अपने ही ‘राष्ट्रीय युवा’ का अपमान करता भारतीय संविधान
स्वामी विवेकानंद के जन्म-दिन को भारत सरकार ने ‘राष्ट्रीय युवा
दिवस’ घोषित कर रखा है, तो इसका अर्थ यही है कि स्वामी जी का
आदर्श-चिन्तन ही भारतीय युवाओं के लिए अनुकरणीय आदर्श है और शासन की
युवा-नीति का आधार भी यही होना चाहिए । ऐसे में यह जानना अपरिहार्य हो
जाता है कि तब स्वामी जी का आदर्श-चिन्तन आखिर क्या है ? ध्यातव्य है कि
स्वामीजी ने भारत और शेष दुनिया के राष्ट्रों में एक खास अंतर निरूपित
किया हुआ है । यह अन्तर ही भारत राष्ट्र की मौलिकता है और इसी कारण से
इसका अस्तित्व कायम है, यह राष्ट्र शाश्वत है । इस अंतर की आधारशिला है-
धार्मिकता और आध्यामिकता ।
स्वामी जी के शब्दों में “ भारतवर्ष में धर्म-अध्यात्म ही राष्ट्र
के हृदय का मर्म है, यही भारतीय राष्ट्रीय जीवन का मूल है । इसे राष्ट्र
की रीढ़ कह लो अथवा नींव समझो, इसी के ऊपर राष्ट्र की ईमारत खड़ी है ।
जबकि, दुनिया के शेष राष्ट्रों में से कोई भी राष्ट्र ऐसा नहीं है जो
धर्म की आधारशिला पर खडा हो । शेष राष्ट्रों में राजनीति और भौतिकता की
प्रधानता है, तो भारत में धर्मनीति और आध्यात्मिकता की प्रमुखता । चूंकि
जीवन-संग्राम में भौतिकता लंबे समय तक टिक नहीं सकती, जबकि आध्यात्मिकता चिरस्थायी है ; इसी कारण से भारत राष्ट्र शाश्वत है और यह शाश्वतता ही इसकी पहचान है । इतिहास इस बात की गवाही दे रहा है कि प्रायः प्रत्येक सदी में नये-नये राष्ट्रों का उत्थान-पतन होता रहा है । वे पैदा होते
हैं, कुछ समय तक खुराफात करते हैं और उसके बाद समाप्त हो जाते हैं ।
परन्तु भारत राष्ट्र अनेकानेक खतरों तथा उथल-पुथल की कठिनतम समस्याओं से
जूझते हुए भी टिका हुआ है, तो इसका कारण है वैराग्य-त्यागयुक्त हमारी
धार्मिकता-आध्यात्मिकता । हमारे राष्ट्र का आधार धर्म है और धर्म का आधार
त्याग है । इसके विपरीत यूरोप-अमेरिका एक दूसरी ही समस्या सुलझाने में
लगे हुए हैं । उन राष्ट्रों की समस्या है- येन-केन प्रकारेण धन व बल
अर्जित करने की अपाधापी । इसके लिए क्रूर, निर्दयी, हृदयहीन
प्रतिद्वंद्विता ही यूरोप-अमेरिका का नियम है ।” स्वामीजी कहते हैं कि
“राजनीति एवं इस प्रकार की अन्य बातें भारतीय जीवन के अत्यावश्यक विषय
कभी रहे ही नहीं हैं । परन्तु धर्म एवं आध्यात्मिकता ही यहां ऐसा मुख्य
आधार रहा है, जिस पर भारतीय जीवन टिका रहा है, भविष्य में भी उसे इसी पर
टिके रहना है । अन्य राष्ट्रों के लिए धर्म, संसार के अनेक कृत्यों में
से एक धंधा मात्र है । वहाँ राजनीति है, सामाजिक जीवन की सुख-सुविधायें
हैं, धन व प्रभुत्व द्वारा जो कुछ प्राप्त हो सकता है तथा इंद्रियों को
जिससे सुख मिलता है, उन सब को पाने की चेष्टा भी है और इन सब विभिन्न
जीवन-चर्याओं के भीतर भोग से निस्तेज इंद्रियों को पुनः उतेजित करने के
उपकरणों की समस्त खोज के साथ वहाँ संभवतः थोड़ा बहुत धर्म-कर्म भी है ।
परन्तु, भारतवर्ष में मनुष्य की सारी चेष्टायें धर्म के लिए ही होती रही
हैं- धर्म ही यहां के जीवन का मूल है ।”
स्वामीजी ने कहा था कि “अमेरिका और इंग्लैंड में बिना यह बताये कि
वेदान्त के द्वारा कौन-कौन से आश्चर्यजनक राजनीतिक परिवर्तन हो सकेंगे,
मैं धर्म-प्रचार नहीं कर सका । क्योंकि अंग्रेज लोग राजनीति के माध्यम से
ही धर्म को समझ सकते हैं, जबकि अमेरिकन लोग भी राजनीतिक-सामाजिक सुधार के माध्यम से ही धर्म को जान सकते हैं । किन्तु भारत में तो लोग राजनीति और समाज-सुधार को भी धर्म के माध्यम से ही समझ सकते हैं ।” आगे वे कहते हैं
कि “भारत में किसी तरह के सुधार या उन्नति की चेष्टा करने से पहले धर्म
का विस्तार आवश्यक है । इसके लिए वे कहते हैं कि “सर्वप्रथम हमारे
उपनिषदों, पुराणों और अन्य शास्त्रों में जो अपूर्व सत्य छिपे हुए हैं
उन्हें मठों की चहारदीवारियों को भेद कर, वनों की शून्यता से दूर लाकर
सर्वत्र बिखेर देना होगा, ताकि वे सत्य सारे देश को चारों ओर से लपेट
लें, उत्तर से दक्षिण और पूरब से पश्चिम तक सब जगह फैल जाएं और हिमालय से
कन्याकुमारी व सिन्धु से ब्रहमपुत्र तक सर्वत्र धधक उठे ।”
विवेकानन्द जी कहते हैं- “जिस प्रकार से जीवन जीने के लिए
प्रत्येक व्यक्ति को अपना मार्ग चुन लेना पडता है, उसी प्रकार से
प्रत्येक राष्ट्र को भी अपना अस्तित्व बनाये रखने के लिए पथ का निर्धारण
कर लेना पडता है । हमने युगों पूर्व ही अपना पथ निर्धारित कर लिया था और
अब उसी पथ पर हमें चलते रहना चाहिए जिसका नाम है ‘वेदान्त-पथ’ । जाओ-जाओ उस प्राचीन समय के उन भावों को लाओ जब हमारे शरीर में वीर्य व जीवन था । तुम फिर से वीर्यवान बनों और उसी प्राचीन झरने का पानी पीओ । भारत को
पुनर्जीवित करने का यही एक उपाय है ।” स्पष्ट है कि स्वामीजी भारतीय
तरीके से ही भारत राष्ट्र की पुनर्रचना चाहते थे और आधुनिक रंगमंच पर
प्राचीन भारत की स्थापना ही उनका सपना सपना था । उस प्राचीन भारत की
आधुनिक रचना था उनका सपना जिस राष्ट्र के प्रत्येक व्यक्ति का ध्येय होता
था- ब्राह्मण बनना, ऋषि-पद पाना और मोक्ष को प्राप्त करना । स्वानीजी का
स्पष्ट कथन है कि भारत में ब्रह्मण्त्व ही मनुष्यत्व का चरम आदर्श रहा है
। इसलिए ऊंची से ऊंची जाति से ले कर निम्न से निम्न जाति तक के सभी लोगों
को ‘ब्राह्मण’ अर्थात सर्वगुण्सम्पन्न-सर्वसमर्थशाली किन्तु
सर्वस्व-त्यागी बनना होगा । तभी तो वे देशवासियों को ललकारते हुए यह कहते
हैं कि “ऐ भारत ! तुम भूलना मत कि तुम्हारी स्त्रियों का आदर्श सीता,
सावित्री व दमयंती है .... मत भूलना तुम कि तुम्हारे उपास्य सर्वत्यागी
उमानाथ शंकर हैं ...तुम भूलना मत कि तुम्हारा विवाह, धन व जीवन
इंद्रिय-सुख के लिए या अपने व्यक्तिगत सुख के लिए नहीं है ....तुम यह मत
भूलना की तुम जन्म से ही भारतमाता के लिए बलि स्वरूप रखे गये हो ....तुम
मत भूलना कि तुम्हारा समाज उस विराट महामाया की छायामात्र है । हे वीर !
साहस का आश्रय लो । गर्व से कहो कि मैं भारतवासी हूँ और प्रत्येक
भारतवासी मेरा भाई है । भारत का समाज मेरे बचपन का झूला है, जवानी की
फुलवारी है और मेरे बुढ़ापे की काशी है । ...भाई ! बोलो कि भारत की मिट्टी
मेरा स्वर्ग है, भारत के कल्याण से ही मेरा कल्याण है और रात-दिन कहते
रहो- हे गौरीनाथ ! हे जगदम्बे ! मेरी दुर्बलता व कापुरूषता दूर कर दो !”
भारत के पुनरुत्थान हेतु स्वामी जी प्राथमिकता के तौर पर ऐसी
शिक्षा प्रणाली की सिफारिश करते हैं जो हमारे बच्चों-छात्रों को भारत की
ऋषि-संस्कृति का बोध कराये, जिसके लिए जरूरी है संस्कृत की शिक्षा ।
स्वामी जी उद्घोष करते हैं- “जनता को उसकी बोलचाल की भाषा में शिक्षा दो,
वह बहुत कुछ जान जायेगी । साथ ही कुछ और भी जरूरी है- उसे भारतीय
संस्कृति का बोध कराओ । इसके लिए जरूरी है संस्कृत की शिक्षा । क्योंकि
संस्कृत शब्दों की ध्वनि मात्र से एक प्रकार का गौरव, शक्ति एवं बल का
संचार होता है ।” वे कहते हैं कि “राष्ट्रीय रीति से राष्ट्रीय
सिद्धांतों के आधार पर संस्कृत शिक्षा का विस्तार करें तथा संसार के सभी
राष्ट्र में प्राचीन भारतीय शास्त्रों के सत्य का प्रचार ही हमारे
राष्ट्र की वैदेशिक नीति का आधार हो ।” इतना ही नहीं, आगे वे यह भी कहते
हैं- “प्राचीन भारत की वर्ण-व्यवस्था एक ऐसी शाश्वत समाज-व्यवस्था है, जो
परस्पर विषमता और वैमनस्यता का नहीं, बल्कि व्यक्ति के क्रमिक विकास और
मोक्ष-प्राप्ति का साधन है, जिसे वास्तविक रुप में लागू करने के लिए यह
जरुरी है कि भारत का जन-जन संस्कृत का विद्वान हो ।”
ऐसे में अब यह विचारणीय है कि भारत का राष्ट्रीय युवा जब यह कहता
है कि धर्म ही हमारे राष्ट्र का मूलाधार है, तब हमारी शासन-व्यवस्था को
नियंत्रित-निर्देशित करने वाले संविधान में संशोधन कर ‘धर्मनिरपेक्षता’
का जो प्रावधान किया गया है, सो कितना उचित है ? भारत के मूल संविधान में
‘धर्मनिर्पेक्षता’ का कहीं कोई उल्लेख नहीं है, तो उसे ‘संविधान-निर्मताओं की भूल नहीं कहा जा सकता, अपितु वह तो स्वामीजी के इसी ‘राष्ट्र-चिन्तन’ का उदबोधन था । लेकिन इन्दिरा कांग्रेस की सरकार ने लोकतंत्र का गला दबा कर संविधान में ‘धर्मनिर्पेक्षता’ क प्रावधान जबरिया घुसा दिया । फलतः सरकार द्वारा स्वामीजी के बताए मार्ग पर चलने का हर साल संकल्प तो दुहराये जाते रहे हैं किन्तु , धर्मनिरपेक्षता के एक से एक दुष्कीर्तिमान स्थापित करते हुए देश की युवा-पीढियों को वेदों-पुराणों-उपनिषदों के ज्ञान-विज्ञान से विमुख रख संस्कृत-शिक्षा से
भी दूर कर दिया गया । स्वयं की प्रेरणा से अगर कोई युवक संस्कृत-शिक्षा
ग्रहण भी करता है तो उसकी ततसम्बन्धी शैक्षणिक उपाधियों को ‘रद्दी’ करार
दे दिया जा रहा है । यह तो राष्ट्रीय युवा का अपमान है ।
• मनोज ज्वाला ; जनवरी’ २०२२
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