भारत के पुनरुत्थान की ओर सरकार के बढते कदम



खबर है कि भारत सरकार ने देश की आजादी के 75 साल पूरे होने पर
पारंपरिक भारतीय ज्ञान-विज्ञान युक्त गुरुकुलीय पद्धति से शिक्षा के
निमित्त राष्ट्रीय स्तर की एक नियामक संस्था के गठन को मंजुरी दे दी है ।
‘भारतीय शिक्षा बोर्ड’ नामक इस चिर-प्रतीक्षित संस्था के क्रियान्वयन की
कमान बाबा रामदेव के ‘वैदिक शिक्षा अनुसंधान संस्थान’ को सौंपी गई है ।
प्रारंभ में यह बोर्ड गायत्री तीर्थ हरिद्वार-स्थित युग निर्माण योजना के
मुख्यालय ‘शांतिकुंज’ से संचालित होगा । बाद में इसका मुख्यालय दिल्ली
स्थापित किया जाएगा । भारत भर में सक्रिय पारम्परिक शिक्षण संस्थानों
तथा विभिन्न राष्ट्रवादी संगठनों और मैकॉले-अंग्रेजी शिक्षा-पद्धति के
विरोधियों द्वारा शिक्षा का ‘स्वदेशीकरण’ करने के लिए गुरुकुलीय शिक्षा
के नियमन हेतु ‘सीबीएसई’ की तर्ज पर एक नियामक संस्था कायम करने की मांग
दशकों पहले से की जा रही थी । हाल के वर्षों में स्वदेशी के सबसे बडे
पैरोकार स्वामी रामदेव ने यह मांग सरकार के सामने रखी थी । वर्ष 2015 में
उन्होंने अपने हरिद्वार-स्थित वैदिक शिक्षा अनुसंधान संस्थान के जरिए इस
बावत प्रस्ताव प्रस्तुत किया था जिसमें महर्षि दयानंद-प्रणीत पुरातन
शिक्षा और मैकॉले-प्रणीत आधुनिक शिक्षा का मिश्रण करके भारतीय शिक्षा
बोर्ड की स्थापना किये जाने का सुझाव दिया था । किन्तु शिक्षा मंत्रालय
ने वर्ष 2016 में इस प्रस्ताव को खारिज कर दिया था । तब राष्ट्रीय
स्वयंसेवक संघ से सम्बद्ध संस्था भारतीय शिक्षण मण्डल ने इस ध्येय को
अपने हाथों में ले लिया और देश भर के गुरुकुलों एवं वैदिक
शिक्षा-संस्थानों की विशिष्टताओं को उजागर करते हुए उनके प्रति जनमानस
में स्वीकार्यता बढाने तथा उन्हें आधुनिक कहे जाने वाले मैकॉले-अंग्रेजी
पद्धति के स्कूलों से बेहतर सिद्ध करने-बताने और उन्हें नैतिक-बौद्धिक
सहयोग-संरक्षण देने का उपेक्षित पडा काम योजनापूर्वक शुरु कर दिया जो आज
भी जारी । संघ के एक वरिष्ठ प्रचारक मुकुल कानिटकर के नेतृत्व में सैकडों
शैक्षिक स्वयंसेवकों ने भारत और भारत से बाहर संचालित समस्त गुरुकुलों
तथा वैदिक शिक्षण-संस्थानों का एक समन्वय-सूत्र कायम कर उन्हें सरकार से
अंग्रेजी-मैकॉले स्कूलों के समकक्ष समान अधिकारों व सुविधाओं की मांग
करने का बल प्रदान किया । परिणामस्वरुप तमाम गुरुकुलों के संचालकों ने भी
जब यह महसूस किया कि मैकॉले-अंग्रेजी स्कूलों के पहले अर्थात अंग्रेजी
राज कायम होने से पहले भारत में शासकीय मान्यता-प्राप्त शिक्षण-संस्थान
तो ये गुरुकुल ही थे जिन्हें अंग्रेजों ने अपना राजनीतिक हित साधने और
ईसाई विस्तारवाद को अंजाम देने के लिए जबरिया बन्द कर दिया था तब वे लोग
भी शिक्षा-स्वदेशीकरण आन्दोलन में कूद पडे । फिर तो भारतीय शिक्षण मण्डल
और मध्यप्रदेश-सरकार की संयुक्त पहल पर वर्ष २०१८ में उज्जैन में
अंतराष्ट्रीय गुरुकुल सम्मेलन का आयोजन हुआ जिसमें देश भर से लगभग १२००
गुरुकुलों के गुरु-शिष्यों का समागम हुआ था । मैं स्वयं भी उस आयोजन में
सहभागी था जहां भारत से बाहर नेपाल भूटान वर्मा श्रीलंका आदि देशों में
संचालित गुरुकुलों के प्रतिनिधि भी आये थे तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के
सरसंघचालक मोहन भागवत और भारत सरकार के तत्कालीन शिक्षा मंत्री प्रकाश
जावेडकर ने उसके पूरे एक सत्र को ही संबोधित किया था । उसी सत्र में
गुरुकुलों के नियमन व शासकीय संरक्षण के लिए एक नियामक संस्था के गठन का
प्रस्ताव मुखरित हुआ गया तो केन्द्र-सरकार के प्रतिनिधि की हैसियत से
तत्कालीन केन्द्रीय शिक्षा मंत्री (मानव संशाधन विकास मंत्री) को
गुरुकुलों की व्यापकता व गुरुकुलीय शिक्षा की गुणवत्ता से प्रभावित हो कर
भारतीय शिक्षा बोर्ड के गठन का आश्वासन देना पडा था । पिछले दिनों
केन्द्र सरकार ने उसी आश्वासन को पूरा करते हुए भारतीय शिक्षा बोर्ड के
गठन को मंजुरी दे कर इसकी कमान स्वामी रामदेव को सौंप दी है जिससे लोगों
को ऐसा लग रहा है कि यह तो योगी बाबा के प्राणायाम-व्यायाम का चमत्कार है
किन्तु सच यह है कि इसके पीछे भारतीय शिक्षण मण्डल और उसके प्रमुख मुकुल
कानिटकर की ततसम्बन्धी रणनीति व संगठन-शक्ति का परिणाम है ।
इस बहुप्रतीक्षित भारतीय शिक्षा बोर्ड को गुरुकुलीय शिक्षा का
पाठ्यक्रम तैयार करने एवं तमाम पारम्परिक शिक्षण संस्थानों-गुरुकुलों को
संबद्ध करने तथा उन सब के लिए एक समान परीक्षा आयोजित करने और प्रमाण
पत्र जारी कर के भारतीय पारंपरिक ज्ञान का मानकीकरण करने का अधिकार
प्रदान कर दिया गया है । भारतीय ज्ञान-विज्ञान से युक्त शिक्षा के नियमन
की यह ऐसी नियामक संस्था होगी जिससे सम्बद्ध शिक्षण-संस्थानों में
वेद-वेदांत-पुराण-उपनिषद-सांख्य-योग-ज्योतिष मंत्र-तंत्र आदि समस्त
आर्ष-विद्याओं की पढाई का प्रावधान होगा ; जबकि सीबीएसई के तमाम
पाठ्यक्रम भी इसमें सामान्य रुप से समाहित होंगे । यह काम भी प्रकारान्तर
से शुरु हो चुका है , जिसके लिए संघ के ही एक वरिष्ठ प्रचारक-लेखक-चिन्तक
लक्ष्मीनारायण भाला के नेतृत्व-निर्देशन में अगले दिनों सूरत शहर में
गुजरात भर के तमाम सरकारी-गैरसरकारी शिक्षण-संस्थानों का चारदिवसीय
कार्यशाला आयोजित हो रही है । केन्द्रीय कैबिनेट मंत्री पुरुषोत्तम
रुपाला के संरक्षण में ‘समर्थ भारत’ नामक संस्था द्वारा अयोजित
शिक्षाविदों का वह समागम ‘शिक्षा में भारतीय विवेक’ पुनर्स्थापित करने
रीति-नीति निर्धारित करेगा ।
मालूम हो कि युरोपीय-अमेरिकी देशों के राष्ट्र बनने और ईसा का
जन्म होने से हजारों साल पहले के भारतीय शास्त्रों-ग्रंथों यथा- वेद ,
उपनिषद, सांख्य, ब्राह्मण, आरण्यक में ब्रह्माण्ड के सबसे जटिल व अनसुलझे
विषयों जिन्हें आधुनिक पश्चिमी वैज्ञानिक फोर्स, टाईम, स्पेश, ग्रैविटी,
ग्रविएशन, डार्क एनर्जी, डार्क मैटर, फोटोन, ग्रैविटोन, मॉस, वैक्यूम
एनर्जी, मैडिएटर पार्टिकल्स इत्यादि कहते हैं उन सब के विशद वर्णन हैं ।
इन ग्रन्थों में आज के भौतिक विज्ञान के कॉस्मोलॉजी, एस्ट्रो-फिजिक्स,
क्वांटम फिल्ड थ्योरी, प्लाज्मा फिजिक्स, पार्टिकल फिजिक्स एण्ड स्ट्रिंग
थ्योरी जैसे गम्भीर विषयों की भी व्यापक विवेचना है । इतना ही नहीं,
द्रव्य एवं ऊर्जा का स्वरूप व उत्पत्ति, विद्युत् आवेश का स्वरूप व
उत्पत्ति, विभिन्न बलों की उत्पत्ति, स्वरूप व क्रिया, तारों व
गैलेक्सियों की उत्पत्ति-प्रक्रिया, गैलेक्सी में तारों की कक्षाओं का
निर्माण, ब्रह्मांड की मूल अवस्था, सृष्टि उत्पत्ति की प्रक्रिया आदि
अनेक गम्भीर व मौलिक विषयों की भी विस्तृत व्याख्यायें भरी पडी हैं ।
महर्षि दयानंद सरस्वती ने यह जो कहा है कि ’’वेद ही समस्त सत्य
विद्याओं के सार हैं’’ सो ऐसे ही नहीं कहा है । महर्षि भारद्वाज ने
हजारों वर्ष पहले ही वेदों के अनुसंधान से ‘विमान शास्त्र’ नामक ग्रंथ रच
कर ७६ प्रकार के विमानों की रचना का विज्ञान प्रस्तुत कर रखा है , जिनमें
यात्री विमान से ले कर युद्धक विमान तक शामिल हैं । ‘अंशुबोधिनी’ गन्थ
में महर्षि भारद्वाज ने सूर्य और नक्षत्रों की किरणों की शक्ति और
उन्हें मापने की विधि का वर्णन किया है । इन्हीं ऋषि का एक और ग्रन्थ
‘अक्ष-तन्त्र’ नाम का है , जिसमें आकाश की परिधि और उसके विभागों का
वर्णन किया गया है और बताया गया है कि मनुष्य आकाश में कहाँ तक जा सकता
है एवं उसके बाहर जाने से किस प्रकार वह नष्ट हो सकता है । रत्नप्रदीपिका
में कृत्रिम हीरा बनाने की विधि के सूत्र-समीकरण दिए गए हैं । इसी तरह
से अगस्त्य ऋषि-रचित ‘अगस्त्य संहिता’ ग्रंथ में विद्युत-उत्पादन की विधि
का आविष्कार हजारों वर्ष पहले ही किया जा चुका है, जिसका परीक्षण किए
जाने पर आधुनिक विज्ञानियों को आज भी अचरज होता है । इसी प्रकार से
चिकित्सा के क्षेत्र में युरोप के मेडिकल साइंस का जन्म होने से पहले ही
प्लास्टिक सर्जरी जैसी तकनीक तो सुश्रुत ऋषि भारत को दे चुके हैं । हमारे
आयुर्वेद में कायाकल्प के तो चमत्कार ही चमत्कार हैं, किन्तु उसे भी
पश्चिम के मेडिकल साइंस का मोहताज बना दिया गया है । जबकि, ‘वैदिक गणित’
में तो ऐसे-ऐसे सूत्र-समीकरण भरे-पडे हैं कि उनके प्रयोग से वृक्षों की
पत्तियां तक गिनी जा सकती हैं । आर्यभट्ट और वराहमिहिर जैसे हमारे महान
खगोलविदों व गणितज्ञों के ग्रंथों को खंगाला जाये तो एक से एक ऐसे-ऐसे
सूत्र-समीकरण मिलेंगे, जिनके उपयोग से भारतीय प्रतिभा पूरी दुनिया को
अचम्भित कर सकती है । किन्तु दुर्भाग्य है कि हमारे बच्चों को आज भी
पश्चिम से आयातित गणित और विज्ञान पढाये जाते हैं । गणित के शून्य व
दशमलव का आविष्कार करने वाले भारत के वे तमाम ऋषि-मनीषी वशिष्ठ,
विश्वामित्र, कणाद कण्व अगस्त्य सुश्रुत भारद्वाज द्रोण आर्यभट्ट वराहमिहिर आदि अंग्रेजों द्वारा कपोल-कल्पित पौराणिक पात्र बना दिए गए और उनके ज्ञान-विज्ञान के मूल रुप से भारतीय पीढियों को वंचित कर उन्हें युरोपीयन-अमेरिकन जुठन परोसा जाने लगा, जो आज भी जारी है । इससे नुकसान यह हो रहा है कि हमारी प्रतिभाओं का जितना विकास होना चाहिए वह नहीं हो पा रहा है । ऐसे में भारतीय शिक्षा बोर्ड कायम हो जाने और उसके माध्यम से गुरुकुलों को मुख्य धारा के शिक्षण-संस्थान की शासकीय मान्यता मिल जाने से ज्ञान-विज्ञान के भारतीय स्रोत, जिन्हें अंग्रेजों ने अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिए बाधित व अपहृत कर रखा था, सो पुनः प्रवाहित होने लगेंगे । यह एक युगान्तरकारी कदम है ।
• मनोज ज्वाला ; सितम्बर’ २०२२