भारत ‘राष्ट्र’ सनातन और कांग्रेस-नेतृत्व का बौद्धिक दिवालियापन


सत्ता से बेदखल होने के सात वर्षों के भीतर ही भारत की सबसे पुरानी
राजनीतिक पार्टी- ‘कांग्रेस-ई’ अब एकबारगी बौद्धिक रुप से भी दिवालिया हो
चुकी है । उसके इस दिवालियापन का सबसे बडा प्रमाण यह है कि उसका एकमात्र
‘स्थायी नेता’, जिसे ‘हम भारत के लोग’ उसकी ‘बेवकुफी भरी कथनी-करनी’ के
कारण बडे प्यार से ‘पप्पू’ कहा करते हैं, सो अब कह रहा है कि “भारत कोई
राष्ट्र नहीं है, बल्कि विभिन्न राज्यों का संघ मात्र है ।” यह वही पप्पू
है जो स्वयं को दत्तात्रेय ब्राह्मण कहता है...जिसके पापा-दादा-दादी और
दादी के पापा कभी इसी कांग्रेस के बडे नेता हुआ करते थे जिसका पूरा नाम
ही है “भारतीय ‘राष्ट्रीय’ कांग्रेस” । ऐसे में अब आप जरा सोचिए कि
कांग्रेस का यह स्थायी नेता किस दर्जे का मूर्ख और धूर्त्त है, जिसकी
पार्टी तो ‘भारतीय राष्ट्रीय’ कही जाती रही है, लेकिन वह भारत को राष्ट्र
नहीं मानता है , जबकि वह महात्मा गांधी को भारत का ‘राष्ट्रपिता’ कहते
रहने की वकालत भी स्वयं करता है ।
बहरहाल कांग्रेस के इस कर्णधार की ऐसी
बयानबाजी और इसकी चाकरी करने वाली मीडिया की चापलूसी के कारण किसी को कोई भ्रम न हो इसलिए यह स्पष्ट कर दे रहा हूं कि भारत एक ‘राष्ट्र’
ही है और सनातन राष्ट्र है । दुनिया के सभी राष्ट्रों से पुराना ,
सर्वाधिक प्राचीन । पूरब-पश्चिम किसी भी दुनिया के ज्ञात-अज्ञात इतिहास
से परे । इतिहास तो पश्चिम की प्रवृति है और बडी षड्यंत्रकारी प्रवृति है
। दुनिया की सभी श्रेष्ठ चीजों पर अपना स्वामित्व जताने-दर्शाने की
पश्चिमी कुटिल कूटनीति की परिणति है- इतिहास । इतिहास से पहले भारत में
पुराणों स्मृतियों और श्रुतियों की एक समृद्ध परम्परा कायम रही है । उनका
अध्ययन आप करेंगे तो पाएंगे कि भारत राष्ट्र की प्राचीनता अत्यंत प्राचीन
है । पश्चिम तो ‘राष्ट्र’ की अवधारणा से अभी हाल ही में लगभग दो सौ साल
पहले परिचित हुआ है और वह भी ‘नेशन’ के अर्थ में । पश्चिम के ‘नेशन’ को
आप ‘राष्ट्र’ के अर्थ में समानार्थी नहीं कह सकते हैं । पश्चिम का
‘नेशन’ राज्य से निःसृत हुआ है, जबकि भारत का राष्ट्र धर्म-संस्कृति से
निःसृत है । इसे इस उदाहरण से आप समझ सकते हैं- पश्चिम के युरोप में
अनेक छोटे-बडे राज्य हैं- फ्रांस, जर्मनी, इंग्लैण्ड, न्युजिलैण्ड, कनाडा
आदि । इसी तरह, अमेरिका , आस्ट्रेलिया भी स्वतंत्र राज्य हैं । इन सभी
राज्यों की संस्कृति एक ही है- ईसाइयत । किन्तु सिर्फ स्वतंत्र राज्य
होने की वजह से ये सब पृथक-पृथक ‘नेशन’ हैं । किन्तु भारत में सैकडों
स्वतंत्र राज्य होने के बावजूद सबकी संस्कृति एक होने के कारण वे सब एक
ही भारत-राष्ट्र के अंग रहे हैं ।
सन १९४७ से पहले और उससे भी पहले अंग्रेजों के आगमन से पूर्व भारत
में सैकडों स्वतंत्र राज्यों का अस्तित्व कायम रहा है । अंग्रेजी शासनकाल
में भी कई ऐसे बडे-बडे राज्य थे, जो आकार में ब्रिटेन से कई गुणा बडे थे
और उनसे ब्रिटिश महारानी की संधियां थीं । किन्तु राष्ट्र एक ही था- भारत
। ऐसा इस कारण, क्योंकि उन सभी भारतीय राज्यों की संस्कृति एक ही रही थी-
वैदिक संस्कृति, जिसे आम तौर पर हिन्दू-संस्कृति कहा जाता है ।
राज्य-विशेष की स्थानीय परम्पराओं में थोडी बहुत विभिन्नतायें भी रही थीं
और आज भी हैं , तो भी व्यापक स्तर पर उन सबके मूल में एक ही समान वैदिक
मान्यताओं-स्थापनाओं की संव्याप्ति के कारण सांस्कृतिक रुप से वे सभी एक
ही राष्ट्र के अंग-अवयव रहे । यहां भारत नाम का कभी कोई राज्य नहीं रहा
है , बल्कि भारत राष्ट्र के भीतर ही अनेक राज्य रहे हैं , जिनकी संस्कृति
सदैव एक ही रही है, इसी कारण उन सब क्षेत्रों-भूभागों की राष्ट्रीय पहचान
भी एक ही रही । आसेतु हिमाचल भारत के सभी राज्यों के निवासियों का एक ही
धर्म रहा है- सनातन धर्म और एक ही संस्कृति रही है- वैदिक संस्कृति
अर्थात आर्य संस्कृति अथवा हिन्दू-संस्कृति । यहां धार्मिक पंथ अनेक होते
रहे हैं, किन्तु उन सब में एक ही सनातन धर्म के मौलिक तत्व विद्यमान रहे
हैं । सनातन धर्म से ही निकले हुए कई पंथों का जोर-विस्तार भी इतना
ज्यादा हुआ कि आम लोग उन्हें भी एक पृथक धर्म ही मान लिए , किन्तु वास्तव
में वे सब सनातन धर्म की परिधि के भीतर ही रहे । बौद्ध , जैन और सिक्ख
ऐसे ही पंथ आज भी हैं । इन सभी पंथों में सनातन धर्म के अनेक तत्व
प्रमुखता से पाये जाते हैं, या यों कहिए कि उन्हीं तत्वों से इन पंथों का
निर्माण हुआ है । वेद- आधारित सनातन भारतीय जीवन-मूल्य इन सभी पंथों में
सम्पूज्य हैं और आत्मा की अमरता का सनातन तत्व इन सब में सर्वमान्य है ;
केवल उपासना-पद्धतियां भिन्न-भिन्न हैं और इस कारण जीवन-शैली में
विभिन्नता होने के बावजूद इन सभी पंथों को मानने वाले लोगों के जीवन का
उद्देश्य एक समान, एक ही रहा है- ‘मोक्ष’ । यहां इसी सर्व-सामान्य
जीवनोद्देश्य के अनुकूल जीवन-दृष्टि विकसित हुई है और तदनुसार ही
जीवन-मूल्य निर्मित हुए एवं परिवार व समाज की रचना भी । यही कारण है कि
महर्षि अरविन्द सरीखे तमाम तत्व-वेताओं-चिन्तकों-दार्शनिकों ने एक स्वर
से यह स्वीकार किया है कि सनातन धर्म ही भारत की राष्ट्रीयता है । यह सहज
स्वाभाविक ही है, क्योंकि किसी भी राज्य की जनता जिस धर्म के अनुसार
जीवन-यापन करती है, उस धर्म से ही वहां की राष्ट्रीयता का निर्माण होता
है अर्थात प्रकारान्तर से वह धार्मिकता ही वहां की राष्ट्रीयता होती है ।
युरोप के सभी राज्यों की राष्ट्रीयता ‘ईसाइयत’ है और अरब या खाडी के सभी
देशों की राष्ट्रीयता (‘नेशन’ के अर्थ में भी ) ‘इस्लाम’ है , इससे इंकार
नहीं किया जा सकता है ।
वेदों में राष्ट्र को जो अर्थ प्रदान किया गया है , उसके अनुसार
आप देखें तो समूचा युरोप और समूचा अरब एक-एक राष्ट्र हो सकता है, क्योंकि
इन दोनों की अपनी अपनी एक-एक सांस्कृतिक पहचान है, अपनी अपनी एक-एक
संस्कृति है । इन दोनों के भीतर के राज्यों की पृथक-पृथक परस्पर-भिन्न
कोई सांस्कृतिक पहचान नहीं है; इस कारण वे सभी राज्य ‘राष्ट्र’ नहीं है,
बल्कि ‘नेशन’ हैं । इस राष्ट्रीय दृष्टि से आप देखें तो अपना भारत समूचे
युरोप के समकक्ष है, न कि फ्रांस जर्मनी ब्रिटेन अथवा कनाडा या रुस के
समतुल्य । इसी तरह अरब के अथवा खाडी के किसी देश-राज्य से भारत की कोई
तुलना-समानता नहीं की जा सकती है, बल्कि उन सभी देशों-राज्यों का
सांस्कृतिक आकार जो है- अरब, वही उन सबका राष्ट्र है और इस कारण वही
भारत के समकक्ष होने योग्य है । किसी भी देश के निवासियों की
धार्मिक-सांस्कृतिक चेतना की व्यापक व्याप्ति का सूक्ष्म आकार-विस्तार
है-‘ राष्ट्र’। एक राष्ट्र के भीतर कई राज्य हो सकते हैं, जबकि एक राज्य
के भीतर अनेक राष्ट्र कतई नहीं हो सकते । एक राज्य किसी क्षेत्र या
स्थान-विशेष के स्थूल भौगोलिक विस्तार की राजनीतिक-शासनिक व्याप्ति है ,
तो राष्ट्र उसकी धार्मिक-सांस्कृतिक चेतना के विस्तार की सूक्ष्म
अभिव्यक्ति है ।
यहां यह भी उल्लेखनीय है कि किसी भी देश के राष्ट्र होने और उस
राष्ट्र (नेशन के अर्थ में भी) की राष्ट्रीयता (नेशनलिटी) के पुष्ट होने
में मानव-कल्याण और विश्व-कल्याण की कामना-भावना के तत्वों का जितना
समावेश होता है , उस राष्ट्र की जीवनी-शक्ति भी उतनी ही होती है । ये
तत्व किसी भी राष्ट्रीयता में जितनी ही सूक्ष्मता व व्यापकता के साथ
समाहित होते हैं, वह राष्ट्र मानवीय सभ्यता और विश्व के लिए उतना ही
वरेण्य और महत्वपूर्ण होता है । ऐसे में अब आप देखें तो पाएंगे कि
युरोपीय अमेरिकी और अरबी संस्कृति से युक्त राष्ट्रों की राष्ट्रीयता-
क्रमशः ‘ईसाइयत’ और ‘इस्लाम’ में मानव-कल्याण व विश्व-कल्याण की
कामना-भावना अखिल विश्व और मानव-मात्र के प्रति आग्रही नहीं है, बल्कि
केवल ईसाइयों और केवल मुस्लिमों के प्रति आग्रही है । ये दोनों ही प्रकार
की राष्ट्रीयतायें नकारात्मकता और विभाजकता पर आधारित हैं । इनमें से एक
प्रकार की राष्ट्रीयता गैर-ईसाइयों को नकारती है और पूरी दुनिया को ईसाई
व गैर-ईसाई के बीच विभाजित करती दिखती है, तो दूसरी तरह की राष्ट्रीयता
गैर-मुस्लिमों को काफिर (शत्रु) मानते हुए सारी दुनिया को ‘दारुल
इस्लाम’ व ‘दारुल हरब’ के नाम से विभाजित करती है । ये दोनों ही , शेष
दुनिया के लोगों को मिटा देने अथवा अपने ही रंग में रंग देने अर्थात
ईसाइकरण व इस्लामीकरण को उद्धत हैं । इनका उद्देश्य मानव-कल्याण और
विश्व-कल्याण कतई नहीं है, बल्कि स्वयं का अन्तर्राष्ट्रीय विस्तार ही
इनका ध्येय है । प्रकारान्तर में कहें तो यह कि इन दोनों की राष्ट्रीयता
असल में विस्तारवादी अन्तर्राष्ट्रीयता है, जो समग्र विश्व के कल्याण और
समस्त मानव के कल्याण से सर्वथा भिन्न है । ऐसा इस कारण है क्योंकि इन
राष्ट्रीयताओं का मूल जो है- ‘ईसाइयत’ और ‘इस्लाम’ सो नकारात्मक-विभाजक
संकीर्णता पर आधारित है । दुनिया की तमाम गैर-ईसाई और गैर-मुस्लिम
सभ्यतायें इनके निशाने पर हैं , जिन्हें साधने के लिए इनकी ओर से पिछले
पांच सौ वर्षों से बहुविध छल-प्रपंच , युद्ध-षड्यंत्र किये जाते रहे हैं
। दुनिया में बढते आतंक और बढती अशांति के मूल में ये दोनों
राष्ट्रीयतायें ही तरह-तरह से सक्रिय हैं । इन दोनों ही राष्ट्रीयताओं से
समग्र विश्व का और समस्त मानव का कल्याण होने वाला नहीं है , क्योंकि
दूसरों का कल्याण इनके चिन्तन में ही नहीं है ।
समस्त विश्व के कल्याण की कामना-भावना करने-रखने वाली सिर्फ और
सिर्फ एक ही राष्ट्रीयता है इस दुनिया में और वह है- भारतीय राष्ट्रीयता
अर्थात सनातन धर्म , जिसमें न केवल मानव-मात्र के , बल्कि प्राणि-मात्र
के और उससे भी अधिक समग्रता में सम्पूर्ण सचराचर सृष्टि के कल्याण की
कामना-भावना और तदनुसार क्रियायें-चेष्टायें समाहित हैं । यही कारण है कि
ईसाइयत व इस्लाम से अनुप्राणित राष्ट्र (नेशन के अर्थ में) और सनातन धर्म
से निःसृत राष्ट्र सतही तौर पर बाहर से देखने में भले ही एक-दूसरे के
पूरक या समानार्थी दिखाई पड्ते हों , किन्तु भीतर से सूक्ष्मता में दोनों
की प्रकृति व प्रवृति सर्वथा भिन्न ही नहीं हैं , बल्कि एक-दूसरे के विरूद्ध और विरोधी भी हैं । सूक्ष्मता में आप देखें तो पाएंगे कि दोनों के बीच अदृश्य सतत संघर्ष जारी है । इसका कारण यह है कि ईसाइयत व इस्लाम दोनों के वैश्विक विस्तारवादी अभियान में सनातन धर्म सबसे बडा बाधक है, क्योंकि दोनों की तथाकथित धार्मिकता के तत्व-ज्ञान सनातन धर्म से सामना होते ही तार-तार हो जाते हैं । दोनों की ‘इकलौती आसमानी किताबें’वेदों- उपनिषदों के ज्ञान-सागर में तिरोहित हो कर अवशिष्ट कचडों में तब्दील हो जाती हैं । दोनों के समक्ष असली चुनौती सनातन धर्म और इसे धारण करने वाला ‘भारत राष्ट्र’ ही है । ऐसे में अब समझ सकते हैं कि कांग्रेस के ‘स्थायी नेता’ का उपरोक्त बयान वस्तुतः ईसाइयत व इस्लाम का ही छद्म पैगाम है जिसका उद्देश्य सनातन धर्मधारी भारत का विखण्डन है । इस अर्थ में आप देखें तो पाएंगे कि ‘पप्पू’ जितना मूर्ख है उससे अधिक ‘धूर्त्त’ है ।