एक ‘पिनाक’धारी साहित्यिक योद्धा की ‘सदानीरा’ स्मृति


साहित्य के संसार में कवि और लेखक भले ही केवल कलम धारण कर
शब्द-ग्रंथ रचते रहे हों ; किन्तु समीक्षक-समालोचक तो कलम के साथ-साथ कलम को मर्यादित-संस्कारित करने वाले शास्त्र और अवांछित लेखन का संहार करने वाले शस्त्र भी धारण किये रहते हैं । जो समीक्षक-समालोचक जितना निडर व
प्रखर होता है ; उसका शस्त्र-शास्त्र उतना ही तीक्ष्ण होता है और उसकी
समीक्षा-समालोचना की दृष्टि-कृति से साहित्य के बडे-बडे उद्भट्ट-उदण्ड
रचनाकार उतने ही आहत होते रहते हैं । शत्रुघ्न प्रसाद जी कवि और लेखक से
बढ कर एक प्रखर व निर्भीक समीक्षक-समालोचक भी थे । यद्यपि वे एक
शिक्षाविद के साथ साथ उपन्यासकार और सम्पादक भी थे; तथापि उनकी वास्तविक पहचान समीक्षक-समालोचक से ही थी । कम से कम मैं तो उन्हें इसी रुप में जनता हूं । समीक्षा-समालोचना की उनकी धार भारतीय राष्ट्रीयता की कसौटी पर कसी हुई इतनी तीक्ष्ण व पैनी हुआ करती थी कि साहित्य में जनवाद दलितवाद नारीवाद आदि किसिम-किसिम के खर-पतवार बोते-फैलाते रहने वाले वामपंथी रचनाकारों के गिरोह को उसके प्रहारों से प्रायः लहुलुहान होते रहना पडता
था । शत्रुघ्न प्रसाद की समीक्षा-समालोचना-दृष्टि की तीक्ष्णता का आंकलन
आप इसी से कर लीजिए कि अपनी जिस मासिक पत्रिका के माध्यम से वे साहित्य
के धुरंधरों की खबर लिया करते थे उसका नाम ही उन्होंने ‘पिनाक’ रखा था ।
‘पिनाक’ तो समस्त अवांछनीयताओं की संहारक-सत्ता अर्थात ‘शिवजी’ के धनुष
का नाम है जिसे ‘परमब्रह्म’ के सिवाय कोई नहीं तोड सका था । तो इस प्रकार
से शत्रुघ्न प्रसाद जी ‘पिनाकधारी’ थे और अपने उस अस्त्र-शस्त्र से वे
साहित्य के अवांछित तत्वों का संहार किया करते थे । साहित्य के वामपंथी
झण्डाबरदार हों या हिन्दूत्व-विरोधी जातीय वैमनस्यता के विभाजनकारी
सूत्रधार ; धर्मनिरपेक्षता के पैरोकार हों या मजहबी तुष्टिकरण के
सिपहसालार ; शत्रुघ्न बाबू सबकी गर्दन मरोडते रहते थे और सबको भारत की
सनातन राष्ट्रीयता का पाठ पढाते रहते थे । इसके लिए वे लेखन-प्रकाशन से
ले कर बहस-विमर्श-भाषण तक सब कुछ किया करते थे और अपने दम-खम पर किया करते थे । अखिल भारतीय साहित्य परिषद के अनेक आयोजनों में मैंने बहुत
नजदीक से उन्हें अनेक बार अनेक मुद्दों पर सुना-समझा है ।
तर्कों-तथ्यों-प्रमाणों और सिद्धांतों के पर्याप्त संयोजन से वे
साहित्यिक बहस-विमर्श में राष्ट्रीयता-विरोधी पक्ष को इत्मीनान से परास्त
कर दिया करते थे । वे हिन्दी साहित्य में घुस आये ‘अभारतीय व अराष्ट्रीय’
वैचारिकी वाले गिरोहों पर ‘पिनाक’ से प्रहार करते रहने वाले योद्धा ही थे
। मैं उनकी पत्रिका का औपचारिक रुप से नियमित पाठक नहीं बन पाया.. तब भी
वे मुझे ‘पिनाक’ नियमित भेजा करते थे । मैं तो उनसे परिचित ही सन २०१०
में तब हुआ था.. जब उन्होंने बिना किसी परिचय के ही मेरी प्रथम औपन्यासिक
रचना- ‘महात्मा की बेटी और सियासत’ पर अपना व्यापक मंतव्य मुझे भेजा था ।
उनके द्वारा की गई उसकी समीक्षा आज भी मुझे संतोष प्रदान करती है ।
शत्रुघ्न प्रसाद जी का सम्पूर्ण जीवन साहित्यमय था.. या यों कहिए कि
साहित्य को ही समर्पित था । समीक्षक-समालोचक से इतर उनके व्यक्तित्व एवं
कर्त्तृत्व का एक दूसरा आयाम भी था और वह था उनकी सदाशयता उदारता व
संवेदनशीलता । वे साहित्य-लेखन व राष्ट्रीय हितों के संवर्द्धन में लगे
हर व्यक्ति को सहयोग समर्थन मार्गदर्शन प्रदान किया करते थे । परिचय
प्रगाढ होने के पश्चात मेरा पटना जब कभी जाना होता था वे अपने आवास पर
अवश्य बुलाते थे और वहां भरपूर स्नेह-सत्कार का लाभ देते थे । अपने
स्वास्थ्य की चिन्ता किये बिना भी वे साहित्यिक गतिविधियों..विशेष कर
अखिल भारतीय साहित्य परिषद के कार्यक्रमों के लिए सदैव प्रस्तुत रहते थे
। शीर्षस्थ विद्वान होने के बावजूद उनका जीवन बहता पानी की तरह
स्वच्छ-सरल एवं खनिज–लवन आदि आवश्यक तत्वों से युक्त उर्वरा-सम्पन्न व
स्वास्थ्यवर्द्धक था..जिससे हर कोई आचमन कर सकता था..करते ही रहता था ;
क्योंकि वह अवांछित ‘जमाव’ और उससे उत्पन्न ‘गंदगी’ से मुक्त व औषधीय
गुणों से युक्त था । कदाचित अपने स्वभाव की इस विशिष्टता के कारण ही वे
पिछले पांच-छह वर्षों से केन्द्रीय हिन्दी संस्थान के सहयोग से एक
त्रैमासिक पत्रिका जो निकाल रहे थे उसका नाम ‘सदानीरा’ ही रखे थे । अखिर
दूसरा कोई नाम भी तो रख सकते थे । अब उनका सशरीर सानिध्य नहीं मिल पाना
साहित्य को हुई बहुत बडी क्षति है.. जिसकी भरपाई तो कतई नहीं की जा
सकती.. उनके साहित्यिक अवदानों से संतोष जरूर किया जा सकता है । शत्रुघ्न
प्रसाद जी…अर्थात एक ‘पिनाकधारी साहित्यिक योद्धा की अविस्मरणीय स्मृति
भी साहित्य जगत में मेरे जैसे अनेक लोगों के लिए ‘सदानीरा’ बनी रहेगी ।
• मनोज ज्वाला ; जुन’ २०२१