अमेरिका में हिन्दू-विरोधी कार्यक्रम और अमेरिकी शासन


खबर है कि अमेरिका में पिछले दिनों कुछ तथाकथित बुद्धिजीवियों एवं
उदारवादी प्रगतिशील सेक्युलर विचारकों द्वारा आयोजित एक वर्चुअल
कार्यक्रम “डिस्मेंटलिंग ग्लोबल हिन्दुत्व” में भारत राष्ट्र व हिन्दू
धर्म को नफरत व वैमनस्य की विचारधारा का द्योतक बताया गया । उस वर्चुअल
कांफ्रेंस के माध्यम से यह बात भी प्रचारित की गई कि भारत में एक
राष्ट्रवादी संगठन के लोगों द्वारा शैक्षणिक और बौद्धिक संस्थानों का
सेक्युलर स्वरूप नष्ट किया जा रहा है । अमेरिका में प्रायः ऐसा होते रहता
है और इस तरह के कार्यक्रमों को अमेरिकी शासन का पूरा-पूरा सहयोग समर्थन
प्राप्त हुआ रहता है । सिर्फ कहने को सारी दुनिया में धार्मिक
स्वतंत्रता समानता व मानवाधिकारिता का झण्डाबरदार दिखता है लेकिन सच यह
है कि अमेरिकी शासन की नीतियां भारत राष्ट्र के विघटन व सनातन हिन्दू
धर्म के उन्मूलन पर आमदा चर्च-मिशन की विविध षड्यंत्रकारी गतिविधियों को
अंजाम देने वाली होती हैं । कोई भी अमेरिकी राष्ट्रपति देखने-सुनने में
आपको चाहे जितना भी चुस्त-दुरुस्त लगे, किन्तु कैथोलिक ईसाइयों की
कट्टरता और प्रोटेस्टेण्ट ईसाइयों की उदारता से युक्त नस्लवादी वैश्विक
षडयंत्र के क्रियान्वयन के मामले में वह ‘चर्च’ के ‘सर्कस का शेर’ मात्र
हुआ करता है , जिसका ‘रिंग-मास्टर’ ‘पोप’ होता है । पोप का
अंतर्राष्ट्रीय मुख्यालय वेटिकन सिटी है , जो वैसे तो इटली (प्राचीन
रोम) में अवस्थित है, किन्तु महज 84 हेक्टेयर क्षेत्रफल तथा मात्र कुछ
हजार लोगों की आबादी और सेण्ट पिटर नामक चर्च-समूहों की ख्याति वाले उस
छोटे से शहर को दुनिया के तमाम ईसाई-राष्ट्रों ने एक स्वतंत्र राज्य का
दर्जा दे रखा है और शेष दुनिया के सभी देशों से दिलवा रखा है । वेटिकन की
अपनी मुद्रा व अपनी स्वतंत्र संचार व्यवस्था तो है ही , समस्त राजनयिक
नखरों-ठसकों-सुविधाओं-अधिकारों से युक्त उस तथाकथित ‘ईश्वरीय राज्य’ के
राजदूत भी दुनिया के सभी देशों (गैर-ईसाई देशों में भी) में पदस्थापित
हैं । पोप के प्रभाव और उसके प्रति समस्त ईसाई-देशों के समर्पण-भाव का
अंदाजा आप इसी बात से लगा सकते हैं कि सिर्फ और सिर्फ चर्च-समूहों के
राज्य- ‘वेटिकन सिटी’ का अपना कोई कृषि-वाणिज्य-उद्योग-उद्यम नहीं है ,
किन्तु उसके राज्याध्यक्ष- पोप को दुनिया के किसी भी बडे से बडे
राज्य-राष्ट्र के प्रमुख से ऊंचा दर्जा प्राप्त है , क्योंकि उसे साक्षात
ईश्वर का प्रतिनिधि मान लिया गया है । इसी कारण वह संयुक्त राष्ट्र संघ
का सदस्य भी नहीं है, किन्तु दुनिया की यह सबसे बडी वैश्विक संस्था उसके
इशारों पर ही काम करती है, क्योंकि एक चीन को छोड ‘वीटो-पावर’ से सम्पन्न
सभी सदस्य-राष्ट्र उसके आज्ञाकारी शिष्य हैं , जबकि उसका कोई कानून
वेटिकन सिटी पर लागू नहीं होता है । ईसाई-राष्ट्रों ने उसे दुनिया से परे
‘ईश्वर का राज्य’ घोषित कर रखा है , जबकि पूरी दुनिया को उसी की अमानत
मान लिया है । वह तथाकथित ईश्वरीय राज्य समस्त दुनिया को पापों से मुक्त
करने में लगा हुआ है , जिसके लिए वह अपनी नीतियों, योजनाओं और
तत्सम्बन्धी कार्यक्रमों का क्रियान्वयन अमेरिका और दुनिया भर में कायम
विभिन्न चर्च-मिशनरियों और उनसे सम्बद्ध गैर-सरकारी संस्थाओं (एनजीओ) के
माध्यम से करता-कराता है ।
ऐसे में कहने को धर्मनिरपेक्ष, किन्तु ईसाई राष्ट्रों के
सिरमौर अमेरिका की अंतर्राष्ट्रीय वैदेशिक नीतियां वेटिकन की सोच व
योजनाओं के अनुसार ही निर्मित-क्रियान्वित होती हैं । वर्ल्ड विजन ,
युएसएड (युनाइटेड स्टेट इण्टरनेशनल डेवलपमेण्ट), फ्रिडम हाऊस तथा प्रिजन
फेलोशिप मिनिस्ट्री, क्रिश्चियनिटी टुडे इण्टरनेशनल , वर्ल्ड इवैंजेलिकल
एलायन्स व नेशनल बैपटिस्ट कानवेंशन, रैण्ड कारपोरेशन और ग्लोबल ह्यूमन
राइटस एण्ड इण्टरनेशनल आपरेशन्स व पालिसी इंस्टिच्युट फार रिलीजन एण्ड
स्टेट आदि अनेक ऐसी संस्थायें हैं, जो एक तरफ तमाम गैर-ईसाई देशों में
ईसाइयत के विस्तार हेतु सक्रिय हैं , तो दूसरी ओर अमेरिकी शासन पर
तत्सम्बन्धी कानून बनाने का दबाव डालने के निमित्त वहां की ‘कांग्रेस’
एवं ‘ह्वाइट हाऊस’ के विभिन्न प्लेटफार्मों पर भारतीय हितों के विरूद्ध
हिन्दू-विरोधी षडयंत्र रचने में भी तत्पर हैं ।
अमेरिकी शासन का ‘अंतर्राष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता
अधिनियम’ जो सन 1998 में पारित हुआ है, तत्कालीन राष्ट्रपति बिल क्लिंटन
पर वेटिकन सिटी से प्रेरित-संचालित धर्मान्तरण्कारी ईसाई मिशनरी संस्थाओं
के दबाव से बने कानून का प्रमुख उदाहरण है । इस अधिनियम के तहत
अंतर्राष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता की निगरानी के लिए अमेरिकी शासन के
विदेश मंत्रालय में एक सर्वोच्च स्तर के राजदूत की नियुक्ति और कांग्रेस,
विदेश मंत्रालय व ह्वाइट हाउस को सलाह देने के लिए युएस कमिशन आफ
इण्टरनेशनल रिलीजियस फ्रीडम के गठन तथा राष्ट्रपति की राष्ट्रीय सुरक्षा
परिषद में एक विशेष सलाहकार नियुक्त करने का प्रावधान है । ये तीनों
सरकारी संस्थान धार्मिक स्वतंत्रता को गैर-ईसाइयों के धर्मान्तरण की
आजादी के तौर पर परिभाषित करते हुए धर्मान्तरण में बाधायें खडी करने वाले
देशों के विरूद्ध अमेरिकी राष्ट्रपति को प्रतिवेदित करते रहते हैं, और उन
देशों के प्रति अमेरिका की वैदेशिक नीतियों को प्रभावित-नियंत्रित करते
हैं । इस अधिनियम के तहत अमेरिकी संसद (कांग्रेस) ने अमेरिका के
राष्ट्रपति को धार्मिक स्वतंत्रता का हनन करने वाले अर्थात धर्मान्तरण
बाधित करने वाले देशों को अमेरिकी सहयोग से वंचित और प्रतिबन्धित कर देने
का अधिकार प्रदान किया हुआ है । इस कानून के तहत अमेरिकी शासन में कायम
युनाइटेड स्टेट कमिशन फोर इण्टरनेशनल रिलीजियस फ्रीडम (यु एस सी आई आर
एफ) अर्थात ‘अंतर्राष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता के लिए अमेरिकी आयोग’
कहने को तो दुनिया के सभी देशों के भीतर धार्मिक स्वतंत्रता की समीक्षा
और ततविषयक हनन-उल्लंघन मामलों की सुनवाई करता है, किन्तु उसके निशाने पर
गैर-ईसाई देश ही हैं, जिनके बीच गैर-पैगम्बरवादी व मूर्तिपूजक
धर्मानुयायी, अर्थात हिन्दू और पैगम्बरवाद की बडी चुनौती के रूप में
हिन्दू-बहुल देश भारत मुख्य निशाने पर है । सीधे ह्वाइट हाउस से संचालित
यह अमेरिकी आयोग भारत में सक्रिय विभिन्न चर्च मिशनरियों तथा दलित फ्रीडम
नेट्वर्क , आल इण्डिया क्रिश्चियन काउंसिल व फ्रीडम हाउस जैसे
चर्च-समर्थित एन०जी०ओ० और उनके भारतीय अभिकर्ताओं, कार्यकर्ताओं एवं भाडे के बुद्धिजीवी टट्टुओं व मीडियाकर्मियों के सुनियोजित संजाल के माध्यम से
हिन्दुओं को आक्रामक-हिंसक प्रमाणित करते हुए उनकी आक्रामकता व हिंसा के
कारण मुसलमानों-ईसाइयों की धार्मिक स्वतंत्रता के हनन सम्बन्धी मामले
रच-गढ कर उनकी सुनवाई करता है । फिर उस सुनवाई के निष्कर्षों के आधार पर
अल्पसंख्यकों की धार्मिक स्वतंत्रता की रक्षा के लिए अमेरिका से
हस्तक्षेप की अनुशंसा करते हुए उसकी वैदेशिक नीतियों को तदनुसार
प्रभावित-निर्देशित करता है । उसकी ऐसी ही अनुशंसाओं के आधार पर अमेरिका
द्वारा सन 2009 में भारत को अफगानिस्तान के साथ विशेष चिन्ताजनक विषय
वाले देशों की सूची में शामिल किया गया था । दलितों के हिन्दू धर्म-समाज
से जुडे रहने को ‘गुलामी’ और धर्मान्तरित होकर ईसाई बन जाने को ‘मुक्ति’
बताने तथा इस आधार पर धर्मान्तरण की वकालत करते रहने वाले दलित फ्रीडम
नेटवर्क और फ्रीडम हाउस जैसे एन०जी०ओ० की पहल पर यह अमेरिकी आयोग हिन्दू समाज की वर्ण-व्यवस्था को समाप्त करने और दलितों के धर्मान्तरण का मार्ग
प्रशस्त करने हेतु भारत में अमेरिकी शासन के हस्तक्षेप की सिफारिस करता
रहा है । यह आयोग हर साल अमेरिकी कांग्रेस और ह्वाइट हाउस को अपनी
रिपोर्ट प्रेषित करता है , जिसमें सुनियोजित ढंग से हिन्दुओं को ईसाइयों
के प्रति आक्रामक हिंसक और भारतीय ईसाइयों को तथाकथित
हिन्दू-हिंसा-आक्रामकता से आक्रांत व पीडित-प्रताडित दिखाता है ।
इस अधिनियम के साथ-साथ कुछ ऐसी संस्थायें भी हैं, जो अमेरिकी
राष्ट्रपति के क्रिया-कलापों को सीधे-सीधे प्रभावित-निर्देशित करती हैं ।
अमेरिकी संसद के कट्टरपंथी ईसाई सांसदों के दबाव में कायम ‘युएसएड’ नामक
सरकारी संस्था अमेरिकी सहयोग से संचालित समस्त भारतीय परियोजनाओं को
नियण्त्रित-निर्देशित करती है, तो ‘वर्ल्ड विजन’ उन परियोजनाओं को
क्रियान्वित करती है । इन दोनों संस्थाओं का सम्बन्ध अमेरिका की खतरनाक
जासूसी संस्था सी०आई०ए० और धर्मान्तरणकारी कट्टर ईसाई मिशनरियों के साथ
है । अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज बुश के समय से ही अंतर्राष्ट्रीय सहायता
कार्यक्रमों के क्रियान्वयन-अनुश्रवण में युएसएड के साथ ईसाई-प्रचारक
संस्थाओं की भूमिका उनके धर्मान्तरणकारी मिशन में कोई परिवर्तन किये बिना
कायम कर दी गई है, जो आज भी यथावत है । बराक ओबामा के राष्ट्रपति बनने पर ऐसा कयास लगाया जा रहा था कि अमेरिका में कट्टरपंथी ईसाई-समूहों को झटका लगेगा और भारत में भी अमेरिका-प्रायोजित धर्मान्तरण गतिविधियां शिथिल हो जाएंगी , किन्तु ऐसा बिल्कुल नहीं हुआ । बल्कि हुआ यह कि ओबामा ने अंतर्राष्ट्रीय धार्मिक मामलों पर राष्ट्रपति के ‘आंख-कान’ कही जाने वाली ‘प्रेसिडेण्ट्स एडवाइजरी काउंसिल आन फेथ-बेस्ड नेबरहुड पार्ट्नरशिप’
नामक परिषद में जोशुआ ड्युबाय नामक उस व्यक्ति को सर्वो्च्च सलाहकार बनाए रखा जो चुनाव में उनके लिए कट्टरपंथी ईसाई समूहों का वोट-बैंक पटाया था । इस 25 सदस्यीय परिषद में लगभग सारे के सारे सदस्य कट्टरपंथी ईसाई प्रचारक हैं, जिनके आचार-विचार की प्राथमिकताओं में हिन्दुओं का धर्मान्तरण ही
प्रमुखता से शामिल है । अमेरिकी शासन-प्रशासन में वैदेशिक नीति-निर्धारण
के बावत ह्वाइट हाउस के भीतर-बाहर कायम ऐसे हिन्दू-विरोधी षड्यंत्रकारी
संरचनाओं के बीच राष्ट्रपति के आसन पर कोई ट्रम्प आसीन हों या कोई
वाइड्न ; किसी से भी हिन्दू समाज का और भारत राष्ट्र का व्यापक हित सम्भव
ही नहीं है ।
• मनोज ज्वाला ; सितम्बर ; 2021