चुनाव-पर्व की पवित्रता और दिदी की ‘मासिक धर्मनिरपेक्षता’
रामकृष्ण परमहंस की तपोभूमि और विवेकानन्द की ज्ञानभूमि पश्चिम
बंगाल में वहां के शासन की धर्मनिरपेक्षता इन दिनों फिर उफान पर है ।
सियासत की तिजारत में वामपंथियों को परास्त कर चुकी ममता दिदी अपनी
धर्मनिरपेक्षता का एक ऐसा कीर्तिमान स्थापित कर चुकी हैं जिसके कारण
बंगाल के आसन्न चुनाव-पर्व में अब भाजपा को भी कडी चुनौतियों का सामना
करना पड रहा है । बंगाल में आसन्न विधान-सभा-चुनाव की सन्निकटता को देखते
हुए एक ओर दिदी अपनी धर्मनिरपेक्षता को और चमकाने में लगी हुई हैं तो
दूसरी ओर भाजपा चुनाव-पर्व की पवित्रता को ले कर आक्रामक दिख रही है ।
उसे यह आशंका सता रही है कि दिदी अपनी तीव्र धर्मनिरपेक्षता के जरिये
भाजपा के राष्ट्रवाद का मुकाबला करने के जोश में कहीं सत्ता के दुरुपयोग
से चुनाव-प्रक्रिया की पवित्रता को ही तिरोहित न कर दें । ध्यातव्य है कि
ममता बनर्जी एक ऐसी मुख्यमंत्री के रुप में कुख्यात हो चुकी हैं जो
भारतीय गणतंत्र के ‘संघ-राज्य’ सम्बन्धों को अनेक मौकों पर तार-तार कर
चुकी हैं और अनेक बार केन्द्रीय संस्थाओं की भी अवज्ञा करती रही हैं ।
इसकी वजह दिदी की वह सोच है जिसके तहत वो अपनी ‘तृणमूल कांग्रेस’ को
कठोर ‘धर्मनिरपेक्ष’ प्रदर्शित करती रही हैं और भाजपा को
‘धर्मनिरपेक्षता-विरोधी’ प्रचारित करने की मशक्कत करती रही हैं ।
धर्मनिरपेक्षता की धुरी पर घूम रही बंगाली राजनीति के चुनावी प्रसंग ने
१६वीं संसदीय-चुनाव से ठीक पहले प्रकाशित मेरे उपन्यास ‘सेक्युलर्टाइटिस’
में वर्णित “दिदी की मासिक धर्मनिरपेक्षता” के पुनर्पाठ को एक बार फिर
प्रासंगिक बना दिया है । मालूम हो कि ‘सेक्युलर्टाइटिस’ एक ऐसा उपन्यास
है , जिसमें अपने देश के तमाम राजनेताओं द्वारा कायम की गई किसिम-किसिम
की धर्मनिरपेक्षताओं की प्रदर्शनी लगा कर महात्मा गांधी से उनका अवलोकन
कराया गया है और यह तथ्य स्थापित किया गया है कि ‘धर्मनिरपेक्षता’ असल
में ‘घोर साम्प्रदायिकता’ का एक छद्म नाम है, जबकि धर्मनिरपेक्ष तो हुआ
ही नहीं जा सकता है । बावजूद इसके जिस अर्थ में अपने यहां धर्मनिरपेक्षता
कायम है उसके संक्रमण से ‘सेक्युलर्टाइटिस’ नामक एक राजनीतिक बीमारी फैल
रही है, जिसका उन्मूलन राष्ट्रीय एकात्मता से ही सम्भव है । गत संसदीय
चुनाव के दौरान नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में सम्पन्न हुए राष्ट्रीय
एकात्मता यज्ञ की लपटों से इस बीमारी को फैलाने वाले अधिकतर
जीवाणु-विषाणु ‘उडन-छू’ हो गए थे । किन्तु उनमें से कुछ पुनः जहर उगलने
लगे हैं । तो प्रस्तुत है इस उपन्यास में वर्णित दिदी की ‘मासिक
धर्मनिरपेक्षता’ का वह अंश-
- आइए-आइए .... ‘सुआगत’ है । लोगों को अपनी ओर आते देख बंगाली लिबास में
खडी एक महिला प्रवक्ता उत्सुक भाव से सबको बुलाने लगी ।
- यह कौन सी पार्टी है ? महात्मा जी ने मोहम्मद साहब से पुछा । किन्तु,
वह प्रवक्ता ही बोल उठी- आइए , बंगमूल पार्टी की इस धर्मनिरपेक्षता
प्रदर्शनी में आप सबका ‘सुआगत’ है ।
- यह बंगाल की कोई पार्टी है क्या जी ?- महात्मा जी ने कुछ समझते हुए कहा
तो मोहम्मद साहब बोल उठे-....वो बंगाल की एक दिदी ने बना रखी है- बंगमूल
कामरेस । कांमरेस की वो मामता जी बीच में हिजपा से हाथ मिला ली थीं ,
किन्तु अब सुनते हैं, काफी धर्मनिरपेक्ष हो गई हैं ।
- ....जी पहले की बात छोडिए ....- वह बंगमूली प्रवक्ता बोलने लगी- अब
दिदी में बहुत ‘पोरिवर्तन’ हो गया है ।
- अच्छा !- मोहम्मद साहब विस्मित होते हुए महात्माजी को ले कर उस बढ गए ।
- ...जी, दिदी अब नाम भी बदल चुकी हैं अपना । ‘मोमता बानो अर्जी’ है अब
उनका ‘पोरिवर्तित’ नाम ।
- मगर नाम क्यों बदल लिया ? – महात्मा जी के साथ चल रहे डाक्टर साहब ने पुछा ।
- क्योंकि वामपंथियों को सत्ता से दूर किए रखने के लिए दिदी ने एक से एक
धर्मनिरक्षतायें कायम की हुई हैं जनाब । चूंकि दिदी के व्यक्तित्व में
कोई आडम्बर नहीं है , बिल्कुल सीधा-सादा संयमित हैं उनका रहन-सहन , इसलिए
उनके द्वारा स्थापित की गईं धर्मनिरपेक्षतायें एकदम साफ-सुथरी व
सीधी-सपाट हैं ; किन्तु काफी मजबूत टिकाऊ और असाधारण हैं, असाधारण ।
- अच्छा ! सीधी-सपाट और असाधारण !- महात्मा जी को सादगी की बात पसंद आने लगी ।
प्रवक्ता तुरंत एक प्रोफाइल खोल दी और बोल पडी-...यह देखिए
.... हमारी दिदी की ‘ मासिक धर्मनिरपेक्षता’ !
- क्या...? दिदी की मासिक धर्मनिरपेक्षता ?- डाक्टर साहब के साथ महात्मा
जी भी चौंक उठे ।
- जी..., हमारी दिदी की ‘मासिक धर्मनिरपेक्षता’ ! इसका मुकाबला कोई नहीं
कर सकता ।- प्रवक्ता की आंखें चमक उठी ।
- क्या मतलब ? ‘मासिक धर्म’ तो स्त्रियों की सहज-स्वाभाविक प्राकृतिक
क्रिया होती है जी । उससे भला कैसे निरपेक्ष हुआ जा सकता है ?- डाक्टर
साहब ने कौतूहलपूर्वक पुछा, तो मोहम्मद साहब व महात्मा जी के साथ खडी
मीरा एकबारगी झेंप गई । उधर वह प्रवक्ता भी सकपका गई, मगर तुनकते हुए वह
तत्क्षण झल्ला उठी-
- आपको शर्म नहीं आती ? बुजुर्ग आदमी हो कर भी ऐसी अश्ली बातें करते हैं
!- प्रवक्ता बोलती ही जा रही थी-.... मैं मासिक धर्मनिरपेक्षता बता रही
हूं , तो आप ‘ मासिक धर्म’ की बात कह रहे हैं !
- लेकिन , तो ‘ मासिक धर्म’ से आखिर कैसे निरपेक्ष हुआ जा सकता है , जो ‘मासिक धर्मनिरपेक्षता’ बता रही हो तुम , ... ठीक ही तो कह रहे हैं डाक्टर
साहब ।- मीरा ने हस्तक्षेप किया , तो प्रवक्ता सहम गई और झेंपती हुई बोल
पडी-
- ....अरे ....वो ‘ मासिक धर्म’ नहीं बहन.... ‘ मासिक धन’ ।
- मासिक धन ? ... तो धर्मनिरपेक्षता कैसी ?- इस बार मोहम्मद साहब को अचरज हुआ ।
- अरे वही बता रही हूं , वही... सुनिए तो सही- प्रवक्ता बोलने लगी- हमारी
दिदी की सरकार भारतीय संविधान के धर्मनिरपेक्ष मूल्यों की रक्षा के लिए
पूरे बंगाल भर में सभी मस्जीदों के इमामों को देती है मासिक मानधन ; इसी
कारण ‘मासिक धर्मनिरपेक्षता’ हुआ इसका नामकरण ।
- अच्छा...अच्छा ! .... तो ये है ‘मासिक धर्मनिरपेक्षता’ का मर्म !-
महात्मा जी ने अपना चश्मा उतारते हुए उत्सुकतापूर्वक कहा- अब जरा विस्तार
से बताइए ।
- देखिए – प्रवक्ता मचलती हुई बताने लगी- पूरे बंगाल में छोटी-बडी सभी
मस्जीदों की संख्या है लगभग ९० हजार । उन सभी मस्जीदों में अजान अदा करने
वाले इमामों को हमारी दिदी सरकारी खजाने से मासिक भत्ता देती है- हर माह
तीन-तीन हजार , जबकि मंदिरों में कार्यरत पुजारियों को फुटी कौडी भी नहीं
देती है दिदी की सरकार । संघियों-हिजपाइयों के घोर विरोध के बावजूद हमारी
दिदी ने अकेले अपने दम पर किया है इस ‘ मासिक धर्मनिरपेक्षता’ का
आविष्कार । वो मुख्यमंत्री होने के बावजूद हवाई चप्पल पहनती हैं और खुद
पर खर्च करती हैं मात्र हजार-डेढ हजार , किन्तु लगभग एक लाख इमामों को
प्रतिमाह देती हैं लाखों का उपहार । ऐसा सादगीपूर्ण है इस धर्मनिरपेक्षता
का आकार-प्रकार ।
- वाह ! लेकिन यह तो भेदभावपूर्ण है , आखिर मंदिरों के पुजारियों को भी
मासिक भत्ता क्यों नहीं देती आपकी दिदी की सरकार ?- महात्माजी के साथ
साराजहां भी बोल उठी ।
- नहीं .... भेदभावपूर्ण कैसे है ? इसमें कोई भेदभाव नहीं है । -
प्रवक्ता समझाने लगी- मंदिरों में पुजारी तो पूजा करते हैं , जबकि
मस्जीदों में इमाम जो होते हैं, सो नमाज पढते-पढाते हैं । पढाने वालों को
ही तो वेतन पाने का अधिकार संविधान से भी मिला हुआ है । जहां कहीं
स्कूल-कालेज में हिन्दू भी पढाते हैं , तो उन्हें भी उचित वेतनमान तो
देती ही है बंगमूल सरकार , तो भेदभावपूर्ण कैसे है उनका व्यवहार ? पुजारी
तो कुछ पढाते ही नहीं हैं, केवल पूजा-पाठ करते रहते हैं , घंटी बजा-बजा
कर , तो उन्हें मानधन क्यों देगी सरकार ?- प्रवक्ता ने वाकपटुतापूर्वक
कुटिल अंदाज में कहा ।
- अच्छा-च्छा ऐसी बात है , तब तो आपकी दिदी की मासिक धर्मनिरपेक्षता
वाकई ध्यान देने योग्य है ।- ऐसा कहते हुए महात्मा जी आगे बढने लगे तो
बंगमूल पार्टी की वह प्रवक्ता चिल्लाने लगी- ...और भी देख लीजिए...
मुस्लिम लडकियों की शिक्षा के लिए निःशुल्क तकनीकी प्रशिक्षण संस्थान और
निःशुल्क रेलवे पास के बावत भी शत-प्रतिशत अनुदान देती है, हमारी दिदी की
सरकार । वह दूसरी प्रोफाइल खोल ही रही थी कि महात्मा जी दर्शकों के साथ
तत्क्षण आगे बढ गये ।
मालूम हो कि बंगाल में ममता-सरकार मस्जीद के इमामों को मासिक
भत्ता देने का कीर्तिमान बहुत पहले स्थापित कर चुकी है । अबआप समझ सकते
हैं कि दिदी की ऐसी धर्मनिरपेक्षता से लोकतंत्र का दामन कितना दागदार हो
चुका है और किसी राज्य की मुख्यमत्री का दामन बेदाग नहीं है तो उसके
क्रिया-कलापों से उस राज्य के चुनाव-पर्व की पवित्रता कायम रखना कितनी
बडी चुनौती है ।
• मनोज ज्वाला, जनवरी’ २०२१
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