एक अनुचित सैन्य फरमान से 'राष्ट्रीय युवा' का अपमान


स्वामी विवेकानंद के जन्म-दिन को भारत सरकार ने ‘राष्ट्रीय युवा दिवस’
घोषित कर रखा है, तो इसका अर्थ यही है कि स्वामी जी का आदर्श-चिन्तन ही
भारतीय युवाओं के लिए अनुकरणीय आदर्श है और शासन की युवा-नीति का आधार भी यही होना चाहिए । किन्तु राष्ट्रीय युवा दिवस पर स्वामी विवेकानन्द को
स्मरण करने से पहले भारतीय सेना के मुख्यालय से जारी उस फरमान का उल्लेख
अवश्यक प्रतीत हो रहा है, जिससे आज अपने देश का युवा मन बहुत व्यथित है ।
खबर है कि सैन्य मुख्यालय ने सेना में ‘धर्म-गुरु’ पद की नौकरी हेतु
संस्कृत-शिक्षा की ‘शास्त्री’ उपाधि (जो अंग्रेजी-शिक्षा की बी०ए० डिग्री
के समकक्ष है) को अमान्य कर दिया है, जबकि ‘मदरसा’ द्वारा जारी
ततसम्बन्धी समकक्ष डिग्री की मान्यता को पूर्ववत कायम ही रखा है । ऐसे
में यह जानना अपरिहार्य हो जाता है कि तब स्वामी जी का आदर्श-चिन्तन
आखिर क्या है ? ध्यातव्य है कि स्वामीजी ने भारत और शेष दुनिया के
राष्ट्रों में एक खास अंतर निरूपित किया हुआ है । यह अन्तर ही भारत
राष्ट्र की मौलिकता है और इसी कारण से इसका अस्तित्व कायम है, यह राष्ट्र
शाश्वत है । इस अंतर की आधारशिला है- धार्मिकता व आध्यामिकता और इसका
अजस्र स्रोत है- संस्कृत शिक्षा । भारत के पुनरुत्थान को लक्ष्य कर वे
कहते हैं- “हमारे वेदों, पुराणों उपनिषदों और अन्य शास्त्रों में जो
अपूर्व सत्य छिपे हुए हैं उन्हें मठों की चहारदीवारियों को भेदकर, वनों
की शून्यता से दूर लाकर सर्वत्र बिखेर देना होगा, ताकि वे सत्य सारे देश
को चारों ओर से लपेट लें, उत्तर से दक्षिण और पूरब से पश्चिम तक सब जगह
फैल जाएं- हिमालय से कन्याकुमारी और सिन्धु से ब्रहमपुत्र तक सर्वत्र
धधक उठें ।” इसके लिए वे संस्कृत के प्रसार पर बल देते हुए कहते हैं -
“राष्ट्रीय रीति से राष्ट्रीय सिद्धांतों के आधार पर संस्कृत शिक्षा का
विस्तार करें क्योंकि संस्कृत शब्दों की ध्वनि मात्र से एक प्रकार का
गौरव, शक्ति एवं बल का संचार होता है ।” वे कहते हैं कि संसार के सभी
देशों में प्राचीन भारतीय शास्त्रों के सत्य का प्रचार ही हमारे राष्ट्र
की वैदेशिक नीति का आधार होना चाहिए ,जिसके लिए जरुरी है संस्कृत-शिक्षा
का यापक प्रसार।” इतना ही नहीं, आगे वे यह भी कहते हैं- “प्राचीन भारत की
वर्ण-व्यवस्था एक ऐसी शाश्वत समाज-व्यवस्था है, जो परस्पर विषमता और
वैमनस्यता का नहीं, बल्कि व्यक्ति के क्रमिक विकास और मोक्ष-प्राप्ति का
साधन है, जिसे वास्तविक रुप में लागू करने के लिए यह जरुरी है कि भारत का
जन-जन संस्कृत का विद्वान हो ।”
स्वामी जी के शब्दों में “ भारतवर्ष में धर्म-अध्यात्म ही राष्ट्र के
हृदय का मर्म है, यही भारतीय राष्ट्रीय जीवन का मूल है । इसे राष्ट्र की
रीढ़ कह लो अथवा नींव समझो, इसी के ऊपर राष्ट्र की ईमारत खड़ी है । जबकि,
दुनिया के शेष राष्ट्रों में से कोई भी राष्ट्र ऐसा नहीं है जो धर्म की
आधारशिला पर खडा हो । शेष राष्ट्रों में राजनीति और भौतिकता की प्रधानता
है, तो भारत में धर्मनीति और आध्यात्मिकता की प्रमुखता । चूंकि
जीवन-संग्राम में भौतिकता लंबे समय तक टिक नहीं सकती, जबकि आध्यात्मिकता चिरस्थायी है ; इसी कारण से भारत राष्ट्र शाश्वत है और यह शाश्वतता ही इसकी पहचान है । इतिहास इस बात की गवाही दे रहा है कि प्रायः प्रत्येक सदी में नये-नये राष्ट्रों का उत्थान-पतन होता रहा है । वे पैदा होते
हैं, कुछ समय तक खुराफात करते हैं और उसके बाद समाप्त हो जाते हैं ।
परन्तु भारत राष्ट्र अनेकानेक खतरों तथा उथल-पुथल की कठिनतम समस्याओं से
जूझते हुए भी टिका हुआ है, तो इसका कारण है वैराग्य-त्यागयुक्त हमारी
धार्मिकता-आध्यात्मिकता ।” स्वामीजी कहते हैं कि “अन्य राष्ट्रों के लिए
धर्म, संसार के अनेक कृत्यों में से एक धंधा मात्र है । वहाँ राजनीति है,
सामाजिक जीवन की सुख-सुविधायें हैं, धन व प्रभुत्व द्वारा जो कुछ प्राप्त
हो सकता है तथा इंद्रियों को जिससे सुख मिलता है, उन सब को पाने की
चेष्टा भी है और इन सब विभिन्न जीवन-चर्याओं के भीतर भोग से निस्तेज
इंद्रियों को पुनः उतेजित करने के उपकरणों की समस्त खोज के साथ वहाँ
संभवतः थोड़ा बहुत धर्म-कर्म भी है । परन्तु , भारतवर्ष में मनुष्य की सारी
चेष्टायें धर्म के लिए ही होती रही हैं-ध र्म ही यहां के जीवन का मूल है
।” विवेकानन्द जी कहते हैं- “जिस प्रकार से जीवन जीने के लिए
प्रत्येक व्यक्ति को अपना मार्ग चुन लेना पडता है, उसी प्रकार से
प्रत्येक राष्ट्र को भी अपना अस्तित्व बनाये रखने के लिए पथ का निर्धारण
कर लेना पडता है । हमने युगों पूर्व ही अपना पथ निर्धारित कर लिया था और
अब उसी पथ पर हमें चलते रहना चाहिए जिसका नाम है ‘वेदान्त-पथ’ । जाओ-जाओउस प्राचीन समय के उन भावों को लाओ जब हमारे शरीर में वीर्य व जीवन था । तुम फिर से वीर्यवान बनों और उसी प्राचीन झरने का पानी पीओ । भारत को
पुनर्जीवित करने का यही एक उपाय है ।” स्पष्ट है कि स्वामीजी भारतीय
तरीके से ही भारत राष्ट्र की पुनर्रचना चाहते थे । उस प्राचीन भारत की
आधुनिक रचना था उनका सपना, जिस राष्ट्र के प्रत्येक व्यक्ति का ध्येय
होता था- ब्राह्मण बनना, ऋषि-पद पाना और मोक्ष को प्राप्त करना । वे
देशवासियों को ललकारते हुए यह कहते हैं कि “ऐ भारत ! तुम भूलना मत कि
तुम्हारी स्त्रियों का आदर्श सीता, सावित्री व दमयंती है .... मत भूलना
तुम कि तुम्हारे उपास्य सर्वत्यागी उमानाथ शंकर हैं ...तुम भूलना मत कि
तुम्हारा विवाह, धन व जीवन इंद्रिय-सुख के लिए या अपने व्यक्तिगत सुख के
लिए नहीं है ....तुम यह मत भूलना की तुम जन्म से ही भारतमाता के लिए बलि
स्वरूप रखे गये हो ....तुम मत भूलना कि तुम्हारा समाज उस विराट महामाया
की छायामात्र है । हे वीर ! साहस का आश्रय लो । गर्व से कहो कि मैं
भारतवासी हूँ और प्रत्येक भारतवासी मेरा भाई है । भारत का समाज मेरे बचपन
का झूला है, जवानी की फुलवारी है और मेरे बुढ़ापे की काशी है । ...भाई !
बोलो कि भारत की मिट्टी मेरा स्वर्ग है, भारत के कल्याण से ही मेरा
कल्याण है और रात-दिन कहते रहो- हे गौरीनाथ ! हे जगदम्बे ! मेरी दुर्बलता
व कापुरूषता दूर कर दो !” स्वामीजी की यह ललकार ही भारतीय सेना को सहज ही राष्ट्रभक्ति की भावना से ओत-प्रोत उत्साही युवकों की बहुलता उपलब्ध
कराते रहती है जिससे इसका स्वरुप आज भी ‘स्वैच्छिक’ बना हुआ है, अन्यथा
अन्य देशों की तरह भर्ती के लिए सरकार को ‘अनिवार्यता’ का कानून बनाना
पडता ।
ऐसे में अब यह विचारणीय है कि भारत का राष्ट्रीय युवा जब यह
कहता है कि धर्म ही हमारे राष्ट्र का मूलाधार है, तब हमारी शासन-व्यवस्था
को नियंत्रित-निर्देशित करने वाले संविधान में संशोधन कर
‘धर्मनिरपेक्षता’ का जो प्रावधान किया गया है, सो कितना उचित है ? भारत
के मूल संविधान में ‘धर्मनिर्पेक्षता’ का कहीं कोई उल्लेख नहीं है, तो
उसे ‘संविधान-निर्मताओं की भूल नहीं कहा जा सकता, अपितु वह तो स्वामीजी
के इसी ‘राष्ट्र-चिन्तन’ का उदबोधन था । लेकिन इन्दिरा कांग्रेस की सरकार
ने लोकतंत्र का गला दबा कर संविधान में ‘धर्मनिर्पेक्षता’ क प्रावधान
जबरिया घुसा दिया । फलतः सरकार द्वारा स्वामीजी के बताए मार्ग पर चलने का
हर साल संकल्प तो दुहराये जाते रहे हैं किन्तु , धर्मनिरपेक्षता के एक से
एक दुष्कीर्तिमान स्थापित करते हुए देश की युवा-पीढियों को वेदों-पुराणों-उपनिषदों के ज्ञान-विज्ञान से विमुख रख संस्कृत-शिक्षा से भी दूर कर दिया गया । स्वयं की प्रेरणा से अगर कोई युवक संस्कृत-शिक्षा ग्रहण भी करता है तो उसकी ततसम्बन्धी शैक्षणिक उपाधियों को ‘रद्दी’ करार दे दिया जा रहा है । जाहिर है, सेना-मुख्यालय का यह सैन्य-फरमान घोर अनुचित है क्योंकि इससे तो उस ‘राष्ट्रीय युवा’ का ही अपमान होता है, जिसे भारत-सरकार ही देश के युवकों का आदर्श बताती है । रक्षा-मंत्रालय के जिन अधिकारियों ने सेना की नौकरियों में संस्कृत-शिक्षा-प्राप्त युवाओं को अयोग्य करार देते हुए संस्कृत-विश्वविद्यालयों से जारी हुई उनकी उपाधि (शास्त्री) को अमान्य कर देने का जो दुष्कृत्य किया है, उससे भारतीय सेना की राष्ट-भक्ति पर भी सवालिया निशान खडा हो जा रहा है ।
• मनोज ज्वाला ; जनवरी’ २०२२