लोकतंत्र का देवासुर-संग्राम ; अर्थात , सफेद आतंकियों के विरुद्ध भगवा संत का अभियान


नियति का परिवर्तन-चक्र अपनी रीति-नीति व गति से ऐसे चल रहा है ,
जैसे किसी अतिक्रमण-ग्रस्त इलाके में स्थित मकानों-दुकानों-भवनों को
ढाहते-रौंदते हुए कोई बुल्डोजर कहर बरपा रहा हो । महर्षि अरविन्द और
युग-ऋषि श्रीराम शर्मा के कथ्य बिल्कुल सत्य घटित हो रहे हैं । भारत फिर
से खडा हो रहा है, अनीति-अन्याय पर आधारित अवांछित स्थापनायें नीति-न्याय
की प्रखर-प्रज्ञा के जागरण से ध्वस्त हो रही हैं । देश-दुनिया के वैचारिक
वायुमण्डल में बदलाव की तरंगें तेजी से तरंगित हो रही हैं । रामकृष्ण
परमहंस के जन्म से १७५ साल बाद का संधिकाल समाप्त होने के साथ वर्ष-२०११
से ही परिवर्तन की यह प्रक्रिया अंधे को भी साफ दिखने लगी है । “सनातन
धर्म (हिन्दूत्व) ही भारत की राष्ट्रीयता है” यह सत्य अनायास ही प्रमाणित
होता जा रहा है और यह राष्ट्रीयता अंगडाई लेती हुई दिख रही है ।
धर्मनिरपेक्षता के नाम पर साम्प्रदायिक (मुस्लिम) तुष्टिकरण करते हुए
अनर्थ बरपाने वाली राजनीतिक शक्तियों और उनके चट्टे-बट्टे बुद्धिबाजों के
द्वारा अछूत घोषित कर जिस नरेन्द्र मोदी को राजनीति से ही मिटा देने के
बावत ‘भगवा आतंक’ जैसे षड्यंत्र क्रियान्वित कर
साधु-महात्माओं-साध्वी-संतों-योगियों-संयासियों तथा तमाम राष्ट्रवादी
संगठनों व उनसे सम्बद्ध लोगों को कठघरे में खडा किया जा रहा था, उन्हीं
नरेन्द्र मोदी के हाथों में देश की केन्द्रीय सत्ता की बागडोर आ जाने के
बाद से समस्त धर्मनिरपेक्षतावादियों की जमात शोक-संतप्त है । मोदी के
हाथों सत्ता गवां देने की शोकाकुलतावश ‘असहिष्णुता में वृद्धि’ व
‘अभिव्यक्ति पर पाबंदी’ का विलाप करती हुई यह जमात ‘सम्मान वापसी’ और
‘तरह-तरह की आजादी’ जैसे एक से एक प्रहसनों से दिल बहलाने में लगी हुई
थीं कि उसी बीच (सन २०१७ में) देश के उतर प्रदेश में उसी भगवाधारी
हिन्दूत्ववादी योगी का राज कायम हो गया, जिसे इन लोगों ने ‘भगवा आतंक’
नामक अपने षडयंत्र की परिधि में लाकर स्वयं का ‘सफेद आतंक’ बरपाया हुआ था । उस योगी ने अपने पारदर्शी व कडक शासन से राजनीति के उन खर-पतवारों को उखाड-उखाड कर फेंक डालने तथा समाजवादी राजनीतिक संरक्षण-प्राप्त
अपराधियों के विरुद्ध कडी कार्रवाई करते हुए प्रदेश में विधि-व्यवस्था
कायम करने और साम्प्रदायिक-अल्पसंख्यक तुष्टिकरण से दमित-पीडित बहुसंख्यक धार्मिक जनता के मौलिक अधिकारों को पुनर्बहाल करने के साथ-साथ
कोरोना-जनित हालातों से सफलतापूर्वक जुझते हुए भी समुचे प्रदेश की
सांस्कृतिक पहचान को पुनर्प्रतिष्ठित करने का ऐसा उल्लेखनीय काम कर
दिखाया कि ‘भगवा’ को ‘आतंक’ बताने वाले तमाम राजनीतिबाजों की चूलें हिलने लगी, तो उनके चेहरे भी एकबारगी बेनकाब हो कर धर्म-द्रोही व
राष्ट्र-द्रोही शक्ल में सबके सामने आ गए । फलतः पांच साल बीतते-बीतते वे
योगी जी जहां मजहबी तुष्टिकरणवादियों व उनसे पोषित-संरक्षित
अपराधियों-माफियाओं के लिए उनके काले कारनामों को ध्वस्त करने वाले
‘बुल्डोजर बाबा’ बन कर ख्याति अर्जित कर लिए , वहीं राष्ट्रवादी जनमानस व
धार्मिक बहुसंख्यक जनता के लिए जनाकांक्षाओं को उज्ज्वल आकार देने वाले
देव-तुल्य दिव्य नायक बन कर प्रशंसित होने लगे । इस दौरान प्रदेश के
राजनीतिक रंगमंच पर धर्मिक बहुसंख्यक जनता के पुनरुत्थानवाद व राष्ट्रवाद
को विस्तार देते रहने के कारण योगी के लोकप्रिय नेतृत्व में एक न एक दिन
देश की केन्द्रीय सत्ता आ जाने की सुगबुगाहट से और उसके विरुद्ध मजहबी
अल्पसंख्यक तुष्टिकरणवादी झण्डाबरदारों के तथाकथित समाजवाद व
धर्मनिरपेक्षतावाद की बौखलाहट से चुनावी राजनीति के दो-दो ध्रूव निर्मित
हो गये । ‘धार्मिक ध्रूव’ का नेतृत्व उस भगवाधारी के हाथ में है, जो
भारतीय सांस्कृतिक इतिहास को आध्यात्मिक ज्ञान से समृद्ध करने वाले महान
गुरु गोरखनाथ की अजस्र परम्परा के संवाहक योगी हैं ; तो ‘मजहबी ध्रूव’ का
नेतृत्व कभी अयोध्या में रामभक्तों पर गोलियां चलवाने वाले भूतपूर्व
मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव के परिवार की समाजवादी पार्टी के पूर्व
पुख्यमंत्री अखिलेश यादव कर रहे हैं, जो मजहबी तुष्टिकरण व जातीय विखण्डन
के सहारे सत्ता हासिल करने की हशरत पाले हुए हैं । परिणामतः इस बार के
चुनाव में प्रदेश की राजनीति के इस ध्रूविकरण से लोकतंत्र का यह चुनावी
समर देवासुर-संग्राम का रुप ले चुका है ; क्योंकि इसमें एक तरफ देश की
‘देव-संस्कृति’ व संस्कृति से निःसृत राष्ट्र एवं भारत राष्ट्र की
राष्ट्रीयता- सनातन धर्म को प्रतिष्ठित करने का व्रत लिए भगवाधारी संत
आदित्यनाथ योगी के नेतृत्व में राष्ट्रवादी राजनीति को राष्ट्रीय आयाम
देने वाले तमाम लोग सियासी शिखण्डियों के सफाये का अभियान चला रहे हैं ;
तो दूसरे तरफ तमाम
ढोंगी-पाखण्डी-अपराधी-बलात्कारी-मजहबी-आतंकी-जाली-प्रपंची कालनेमी
बहुरुपिये सब सफेद आवरण धारण कर अखिलेश यादव के नेतृत्व में सत्ता छीन
लेने के बावत एक से एक धर्मनिरपेक्ष करतब दिखा रहे हैं । योगी से सत्ता
छीन लेने को उद्धत इस पक्ष के नेता-नियंता कल तक राम-जन्मभूमि पर राम
मन्दिर बनाये जाने का विरोध करते रहे थे, तो अब कोर्ट के आदेशानुसार
मन्दिर बनाये जाने के बावजूद वहां पुनः मस्जीद बनाये जाने की वकालत कर
रहे हैं ; हज हाउसों के निर्माण पर सरकारी खजाने से अरबों रुपये बहाते
लुटाते रहे थे, तो मन्दिरों में पूजा आरती पर प्रतिबंध लगाते रहे थे;
स्वयं जालीदार टोपियां पहन कर मजहबियों के साथ ईद का इफ्तार आयोजित करते रहे थे, तो धार्मिक लोगों को होली का उत्सव मनाने से बलात रोकते रहे ;
बहुसंख्यक समाज की बेटियों-स्त्रियों का बलात्कार करने वाले
मजहबियों-जेहादियों को राजनीतिक संरक्षण देते रहे थे , तो वसूली उद्योग
चलाने वाले अपराधियों के समक्ष पुलिस अधिकारियों को घुटनों के बल समर्पण
कराते रहे थे ।
उल्लेखनीय है कि देश के सबसे बडे प्रांत- उतर प्रदेश में
धर्मनिरपेक्षता की नयी-नयी परिभाषायें रचते-गढते रहने वाले मुलायम सिंह
यादव और उनके पुत्र अखिलेश यादव ने सरकार बनने के बाद दोनों पिता-पुत्र
लखनऊ, वाराणसी, फैजाबाद, बाराबंकी आदि शहरों में दिन-दहाडे कचहरी परिसर
में बम-विस्फोट करने वाले आतंकियों को ‘निर्दोष मुसलमान’ कह कर उनकी
रिहाई के लिए प्रशासन को फरमान जारी करते हुए सम्बन्धित न्यायालयों में
अर्जियां दाखिल कर-करा दिए थे । प्रतिबंधित इस्लामी संगठन- ‘हुजी’ का एक
आतंकी जब स्वाभाविक हृदयाघात के कारण मर गया तब उसके परिजनों को सरकारी खजाने से पच्चीस लाख रुपये की अनुग्रह राशि प्रदान कर मुस्लिम-तुष्टिकरण
के लिए पुलिस के तत्कालीन डी०जी०पी० सहित सात पुलिसकर्मियों को बेवजह
निलम्बित कर रामपुर केन्द्रीय रिजर्ब पुलिस बल पर हमला करने वाले
आतंकियों पर से मुकदमें वापस लेने के बावत एडी-चोटि एक कर दी थी इन
बाप-बेटों ने । तब अदालत के एक न्यायाधीश ने उनकी ऐसी करतूतों पर बडी
तल्ख टिप्पणी की थी- “मुकदमा-वापसी के बाद आतंकियों को ‘पद्मश्री’ मिलेगा
क्या” ? ‘सिमी’ से सम्बद्ध आतंकी- शाहिद बद्र के विरूद्ध बहराइच न्यायालय
में चल रहे देश-द्रोह के मुकदमें को वापस लेने तथा नदुआ मदरसा से अबू बकर
नामक आतंकी को गिरफ्तार करने वाले पुलिसकर्मियों को भी निलम्बन की सूली
पर चढा कर आतंक-रोधी ‘टाडा’ कानून को समाप्त कराने के लिए विधानसभा से
संसद तक अभियान चलाने वाले मुलायम-अखिलेश के ऐसे-ऐसे काम ही पिछले चुनाव में सिर चढ कर बोल रहे थे । जाहिर है, सत्ता हासिल कर लेने के बाद वे
पुनः वैसा ही करेंगे क्योंकि उनके साथ वे ही लोग हैं ।
धर्मनिरेपेक्षता के नाम पर सम्प्रदाय विशेष (मुसलमान) का
तुष्टिकरण करते हुए सपाई मुलायम-अखिलेश ने पूरे प्रदेश की शासन-व्यवस्था
का ऐसा हाल कर रखा था कि वहां का बहुसंख्यक समाज घुटन महसूस कर रहा था । मंदिरों पर से लाउडस्पिकर उतरवा देने एवं मस्जिदों-मदरसों में तमाम तरह
की अनावश्यक सुविधाओं की भी झडी लगा देने तथा कब्रिस्तानों के लिए सरकारी
खजाने से पानी की तरह पैसे बहाते रहने और मुस्लिम आतंकियों-अपराधियों को
सरकारी संरक्षण देने, किन्तु हिन्दुओं के मौलिक अधिकारों का भी हनन करते
रहने वाली समाजवादी धर्मनिरपेक्षता वास्तव में एक तरह का ‘सफेद आतंक’ ही
था, जो तब सत्ता-परिवर्तन का असली कारण बना था । नाम से समाजवादी,
किन्तु काम से ‘नमाजवादी’ पार्टी के अखिलेश-मुलायम यादव हों अथवा बसपा की मायावती, सब के सब साम्प्रदायिक तुष्टिकरणवादी धर्मनिरपेक्षता की
अपनी-अपनी ऐसी-तैसी दुकानें ऐसे ही चलाते रहे थे । जाहिर है, उनकी ये
सियासी दुकानें राष्ट्रीय एकता-अस्मिता-सम्प्रभुता का अतिक्रमण करने एवं
अनीति-अन्याय पर आधारित होने की वजह से राष्ट्रीयता की अंगडाइयों के
निशाने पर आ गईं , तो नियति के परिवर्तन-चक्र का मुकाबला नहीं कर सकीं और
भरभरा कर धराशायी हो गईं , जिन्हें पुनः सजाने-संवारने की मशक्कत करने
में लगे हुए हैं ये लोग ।
खुद ‘सफेद आतंक’ बरपाते रहे इन समाजवादियों-कांग्रेसियों
द्वारा मुस्लिम-वोटबैंक पर अपनी पकड बनाये रखने के लिए साम्प्रदायिक
तुष्टिकरण-आधारित विभेदकारी शासन से बहुसंख्यक समाज में उत्त्पन्न जिस
असंतोष-अक्रोश ने योगी आदित्यनाथ के हिन्दूत्ववादी तेवर को धार देने और
पूरे प्रदेश में उसे चमकाने का काम किया वह आज भी याद है लोगों को । इस
बार भी मीडिया के चुनावी विश्लेषकों और राजनीति के विशेषज्ञों की बिकी
हुई दृष्टि अपने-अपने आकाओं की उपरोक्त विभेदकारी दुर्नीति के बचाव में
चाहे जो भी कुतर्क प्रस्तुत करें , किन्तु सच यही है कि महर्षि अरविन्द-प्रणीत भारतीय राष्ट्रीयता का प्रतीक- हिन्दूत्व के जाग जाने पर युग-ऋषि श्रीराम-विरचित ‘प्रखर प्रज्ञा’ की ‘भगवा-धार’ से अब उन अवांछित-अनैतिक-साम्प्रदायिक तुष्टिकरणवादिता का सिर कलम होता ही रहेगा, क्योंकि हर देवासुर संग्राम का यही अंजाम होता रहा है और भारत का पुनरुत्थान व ‘अभारतीय’ राजनीति का अवसान एक दैवीय अभियान है ।
• मनोज ज्वाला ; फरवरी २०२२