कांग्रेस को नेता नहीं, नीति व नीयत बदलने की जरुरत

कांग्रेस को नेता नहीं, नीति व नीयत बदलने की जरुरत

खबर है कि कांग्रेस ने प्रधानमंत्री-पद के लिए राहुल गांधी का नाम वापस ले कर अब अपने अध्यक्ष- मल्लिकार्जुन खडगे का नाम प्रस्तावित कर रखा है । इससे पहले उसके सबसे महान, काबिल, कर्मठ व जुझारू नेता राहुल गांधी पार्टी के अध्यक्ष-पद से इस्तीफा दे ही चुके हैं । कांग्रेस का यह नया प्रस्ताव गत १६-१७वीं लोकसभा के चुनाव में उसकी जो करारी हार हुई है, उसके बाद पार्टी में शीर्ष नेतृत्व के स्तर पर मची उथल-पुथल का परिणाम है । राहुल से किसी ने इस्तीफा मांगा नहीं था, उन्होंने स्वयं ही दे रखा है और जबरन दिया हुआ है , क्योंकि उनका इस्तीफा दिया जाना उनकी पार्टी में किसी को मंजूर था ही नहीं । होता भी कैसे, वे कोट की बटन से गुलाब लगाये रखने वाले कांग्रेस के एक ऐतिहासिक महापुरुष के वंशवृक्ष का ऐसा फूल हैं, जिसका सुफल उस पार्टी को भले ही न मिला हो, किन्तु उसकी सुगंध से तमाम कांग्रेसी मदहोश होते रहे हैं । मार्च २००४ में तब के विपक्षी राजनीतिक मंच पर धमकने के साथ ही पैतृक विरासत के बूते अमेठी से राहुल के सांसद बन जाने पर
कांग्रेस में किसी राजकुमार के युवराज बन जाने जैसा जश्न मनाया गया था,
क्योंकि उस चुनाव में भाजपा की बाजपेयी-सरकार का पतन हो गया था और
कांग्रेस को उसकी खोई हुई सत्ता वापस मिल गई थी, जिसे ‘सपूत के पांव
पालने में’ की तरह देखा जा रहा था । ऐसा देखने वाले यह भी दावा करते रहे
थे कि देश की युवा पीढी उस युवराज में ही देश का भविष्य देख रही है ।
फलतः सितम्बर २००७ में वे कांग्रेस का महासचिव नियुक्त कर दिए गए थे, जिसके
बाद सन २००९ के चुनाव में कांग्रेस दुबारा सत्ता में आ गई, तो उसका सारा
श्रेय अनुचित रुप से राहुल को ही दिए जाने और उनका व्यक्तित्व भारत का
भावी प्रधानमंत्री के रुप में गढे जाने की प्रतिस्पर्द्धा सी मच गई थी
तमाम कांग्रेसियों में । उसी भावी योजना के तहत उनका सियासी कद बढाने के
निमित सन २०१० में कांग्रेस के कथित ऐतिहासिक अधिवेशन के मंच से पहली बार
उनका भाषण कराया गया था, जिसके बावत एक वरिष्ठ कांग्रेसी दिग्विजय सिंह ने
कहा था कि “राहुल जब बोल रहे थे, तब ऐसा लग रहा था कि उनके दिवंगत पिता-
राजीव का ही भाषण हो रहा हो” । जबकि, पी० चिदम्बरम यह कह कर उस चापलूसी
प्रतियोगिता में बाजी मार गए थे कि “आंखें मूंद कर ध्यान से सुनने पर
उनके भाषण में इन्दिरा गांधी का ही दर्शन हो रहा था” । मुझे ठीक-ठीक याद
है कि तब उक्त अधिवेशन-स्थल पर उपस्थित एक जाने-माने पत्रकार ने यह लिख
कर उन चापलूसों को आईना दिखा दिया था कि “…और कान बन्द कर के राहुल का भाषण सुनने वालों को तो महात्मा गांधी का ही दर्शन हो रहा था ” । आप समझ
सकते हैं कि एक सियासी खानदान की चेरी बनी जिस पार्टी के शीर्ष पर
ऐसे-ऐसे चापलूसों की जमात भरी पडी हो , उसमें उसके खानदानी प्रमुख से कोई
इस्तीफा मांगने अथवा बिना मांगे भी उसके द्वारा दिए जाने पर उसे स्वीकार
करने की हिमाकत कोई भला कर सकता है क्या ?
तो उन्हीं राहुल गांधी को भाजपा की राह रोकने के लिए सन २०१३ में
कांग्रेस का उपाध्यक्ष बना कर देश के सामने पेश किया गया था, जिसके बाद
कांग्रेस बुरी तरह से हार कर न केवल सत्ता गंवा बैठी , बल्कि विपक्ष में
बैठने लायक भी नहीं रही । लेकिन कांग्रेस-जनों को तब भी राहुल गांधी के
भाषणों में राजीव और इन्दिरा के दर्शन होते रहे और वे उनके नेतृत्व में
सत्ता वापस पाने का सामगान करते हुए उन्हें कांग्रेस की पूरी कमान सौंप
दिए जाने की चिरौरी उनकी मां सोनिया गांधी से करते रहे, तो अन्ततः सन
२०१७ में उन्हें पार्टी-अध्यक्ष भी बना दिया गया था । तब से गत
लोकसभा-चुनाव तक राहुल गांधी अपने सियासी खानदान का सिक्का देश भर में
चलाने की बहुविध मशक्कत करते रहे । लोकल ट्रेन में यात्रा किये, गांव में
रात गुजारे, एक गरीब आदिवासी के घर खाना खाये, रिक्शा-चालकों से मिल कर
उनकी व्यथा सुने , सफाईकर्मियों के साथ अपनी तस्वीरें खिंचवाये तथा
बेरोजगार नवजवानों को आलू से सोना बनाने सहित नारियल से जूस निकालने व
गांव-गांव में कारखाना स्थापित करने, बैंक-ऋण माफ करा देने और हर मतदाता
को प्रतिमाह छह-छह हजार रुपये नकद राशि प्रदान करने तक अनेकानेक आश्वासन
दिए । भाजपा-मोदी-सरकार के हर निर्णय का विरोध किये, पूरे पांच साल संसद
की कार्यवाहियां बाधित करते रहे, प्रधानमंत्री मोदी पर चोरी-घूसखोरी का
निराधार आरोप लगाते रहे तथा कांग्रेस के मुस्लिम-वोटबैंक की सुरक्षा हेतु
रामजन्मभूमि पर मन्दिर-निर्माण-मामले में अडंगा डालते रहे ,राष्ट्रीय
स्वयंसेवक संघ पर कीचड उछालते रहे, गौ-हत्या का समर्थन करते रहे और
जिहादियों-आतंकियों-देशद्रोहियों को सम्मान-समर्थन देते हुए भारत माता की
जय व वन्देमातरम का विरोध तो करते ही रहे, भारत को टुकडे-टुकडे करने का
नारा लगाने वालों से हाथ मिलाते हुए भारतीय सेना से भी उसके पराक्रम का
सबूत मांगते रहे । और तो और , कई मौकों पर पाकिस्तान की तरफदारी भी किये
तथा बांगलादेशी-रोहिंग्या मुसलमानों को भारत की नागरिकता दिलाने और
देशद्रोह कानून को ही समाप्त करने की वकालत भी । इतना ही नहीं,
हिन्दू-समाज से ‘मत’ बटोरने के लिए यज्ञोपवित पहन कर अपने कुल-गोत्र का
इजहार करते हुए मंदिरों में पूजा-अर्चना का ढकोसला भी खूब किये, किन्तु
बहुसंख्यक मतदाता कांग्रेस के उपरोक्त हिन्दुत्व-विरोधी मुस्लिम-साम्प्रदायिक
तुष्टिकरण एवं राष्ट्र-विमुखी वैचारिक क्षरण तथा भारत-विरोधी तत्वों के
संरक्षण और सत्ता-लोलुप राजनीतिक आचरण को सिरे से खारिज कर दिए । परिणाम वही हुआ- ‘दिन भर चले ढाई कोस’ ! बहन प्रियंका वाड्रा को
भी साथ ले कर खूब उछल-कूद किये तो महज १० सीटें ही बढा सके और कांग्रेस को सत्ता के शिखर पर पहुंचाना तो दूर , उसे विपक्ष की जमीन भी नहीं दिला सके । अंततः पूरी ताकत लगा कर लोकतंत्र व संविधान को बचाने का प्रहसन करते हुए ‘भारत-जोडो’ यात्रा भी किये, तो बाद के लगभग तमाम प्रादेशिक-चुनावों में कांग्रेस की फजीहत होती रही । नतीजतन उन्हें अध्यक्ष पद से हटा चुकी कांग्रेस थक-हार कर अब प्रधानमंत्री पद की उनकी उम्मीदवारी वापस ले ली है और पार्टी-अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खडगे को उस पद के लिए प्रस्तावित कर प्रचारित कर रही है । महज कुछ ही महिनों के बाद होने वाले संसदीय चुनाव की सियासी जंग से ऐन पहले कांग्रेस ने यह बदलाव तब किया है, जब मोदी-भाजपा-विरोधी तमाम विपक्षी पार्टियों का गठबन्धन- ‘इण्डिया’ नाम धारण कर भारत की केन्द्रीय सत्ता हासिल करने की जुग्गत भिडाने में व्यस्त है । कांग्रेस भी उक्त गठबन्धन की एक प्रमुख घटक है , जिसने प्रधानमंत्री-पद के लिए सहयोगी दलों से राय-सहमति लिए बगैर चुपचाप अपने अध्यक्ष- मल्लिकार्जुन खडके का नाम प्रस्तावित कर दिया है । जाहिर है , उसकी इस हिमाकत पर उक्त ‘इण्डी’ गठबन्धन के अनेक नेताओं ने आपत्ति जतायी है ; क्योंकि प्रधानमंत्री पद के अनेक दावेदार उधर भी तो हैं । लिहाजा , कांग्रेस की इस घोषणा से भाजपा-विरोधी उक्त कांग्रेसी गठबन्धन में ही विवाद इस कदर छिड गया है कि उसके टूट जाने की सम्भावना प्रबल दिख रही है ।
बहरहाल उसका टुटना या कायम रहना तो बाद का विषय है , जो भाजपा-विरोधी तमाम विपक्षी दलों की पारस्परिक एकता पर निर्भर है; किन्तु कांग्रेस के इस प्रस्ताव से न तो उसका भला होने वाला है , न उक्त गठबन्धन का । ऐसा इस कारण, क्योंकि हिन्दुत्व-प्रेरित राष्ट्रवादी राजनीति के भाजपाई उभार का मुकाबला कोई भी राजनीतिक पार्टी केवल नेता या उम्मीदवार बदल देने से कतई नहीं कर पायेगी ; कांग्रेस तो बिल्कुल नहीं । क्योंकि; देश का मन-मीजाज अब एकबारगी बदल चुका है और कांग्रेस की ‘हिन्दू-विरोधी’ घोर मजहबी-साम्प्रदायिक तुष्टिकरणकारी दुर्नीति को बहुसंख्यक समाज के मतदाता समझ चुके हैं । ऐसे में जाहिर है, कांग्रेस को नेता के बजाये अपनी सियासी नीति व नीयत बदलने की जरुरत है ; सत्ता के शिखर पर पहुंचने के लिए ही नहीं , अपितु विपक्ष की जमीन हासिल करने के लिए भी । उसे विरोध की राजनीतिक नाव भी हिन्दुत्व-प्रेरित राष्ट्रीयतावादी राजनीति की धारा में उतर कर ही चलानी होगी , नयी राजनीतिक धारा का निर्माण अब वह नहीं कर सकती , क्योंकि यह तो भारत की नियति के वश में है और अब इस प्राचीन सनातन राष्ट्र की नियति इसकी राष्ट्रीयता के उभार की है , जो निश्चय ही न रिलीजन है, न मजहब है; अपितु केवल और केवल धर्म है । अर्थात, धर्म को धारण करने वाली पार्टी ही भारत के केन्द्र में सत्ताधारी होगी । कांग्रेस को अपनी नीति व नीयत धर्मानुकूल बनानी होगी , नेता चाहे कोई भी हो ।
• दिसम्बर’२०२३