महात्मा गांधी की हत्या का मामला और अंग्रेजी-कांग्रेसी दाल में काला


महात्मा गांधी की हत्या के लिये रामचंद्र विनायक गोड्से उर्फ
नत्थुराम गोड्से को 500 रुपये में 20 बारुदी गोलियों के साथ एक नया
‘बैरेटा पिस्टल’ उपलब्ध करानेवाले होम्योपैथिक चिकित्सक- डॉ० जगदीश
प्रसाद गोयल उर्फ दत्तात्रेय परचुरे के विरुद्ध आज तक कोई कार्रवाई नहीं
होने तथा गोली लगने के बाद गांधी जी को अस्पताल न ले जाकर बिडला भवन में
रखे रहने और मरणोपरांत उनके शव का पोस्टमार्टम नहीं कराये जाने से उस
मामले की जांच पर विश्वसनीयता के सवाल आज भी खडे प्रतीत हो रहे हैं ।
हालाकि इस मामले की अदालती प्रक्रिया का पटाक्षेप दशकों पूर्व ही किया
जा चुका है । हत्या के दोषी नत्थूराम गोड्से के साथ उस के परोक्ष साझेदार
नारायण आप्टे और विष्णु करकरे को फांसी तथा तीन अन्य को षड्यंत्र में
सहयोग का दोषी सिद्ध करते हुये आजीवन कारावास की सजा दी जा चुकी है ।
किन्तु , उस हत्याकांड से जुडे कई ऐसे पहलुओं की तो जांच ही नहीं की गई
अथवा जांच होने ही नहीं दी गई, जिनसे उस दौर के कुछ विशिष्ट लोग भी दोषी
सिद्ध हो सकते थे । इससे कांग्रेस की ही ‘दाल में कुछ काला’ प्रतीत होता
है , क्योंकि तब देश की हुकूमत कांग्रेस के हाथ में ही थी और अगले
पांच-छह दशकों तक भी कांग्रेस ही सत्तासीन रही ।
मालूम हो कि महात्मा गांधी की हत्या के षड्यंत्र की जानकारी
न केवल तत्कालीन कांग्रेसी सरकार को थी, बल्कि कांग्रेस के तमाम बडे
नेताओं सहित प्रशासन के कई बडे अधिकारियों को भी यह मालूम था कि गांधीजी
कतिपय प्रतिक्रियावादियों के हिंसक निशाने पर हैं । तब भी महात्माजी की
सुरक्षा के प्रति सरकारी अमला की उदासीनता से कई ऐसे संदेह उत्पन्न होते
हैं जिन पर आप गौर करेंगे तो उक्त षड्यंत्र. मे सहयोग के दोषियों की
संख्या बढ सकती है । न केवल संख्या बढ सकती है , बल्कि उस फेहरिस्त में
दो ऐसे नाम भी जुड सकते हैं , जो भारत और इंग्लैण्ड दोनों देशों में अति
विशिष्ट नाम हैं ।
उल्लेखनीय है कि हत्या की तारिख से दस दिन पहले 20 जनवरी
1948 को भी गांधीजी को मार डालने के लिये दिल्ली स्थित बिड्ला भवन के
उनके प्रार्थना-स्थल के निकट एक बम फटा था , जिससे गांधीजी बाल-बाल बच
गये थे, जबकि बम रखनेवाला मदनलाल पाहवा नामक शरणर्थी पुलिस के हाथों
गिरफ्तार कर लिया गया था । पाहवा ने तो महात्माजी को मार डालने हेतु
सक्रिय उसके साथियों के षड्यंत्र का खुलासा भी पुलिस के समक्ष कर दिया था
। उन षड्यंत्रकारियों के जो नाम पाहवा ने पुलिस को बताये थे , उनमें से
प्रत्येक को दिल्ली-बम्बई-पूणे की पुलिस जानती थी और उन्हीं लोगों ने बाद
में गांधी-हत्या को अंजाम भी दिया । किन्तु , जिन लोगों को महात्माजी की
हत्या के षड्यंत्र की पूर्व-जानकारी मिल चुकी थी और जो लोग उक्त षड्यंत्र
को नाकाम कर देने में सक्षम थे , उनने देश-विभाजन-जनित खतरनाक खूनी
हालातों से जूझ रहे महात्मा को पर्याप्त सुरक्षा उपलब्ध कराने की दिशा
में कोई पहल की ही नहीं । और तो और , बिडला भवन परिसर में उनकी सुरक्षा
के लिये पहले से तैनात पुलिस के मुख्य अधिकारी को भी 30 जनवरी के दिन
किसी प्रशासनिक बैठक में भेज वहां से हटा दिया गया था । बावजूद इसके,
महात्माजी की हत्या के बाद उक्त षडयंत्र के इन तमाम जानकारों को जांच की
परिधि से बाहर और संदेह के दायरे से दूर ही रखा गया ।
उल्लेखनीय है कि गांधी-हत्याकाण्ड में हिन्दू-महासभा के नेता
विनायक दामोदर सावरकर को तो गांधी का प्रबल विरोधी होने और गोडसे आदि से सम्बन्ध-सरोकार रखने के आधार पर जांच-अधिकारियों ने आरोपित कर दिया था , किन्तु यह खास गौरतलब है कि गांधी के विरोधी तो उनसे सम्बद्ध कई दूसरे
प्रभावशाली लोग भी थे, जो प्रामाणिक तौर पर षड्यंत्र की जानकारी रखने और
शासन-सत्ता से जुडे होने के कारण उसे विफल भी कर सकते थे । मगर उन लोगों
की ओर तनिक संदेह भी नहीं किया गया । गांधीजी की तत्कालीन रीति-नीति एवं
योजना से कांग्रेस के सबसे बडे नेता ही उनके प्रबल विरोधी बन गये थे ।
महात्मा के ‘महात्म’ के सहारे सत्ता के शीर्ष पर पहुंचे
वे ‘स्वनामधन्य नेता’ महात्माजी को किस कदर अप्रासांगिक समझने लगे थे ,
यह जानने के लिये सिर्फ एक ही उदाहरण पर्याप्त है.- देश की आजादी जब
सुनिश्चित हो गयी थी, तब महात्माजी ने कांग्रेस के तत्कालीन अध्यक्ष व
देश के अंतरीम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु को पत्र लिखा था, स्वतंत्र
भारत की शासन-व्यवस्था का स्वरुप निर्धारित करने के लिए । उन्होंने
इच्छा व्यक्त की थी कि आजादी के बाद देश में भारत की जरुरत के अनुसार
उनके सपनो का “हिन्द-स्वराज” स्थापित किया जाए.। किन्तु लम्बे समय तक चले
ततविषयक पत्र-व्यवहार के दौरान नेहरुजी ने अंततः उन्हें बडी बेरूखी से
झिड्क दिया कि हम भारत में लोकतांत्रिक-समाजवाद की स्थापना करेंगे और “
हिन्द-स्वराज” जैसी फालतू बातों पर चर्चा के लिये तो न उनके पास समय है,
न कांग्रेस के पास । तब गांधीजी निरूत्तर हो कर बहुत व्यथित हुए गए थे ।
पुनः आजादी के बाद मंत्रिमंडल में शामिल कांगेसी नेताओं के भ्रष्टाचरण पर
क्षोभ जताते हुए महात्माजी ने उसी व्यथावश जब यह सिफारिश कर दी कि “ देश
को आजादी दिलाने का उद्देश्य पूरा हो गया , अतः अब कांग्रेस का एक
राजनीतिक-संगठन के रुप में काम करना उचित नहीं है , क्योंकि देश में
हरिजनोद्धार व ग्रामीण-पुनर्निंर्माण के अनेक महत्वपूर्ण काम करने को पडे
हुए हैं , इसलिए कांग्रेस को भंग कर उसे ‘लोकसेवक संघ’ बना दिया जाये ,
तो कांग्रेस-अध्यक्ष नेहरुजी ने उस पर तीव्र नाराजगी जताते हुए साफ इंकार
कर दिया था । तब भी महात्मा जी अपने स्तर से कांग्रेस के विसर्जन की
घोषणा 30 जनवरी को अपनी प्रार्थना-सभा में करने की योजना बना चुके थे ,
जिसकी जानकारी नेहरु को मिल चुकी थी ।
नेहरुजी के उक्त ‘इंकार’ के बाद से से महात्माजी नेहरु और
कांग्रेस के क्रिया-कलापों से न केवल क्षुब्ध रहने लगे थे , बल्कि सत्ता
मिलते ही कांग्रेस की कार्य-संस्कृति में घुस आये भ्रष्टाचार की
सार्वजनिक मुखालफत भी करने लगे थे । इतना ही नहीं , बल्कि वे कुछ समय
पहले से ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्पृश्यता-रहित समाज-निर्माण के
कार्यों से प्रभावित हो उसकी ओर झुकाव भी रखने लगे थे । 25 दिसम्बर 1934
को वे वर्धा में आयोजित संघ के एक प्रशिक्षण शिविर में और 16 सितम्बर
1947 को दिल्ली की भंगी बस्ती में लगी संघ-शाखा पर जाकर उसकी कार्य-शैली
की प्रशंसा ही नहीं किए थे , बल्कि स्वयंसेवकों के साथ भगवा-ध्वज को
प्रणाम कर उसकी वंदना भी कर चुके थे । ऐसे हालातों में आप समझ सकते हैं
कि महात्मा जी के जीवन के प्रति कौन लोग उदासीन थे ? जिस संगठन को वे भंग
कर देने की सिफारिश कर दिये थे उसके नेता ? या जिस
हिन्दुत्वनिष्ठ-संघ-संगठन की ओर उनका झुकाव होने लगा था, उस हिन्दुत्व के
सावरकर नामक प्रखर प्रवक्ता ?
बावजूद इसके , महात्माजी के जीते-जी उनकी नीतियों की हत्या
करनेवालों ने उनकी शरीर-हत्या हो जाने पर खुद को उनका उतराधिकारी-भक्त
प्रदर्शित करने तथा राजनीतिक लाभ लेने के लिए शासनिक शक्ति के सहारे
विभाजन-जनित हिन्दू-मुस्लिम-विद्वेष के उस दौर में उनकी हत्या के मामले
में सावरकर और संघ का नाम आरोपित करवा दिया । सावरकर को जेल में डलवा
दिया और संघ पर प्रतिबन्ध लगवा दिया । हांलाकि न्यायालय ने सावरकर को
निष्कलंक आरोप-मुक्त कर दिया और संघ को भी प्रतिबन्ध से मुक्त कर दिया ,
किन्तु दोनों के विरुद्ध जो दुष्प्रचार किया गया, उसका राजनीतिक लाभ तो
कांग्रेस आज तक ले ही रही है । “सफेद-आतंक ; ह्यूम से माईनो तक” नामक
मेरी पुस्तक में इस मुद्दे पर व्यापक बहस-विमर्श हुआ है । परिस्थिति-जन्य
साक्ष्य बताते हैं कि कांग्रेस का सत्ता-लोलुप शीर्ष नेतृत्व और उसके
हाथों सत्ता हस्तांतरित करने वाले ब्रिटिश वायसराय, दोनों को महात्माजी
उन दिनों दो कारणों से चूभ रहे थे । एक को कांग्रेस भंग कर देने की उनकी
योजना के कारण , तो दूसरे को देश-विभाजन की रेखा मिटा देने की उनकी
तैयारी के कारण ।
मालूम हो कि महात्माजी देश-विभाजन से उत्पन्न हिंसक-उन्मादी
हालातों की वजह इस कदर मर्माहत थे कि वे विभाजन-रेखा मिटा देने के लिए एक
विशाल जुलूस लेकर पाकिस्तान जाने तथा वहां कुछ दिन रहने और फिर लम्बे
जुलूस के साथ भारत वापस आने की एक गुप्त योजना के क्रियान्वयन की तैयारी
कर चुके थे । उनकी इस योजना का संक्षिप्त खुलासा ‘लॉपियर एण्ड कॉलिन्स’
की पुस्तक ‘फ्रीडम ऐट मिडनाइट’ में हुआ है , जिसके अनुसार अगर वे सफल हो
जाते तो विभाजन मिट सकता था । ऐसी परिस्थितियों में कदाचित लार्ड माऊण्ट
बैटन और नेहरू दोनों ही महात्मा को भारत के राजनीतिक क्षितिज से दूर कर
देने की जुग्गत में रहे हों , जिन्हें नत्थूराम गोडसे की योजना का पता
चला तो वे अप्रत्यक्ष रूप से उसे सफल हो जाने की तमाम अनुकूलतायें उपलब्ध
करा दिए हों ; इस सम्भावना से इंकार नहीं किया जा सकता है ।
महात्माजी के अस्तित्व , व्यक्तित्व और कर्त्तृत्व से हैरान-परेशान
एक तीसरी शक्ति भी ऐसी थी, जो उन दोनों को नियंत्रित करती थी । वह थी-
ईसाई-विस्तारवाद के खतरनाक वैश्विक संजाल से जुडी चर्च-मिशनरियां, जिनकी
धर्मान्तरणकारी गतिविधियों के बावत गांधीजी उन्हें हमेशा बेनकाब करते
रहते थे ।
महात्माजी अपनी प्रखर विवेचनाओं से ईसाइयत को तार-तार करते
हुए ईसा मसीह को ‘ईश्वर का इकलौता पुत्र’ मानने से इंकार कर धर्मान्तरण
को मानवता के विरूद्ध जघन्य अपराध घोषित करने एवं उसे कानूनन बन्द करने
की वकालत करते रहते थे । वे प्रायः कहा करते थे- “ईसाई-मिशनरियां जिस तरह
से धर्मान्तरण का काम कर रही हैं, उस तरह के काम का कोई भी अवसर उन्हें
स्वतंत्र भारत में नहीं दिया जाएगा” । महात्माजी तो चर्च का धंधा ही
समाप्त कर देने पर तुले हुए थे । यह इससे भी स्पष्ट होता है कि समाज के
जिन अछूतों-वंचितों के बीच मिशनरियां सक्रिय थीं, उन्हीं के बीच उनके
उद्धार का काम करने के निमित्त महात्मा जी कांग्रेस को भंग करने और उसे
‘लोक सेवक संघ’ बनाने की तैयारी में लगे थे । अगर ऐसा हो जाता, जो उनके
जीवित रहने पर कदाचित सम्भव था, तो फिर मिशनरियां कहां रहतीं, किसका
धर्मान्तरण करती ? ऐसे में आप समझ सकते हैं कि ईसाई-चर्च-मिशनरियों से
महात्माजी का कितना विरोध-वैर था; जबकि माऊण्ट बैटन की पत्नी एडविना तो
चर्च-मिशनरियों की सक्रिय संरक्षक ही थी, जिस पर नेहरु किस कदर लहालोट
रहा करते थे सो जगजाहिर हो ही चुका है । महात्माजी की हत्या के मामले
की जांच में इस तथ्य पर भी गौर किया ही जाना चाहिए था, जो नहीं किया गया
कि उनका शत्रु आखिर कौन था और किस विचार-मिशन-संगठन से उनका प्रबल
विरोध-वैर था ? । राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से उनका कोई विरोध नहीं था,
बल्कि वे तो उन दिनों संघ के निकट होते जा रहे थे । संघ की मुख्य
विचारधारा-‘हिन्दूत्व’ के तो वे प्रशंसक ही थे, तभी तो उन्होंने कहा है-
“मेरी दृष्टि में हिन्दूत्व, सत्य व धर्म– ये तीनों परस्पर एक दूसरे के
स्थान पर रखे जा सकने योग्य हैं । …..हिन्दूत्व सर्वव्यापी है ,
सर्वसमावेशी है । विश्व में जहां कहीं, जो कुछ भी धर्म का रुप होगा, वह
समस्त धर्म-रुप हिन्दू धर्म में भी विद्यमान है और जो धर्म-रुप हिन्दूत्व
में हो ही नहीं, वह विश्व में कहीं नहीं हो सकता ” –(सम्पूर्ण गांधी
वाङ्ग्मय, खण्ड- 56) नत्थू राम गोड्से ने भारत-विभाजन के जिन हालातों से
उत्तेजित हो कर महात्माजी की हत्या की थी, वे हालात हत्या के तात्कालिक
कारण हो सकते हैं, किन्तु यह भी ध्यातव्य है कि उनकी हत्या की कोशिशें सन
1934 से ही हो रही थीं (पुणे में उनकी कार के आगे बम फटा था), जब कायदे
से पाकिस्तान की मांग ही नहीं उठी थी , नेहरू-गांधी के बीच कोई खट-पट भी
नहीं थी । तो आखिर कौन लोग उनकी हत्या के लिए तब से सक्रिय थे ? इस
यक्ष-प्रश्न का भी उतर खोजा ही जाना चाहिए । किन्तु इन सब कोणों से उस
मामले की जांच निष्पक्ष हुई ही नहीं और जांच-प्रक्रिया को राजनीतिक लाभ के लिए पक्षपातपूर्ण तरीके से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की ओर घुमा कर दिग्भ्रमित कर दिया गया ।