों- जैसे लश्कर-ए-तैयबा और जैश-ए-मोहम्मद की मदद करती है, जो भारत पर हमलों को अंजाम देते रहे हैं ” । मालूम हो कि आर्थिक रुप से भीषण बदहाली झेल रहे और भारत के ऑपरेशान सिंदूर की मार से जर्जर हो चुके पाकिस्तान को ऐन मौके पर मिली वह आर्थिक सहायता उसके लिए संजीवनी शक्ति के समान थी । इतना ही नहीं , कुछ ही दिनों बाद ‘यूएनओ’ में ‘तालिबान प्रतिबंध समिति’ का अध्यक्ष और ‘आतंक-रोधी समिति’ का उपाध्यक्ष भी उसी पाकिस्तान को बना दिया गया, जो स्वयं आतंकवाद का पोषक है । यह सब अमेरिकी राष्ट्रपति की सुविचारित कृपा के बगैर कभी संभव नहीं है, क्योंकि ‘आईएमएफ’ और ‘यूएनओ’ दोनों उन्हीं के इशारे पर काम करते हैं । अब प्रश्न यह उठता है कि ट्रम्प तो मोदी जी के मित्र हुआ करते थे और भारत के हितैषी माने जाते थे, तो अमेरिकी वैदेशिक नीति में अब यह परिवर्तन क्यों दिख रहा है ? इस प्रश्न का उत्तर अमेरिकी राजनीति के नेपथ्य में है।
रिलीजियस विस्तारवाद का कोई नहीं अपवाद- यह तो सर्वविदित है कि नई दिल्ली के प्रति वाशिंगटन की नीति व नीयत कभी भी पाक-साफ नहीं रही है । अमेरिका सदा ही अवसर के अनुसार अपने हित साधने के लिए अपनी चालें बदलते रहता है । जिस पाकिस्तान को वह आतंकवाद का पोषक एवं विश्वशांति के लिए खतरा घोषित कर चुका होता है और जिसे प्रतिबन्धित करने की धमकियां देते हुए अमेरिकी सहायता की रेवडियों से वंचित कर देने की घुडकियां सुनाते रहता है, उसी की पीठ भी अचानक वही थपथपाने लगता है । अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रम्प हों, या ओबामा; बुश रहे हों, या क्लिंटन ; सभी ऐसा ही करते रहे हैं । दरअसल अमेरिकी विदेश नीति और खास कर उसकी ‘भारत-नीति’ का ‘दर्शन’ व समीकरण कुछ और ही है, जिसे जानने-समझने के लिए अमेरिकी राष्ट्रपति की स्थिति एवं उसकी वैदेशिक नीतियों के निर्धारण-क्रियान्वयन को आकार प्रदान करने वाली प्राधिकार समिति एवं उससे सम्बद्ध व्यक्तियों-संस्थाओं की नीति व नीयत को जानना-समझना जरुरी है ।
मालूम हो कि संयुक्त राज्य अमेरिका में उसके अस्तित्व से ले कर आज तक जितने भी राष्ट्रपति हुए हैं, वे प्रायः सब के सब ईसाई विस्तारवाद के प्रति अवश्य ही प्रतिबद्ध रहे हैं । अमेरिकी वैदेशिक नीति में ईसाई विस्तारवाद की संलग्नता और उसका सशक्त प्रभाव लगभग एक शताब्दी से कायम है । जिमी कार्टर और बिल क्लिंटन जैसे कथित ‘उदारवादी’ अमेरिकी राष्ट्रपति तो एक समय में सदर्न बैपटिस्ट ‘ईसाई-प्रचारक’ ही थे , जो संयुक्त राज्य अमेरिका की चर्च-मिशनरियों द्वारा किये जाते रहे विदेशी धर्मान्तरण का राष्ट्रपति के तौर पर समर्थन करते रहे थे । इस वैचारिक परम्परा का अपवाद कोई नहीं हुआ है आज तक । सन 1600 के दशक से ही अमेरिकियों का एक बडा प्रतिशत अपने उन राजनीतिक नेताओं के साथ अधिक सहजता का अनुभव करता रहा है , जो सार्वजनिक रुप से ईसाई हुआ करते हैं । आज संयुक्त राज्य अमेरिका की मुख्य धारा के राजनीतिक नेताओं-उम्मीदवारों के लिए यह अनिवार्य सा हो गया है कि वह सार्वजनिक रुप से और विश्वसनीयता से यह प्रदर्शित करे कि वह सच्चा ईसाई है । ‘सच्चा ईसाई’ का अघोषित अर्थ है- पूरी पृथ्वी पर ईसाइयत का विस्तार करने लिए प्रतिबद्ध होना । यही कारण है कि अमेरिकी संसद (कांग्रेस) के सदस्यों से ले कर अमेरिकी राष्ट्रपति और ह्वाईट हाउस के उच्चस्थ अधिकारी तक प्रायः सभी किसी न किसी ईसाई विस्तारवादी (धर्मांतरणकारी) गूट से गहरे सम्बद्ध रहे हैं । अमेरिकी संसद के सदस्य – क्रिस्टोफर स्मिथ , ट्रेंट फ्रैंक्स , विलियम आर्म स्ट्रांग , सैम ब्राउनबैक, जोजेफ पिट्स, एडाल्फस टाउन्स जैसे राजनेता तथा ब्रूस सी रॉबर्टसन,जीन जे कर्कपैट्रिक, माइकल क्रोमार्टी, सुसाई एंथोनी जैसे नौकरशाह अन्य रिलीजियस विस्तारवादी राजनीतिज्ञों व नौकरशाहों के साथ एक गुप्त समूह – ‘द फैमिली’ के अंग रहें हैं और अमेरिकी वैदेशिक नीति को तदनुसार दशकों तक प्रभावित करते रहे हैं । ये तो अमेरिकी कांग्रेस व सीनेट से सम्बद्ध कतिपय राजनेताओं और नौकरशाहों के उदाहरण हैं ; जबकि कई कट्टरपंथी ईसाई विस्तारवादी संस्थाओं और ततसंबंधी विचार-मंचों का भी अमेरिकी वैदेशिक नीति-निर्माण पर सीधा प्रभाव रहा है, जिनकी चर्चा करना यहां आवश्यक है ।
चर्च से सम्बद्ध संस्थाओं की गिरफ्त में अमेरिकी राष्ट्रपति और उसकी वैदेशिक नीति- ऐसी एक प्रमुख संस्था है- ‘पॉलिसी इंस्टिचयूट फॉर रिलीजन एण्ड स्टेट’ (धर्म एवं राज्य के लिए नीति संस्थान) ; अर्थात ‘पीफ्रास’ , जिसके सभी सदस्य अब्राहमिक हैं और उनके वैचारिक स्वार्थ हिन्दू धर्म से टकराते रहते हैं । यह संस्था ‘यूनाईटेड मेथोडिस्ट बोर्ड ऑफ चर्च ऐण्ड सोसाइटी’ एवं ‘दी नेशनल काउंसिल ऑफ चर्चेज ऑफ क्राईस्ट इन यू एस ए’ तथा ‘दी इंस्टिच्युट ऑफ रिलीजन इन पब्लिक पॉलिसी’ एवं ‘एथिक्स ऐण्ड पब्लिक पॉलिसी सेण्टर’ और ‘दी एपोस्टोलिक कमीशन फॉर एथिक्स ऐण्ड पॉलिसी’ नामक संस्थाओं के साथ मिल कर भारत की छवि ईसाई-उत्पीड़क देश के रूप में विकृत करने और फिर उसी आधार पर अमेरिकी राष्ट्रपति को भारत विषयक नीति निर्धारक सुझाव देते रहने में सक्रिय रहती है । इसी तरह की एक बडी शक्तिशाली संस्था है – ‘फ्रीडम हाउस’ । इसे ‘सेण्टर फॉर रिलीजियस फ्रीडम’ भी कहा जाता है । ‘युनाइटेड क्रिश्चियन फोरम फॉर ह्युमन राईट्स’ नामक एक अन्य संस्था इसकी सहयोगी है । जबकि, ‘ऑल इण्डिया क्रिश्चियन काउंसिल’ व ‘इण्डियन शोसल इंस्टिच्युट फॉर ह्युमन राइट्स डॉक्युमेण्टेशन सेण्टर’ एवं ‘ऑल इण्डिया फेडरेशन ऑफ ऑर्गनाइजेशन्स फॉर डेमोक्रेटिक राइट्स’ जैसी कई संस्थायें इसके भारतीय एजेण्ट के रुप में काम करती हैं , जिनके माध्यम से ‘फ्रीडम हाउस’ भारत में लोकतंत्र के हनन और ईसाइयों-मुसलमानों के उत्पीडन की झूठी-झूठी रिपोर्टें तैयार करा कर अमेरिकी राष्ट्रपति की वैदेशिक नीति विषयक सलाहकार समिति को पेश करते रहता है । ‘एशियन सोसाइटी’ और ‘फोर्ड फाउण्डेशन’ भी ऐसी ही संस्थाएं हैं , जो विश्व भर में भारत की नकारात्मक छवि पेश करते हुए अमेरिकी राष्ट्रपति की ‘भारत-नीति’ को प्रभावित करते रहती हैं । इस फेहरिस्त में ‘एथिक्स ऐण्ड पब्लिक पॉलिसी सेन्टर’ एक खास नाम है, जो यहुदी-ईसाई नैतिक परम्पराओं को अमेरिकी वैदेशिक नीति के महत्वपूर्ण मामलों में लागू करने के प्रति अत्यन्त मुखर रहती है । इसके अनेक सदस्य अमेरिकी प्रशासन एवं ‘युएनओ’ में प्रभावी पदों पर स्थापित रहे हैं और पाकिस्तान को भारत के विरुद्ध अमेरिकी हथियारों से सशक्त करने में सहायता प्रदान करने की वकालत करते रहे हैं । इनके अतिरिक्त ‘वर्ल्ड विजन’, ‘क्रिश्चियन कम्युनिटी डेवलपमेण्ट एशोसिएशन’, ‘वर्ल्ड इवैंजेलिकल एलायन्स’, ‘नैशनल बैपटिस्ट कॉन्वेंशन’ , ‘रैण्ड कॉरपोरेशन’ तथा ‘ग्लोबल ह्यूमन राइट्स एण्ड इण्टरनेशनल ऑपरेशन्स’ और ‘पॉलिसी इंस्टिच्युट फॉर रिलीजन ऐण्द स्टेट’ नामक संस्थाओं की रिलीजियस विस्तारवादी गतिविधियां भी भारत के विरुद्ध अमेरिकी नीति-निर्धारण में कम सहायक नहीं होती हैं । इन्हीं संस्थाओं की ‘लॉबिंग’ के दबाव में आ कर वर्ष 1998 में राष्ट्रपति बिल क्लिंटन को ‘इण्टरनेशनल रिलीजियस फ्रीडम ऐक्ट’ (आई० आर० एफ० ए०) अर्थात, ‘अंतर्राष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता अधिनियम’ नाम से एक ऐसा कानून पारित करवाना पडा था, जो अब एक ओर सम्पूर्ण विश्व के ईसाइकरण का मार्ग प्रशस्त करता है, तो दूसरी ओर अमेरिकी भारत-नीति को भी तदनुसार नियंत्रित व निर्देशित करता है ।
आई०आर०एफ० अधिनियम और चर्च की चौकडी से ‘भारत-नीति’ का निर्धारण- अंतर्राष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता अधिनियम ‘आई०आर०एफ०ए०’ नामक यह अमेरिकी कानून वस्तुतः गैर-ईसाइयों के ईसाइकरण को रोकने वाले देशों के विरुद्ध अनिवार्यतः प्रतिबंध लगाने और धर्मोन्मूलनकारी (धर्मांन्तरणकारी) शक्तियों को संरक्षण प्रदान करने के लिए बनाया गया था (है), जिसके अधिकार-क्षेत्र की सीमा केवल अमेरिका तक सीमित नहीं है, अपितु समस्त विश्व के लगभग सभी (194) देशों तक विस्तृत है । सिद्धान्ततः तो यह कानून धार्मिक स्वतंत्रता को प्रोत्साहित-हतोत्साहित करने वाले देशों के प्रति अमेरिकी सहयोग-विरोध की नीति निर्धारित करने में एक प्रभावी कारक प्रतीत होता है, जिससे मानवाधिकार-पसंद किसी देश को कोई समस्या नहीं हो सकती । किन्तु इसका व्यावहारिक पक्ष किसी देश में अनुचित-अवांछित अमेरिकी हस्तक्षेप प्रक्षेपित करने का आधार निर्मित करने वाला है और इस कारण अमेरिका से उस देश के सम्बन्धों की मधुरता को कटुता में बदल देने वाला भी प्रतीत होता है । क्योंकि ‘धार्मिक स्वतंत्रता’ की रिलीजियस-विस्तारवादी अमेरिकी परिभाषा वह नहीं है, जो शाब्दिक तौर पर होनी चाहिए ; अपितु , इसका आशय धर्मोन्मूलन (धर्मान्तरण) या पंथ-परिवर्तन की स्वतंत्रता, अर्थात गैर-ईसाइयों के बे-रोक-टोक ईसाइकरण से है । अगर किसी देश की शासन-व्यवस्था रिलीजियस विस्तारवादी गतिविधियों (धर्मोन्मूलन/धर्मान्तरण, ईसाइकरण) के मार्ग में किसी प्रकार का ‘रोक-टोक’ उत्त्पन्न करती है, तो इसका मतलब यह समझा जाता है कि वहां ‘धार्मिक स्वतंत्रता’ एवं मानवाधिकार का हनन हो रहा है और इस कारण उस देश को अमेरिकी सरकार की वैदेशिक नीति के ‘कोप’ का शिकार होना ही पडता है । भारत भी अमेरिकी सरकार की तत्सम्बन्धी विभिन्न रिपोर्टों के माध्यम से विभिन्न रुपों में इसका शिकार होता रहा है, क्योंकि पिछले कई वर्षों से भाजपा-मोदी की सरकार द्वारा धर्मान्तरण-ईसाइकरण को नियंत्रित करने के लिए कई प्रकार की प्रतिबंधात्मक कार्रवाइयां की जा रही हैं । मालूम हो कि ‘आई०आर०एफ०ए०’ कानून के तहत अमेरिकी सरकार के तीन प्रमुख संस्थानों- विदेश मंत्रालय को सलाह देने तथा विदेशी सरकारों से तत्विषयक वार्ता करते रहने के लिए एक ‘सर्वोच्च स्तर का राजदूत’ एवं कांग्रेस व ह्वाईट हाउस को सलाह देते रहने के लिए ‘यु एस कमिशन ऑफ इण्टरनेशनल रिलीजियस फ्रीडम’ (यु एस सी आई आर एफ ) और युएस०-राष्ट्रपति की राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद में एक विशेष सलाहकार नियुक्त हुआ करते हैं ।
‘यु एस सी आई आर एफ’ सहित उपरोक्त तमाम संस्थाओं के प्रतिनिधि अंतर्राष्ट्रीय मसलों पर अमेरिकी राष्ट्रपति को सलाह देते रहने हेतु कायम एक स्थायी परिषद में बतौर सदस्य पदस्थापित रहते हैं । उस सलाहकार परिषद का नाम है-‘प्रेसिडेण्ट्स एड्वाइजरी कॉउंसिल ऑन फेथ-बेस्ड नेबरहुड पार्टनरशिप’। ‘फेथ’, अर्थात ‘आस्था’ से उनका आशय केवल ‘अब्राहमवादी’ रिलीजन (क्रिश्चियनिटी) व मजहब (इस्लाम) से है । यह परिषद पहले ‘ऑफ़िस ऑफ़ फेथ-बेस्ड ऐण्ड कम्युनिटी पार्टनरशिप’ नाम से अस्तित्व में थी , जिसकी स्थापना वर्ष 2001 में अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश के द्वारा की गई थी । राष्ट्रपति बराक ओबामा ने इसका नाम बदल कर ‘प्रेसिडेण्ट्स एड्वाइजरी कॉउंसिल ऑन फेथ-बेस्ड नेबरहुड पार्टनरशिप’ किया हुआ था, जो ट्म्प के प्रथम कार्यकाल में ‘सेंटर फॉर फेथ ऐण्ड अपॉर्चुनिटी इनिशिएटिव्स’ के नाम से थोड़ी कम सक्रियता से कायम रही । बीच के राष्ट्रपति वाईडन ‘व्हाइट हाउस ऑफ़िस ऑफ़ फेथ-बेस्ड एंड नेबरहुड पार्टनरशिप्स’ नाम से उसकी अहमियत बनाए रखे , तो अब ट्रम्प के दूसरे कार्यकाल में वह परिषद ‘ह्वाईट हाउस फेथ ऑफिस’ के नाम से कायम है । ‘यू एस एड’ की वेबसाइट साफ- साफ दिखाती है कि ‘फेथ’; अर्थात, ‘आस्था’ से उनका आशय केवल ‘अब्राहमवादी’ फेथ से है । अब्राहमवादी फेथ , अर्थात ‘रिलीजन’, जिसके अनुयायी क्रिश्चियन व यहूदी हैं और ‘मजहब’ , जिसके अनुयायी मुस्लिम कहलाते हैं । यह परिषद अमेरिकी राष्ट्रपति के ‘आंख-कान’ के रुप में जानी जाती है । इस भारी-भरकम सलाहकार परिषद में तमाम सदस्य विभिन्न कट्टर क्रिश्चियन-विस्तारवादी चर्च-मिशनरी संस्थाओं के प्रमुख हुआ करते हैं, जो क्रिश्चियनिटी की सर्वोच्च वैश्विक सत्ता- ‘वेटिकन सिटी’ से निर्देशित होते हैं और जिनकी प्राथमिकताओं में शामिल होता है- सनातन धर्म का उन्मूलन व हिन्दू समाज का विघटन एवं भारत राष्ट्र का विखण्डन । उनकी इन प्राथमिकताओं का खास कारण है । वह यह है कि वे विस्तारवादी चर्च-मिशनरी संस्थायें पूरी दुनिया को जिस क्रिश्चियनिटी के अधीन कर लेने पर आमदा हैं, सो इस्लाम के समान ही पैगम्बरवादी अब्राह्मिक मजहब है और अमेरिका व युरोपीय राज्यों की राष्ट्रीयता भी है; जबकि भारत की राष्ट्रीयता जो है- ‘सनातन धर्म’, सो पैगम्बरवादी अब्राह्मिक नहीं, अपितु ‘ब्रह्म’ से निःसृत है तथा स्वाभाविक ही क्रिश्चियनिटी के विस्तार में बाधक भी है । बराक ओबामा के राष्ट्रपति बनने पर ऐसा कयास लगाया जा रहा था कि अमेरिकी शासन में ऐसी गहरी पैठ रखने वाली क्रिश्चियन विस्तारवादी चर्च-मिशनरी
शक्तियां कमजोर पड जाएंगी, जिससे भारत के प्रति अमेरिकी नीति में भी बदलाव आएगा, किन्तु ऐसा बिल्कुल नहीं हुआ; बल्कि हुआ यह कि खुद ओबामा ने ही उपरोक्त सलाहकार परिषद के एक सदस्य- जोशुआ ड्युबॉय नामक उस व्यक्ति को अपना दाहिना हाथ बनाये रखा, जिसने चुनाव में उनके लिए कट्टरपंथी विस्तारवादी ईसाई समूहों का वोट-बैंक पटाया था । इस सलाहकार परिषद की सलाहों-सिफारिसों की उपेक्षा कोई भी अमेरिकी राष्ट्रपति कतई नहीं कर पाता । उदारवादी व स्वतंत्र विचारों के हिमायती कहे जाने वाले जिमी कॉर्टर और बिल क्लिंटन जैसे अमेरिकी राष्ट्रपति भी इस परिषद में शामिल धर्मान्तरणकारी विस्तारवादी कट्टरपंथी चर्च-मिशनरी संस्थाओं की अनदेखी
नहीं कर सके थे, तो ट्रम्प इसके अपवाद कैसे हो सकते हैं ?
भारत के विरुद्ध पाकिस्तान के प्रति नरमी, क्योंकि दोनों हैं ‘अब्राह्मी’- यही कारण है कि इस्लामी आतंकवाद से यदा-कदा आक्रांत होते रहने के बावजूद उन आतंकी संगठनों एवं उन्हें पनाह देने वाले पाकिस्तान की वे तरफदारी करते रहते हैं । भारत के विरुद्ध अमेरिकी ‘पाक-नीति’ में सदैव ही नरमी पाये जाने का एक मजबूत कारण पाकिस्तान का इस्लामिक स्टेट होना, अर्थात उन दोनों का ‘अब्राह्मी होना भी है । आप समझ सकते हैं कि पिछले 60-70 वर्षों केभीतर जिस पाकिस्तान व बांग्लादेश में राज्य-प्रायोजित हिंसा व आतंक से हिन्दुओं का लगभग सफाया कर दिया गया, उन दोनों देशों के विरुद्ध कोई आपत्ति दर्ज करने एवं तत्समबन्धी कार्रवाई-सुनवाई की पहल करने से भी अमेरिकी विदेश मंत्रालय और अंतर्राष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता विषयक अमेरिकी आयोग (यु०एस०सी०आई०आर०एफ०) आखिर क्यों कतराते रहे हैं ? जबकि, कश्मीर में आतंकियों के विरुद्ध भारतीय सेना की कार्रवाई पर वही अमेरिका कई बार मानवाधिकार-हनन का सवाल उठाते रहा है । उसका विदेश मंत्रालय अंतर्राष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता अधिनियम के तहत भारत को तो धर्मान्तरण-विरोधी भारतीय कानूनों की वजह से हिन्दू-संगठनों की तथाकथित आक्रामकता का ढिंढोरा पीटते हुए तत्सम्बन्धी अमेरिकी आयोग के समक्ष कठघरे में खडा करते रहता है, किन्तु हिन्दू-समाज के उत्पीडन-उन्मूलन पर आमदा इस्लामी आक्रामकता वाले देशों की शासन-संपोषित करतूतों पर चुप्पी साधे रहता है । अभी हाल ही में अमेरिकी विदेश मंत्रालय ने भारत के खिलाफ धार्मिक स्वतंत्रता-विषयक रिपोर्ट जारी किया था, जिसमें भारत को ‘सर्वाधिक चिन्ता वाले देशों की सूची’ में शामिल किया हुआ था । जाहिर है, अमेरिकी राष्ट्रपति की ‘भारत-नीति’ वस्तुतः रिलीजियस विस्तारवादी चर्च की चौकडी के रुप में कायम ‘प्रेसिडेण्ट्स एड्वाइजरी कॉउंसिल ऑन फेथ-बेस्ड नेबरहुड पार्टनरशिप’ नामक उसकी सलाहकार परिषद की नीयत के अनुसार ही निर्धारित होती है । भारत के प्रति अमेरिकी विदेश-नीति भी इसका अपवाद नहीं है ; चाहे वह कश्मीर को ले कर हो या पाक-प्रायोजित आतंकवाद से सम्बन्धित हो ।
एक और कारण- विस्तारवादी गठबंधन ; बकौल माउण्ट बैटन- उल्लेखनीय है कि भारत-पाकिस्तान के बीच का ‘कश्मीर-मामला’ दक्षिण एशिया में रिलीजियस विस्तारवादी शक्तियों के हस्तक्षेप की अमेरिकी-ब्रिटिश कूटनीति का ही परिणाम है, जिसके तहत सन 1947 में ही ब्रिटिश वायसराय माउण्ट्बैटन द्वारा जम्मू-कश्मीर को पाकिस्तान में शामिल करने के बावत वहां के महाराजा पर दबाव डालने की बहुविध कोशिशें की गई थीं , किन्तु जब सफल नहीं हुए तब उस असफलता से खीझे माउण्टबैटन ने ‘आगे सलट लेने’ की सोच कर भारत-कश्मीर विलय मामले को नेहरुजी के माध्यम से संयुक्त राष्ट्रसंघ में भेजवा दिया । उस पूरे प्रकरण के भीतर का राज यही है कि ब्रिटिश अमेरिकी गठजोड वस्तुतः ईसाई-विस्तारवाद की वैश्विक योजना क्रियान्वित करने के निमित्त दक्षिण एशिया में अपनी सामरिक अनुकूलता के अनुसार कश्मीर को भारत से पृथक कर देने में ही रुचि लेता रहा है । ऐसा इस कारण, क्योंकि अंतर्राष्ट्रीय सीमाओं से युक्त कश्मीर का पाकिस्तान में विलय हो जाने अथवा एक स्वतंत्र राज्य बन जाने पर ही अमरिकी-ब्रिटिश गठजोड इस भूमि का मनमाना सामरिक इस्तेमाल भारत व चीन के विरुद्ध कर सकता है । इसी कूटनीति एवं भारत के एक और विखण्डन की युक्ति के तहत अमेरिकी शासन कश्मीर-मामले में मध्यस्थता के अवसर और हस्तक्षेप की जमीन तैयार करने की कोशिशें हमेशा करता रहा है । अब , जब कश्मीर में भारतीय संविधान पूर्ण-रुपेण लागू हो चुका है और वह पूरा प्रदेश भारत गणराज्य की मुख्य धारा में समरस हो चुका है; तब उस रिलीजियस विस्तारवादी गठजोड का अगुवा बने अमेरिका को पाकिस्तान का वजूद चाहिए ही चाहिए , तो बुरे वक्त पर उसकी सहायता आखिर क्यों न करे ?
अंततः भारत राष्ट्र के नीति के नीति-नियन्ताओं को यह तो समझना ही चाहिए कि ट्रम्प हों या ओबामा, अमेरिकी ‘भारत-नीति’ का एक ही ‘समीकरण’ है और वह है ईसाई-विस्तारवाद का हित साधना और इस हेतु भारतीय राष्ट्रीयता (सनातन धर्म) की विरोधी मजहबी शक्तियों का तदनुसार इस्तेमाल करते हुए उनका पक्षपोषण करना । ऐसे में अमेरिकी ‘भारत-नीति’ की चालबाजियों से निबटने के लिए भारत सरकार भी भारतीय वैदेशिक नीति-निर्माण में भारत की राष्ट्रीयता, जो निश्चय ही सनातन धर्म के सिवाय दूसरा कुछ नहीं है, के संवर्द्धनकारी तत्वों को समाविष्ट करते हुए ही तदनुकूल अपनी ‘अमेरिका-नीति’ निर्मित करे एवं उसका क्रियान्वयन भी ।
• मनोज ज्वाला ; जून’ 2025