भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की विरासत सियासत और हकीकत


भारत में राजनीति और राजनीतिक दलों की चर्चा के दौरान अपने देश की
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का नाम आते ही आम तौर पर हमारी आंखों के सामने
लाला लाजपत राय, बाल गंगाधर तिलक, विपिनचन्द्र पाल, मदन मोहन मालवीय,सरदार बल्लभ भाई पटेल, राजेन्द्र प्रसाद और के० एम० मुंशी सरिखे
विद्वानों-अधिवक्ताओं-नेताओं के नेतृत्व का गौरव प्राप्त कर चुकी
स्वतंत्रता-संघर्ष् कालीन् कांग्रेस की अहिंसक छवि मचलने लगती है ।
१९वीं सदी में स्थापित उस कांग्रेस की अहिंसक छवि, जिसे २०वीं सदी में
एक ‘महात्मा’ ने ‘हिन्द-स्वराज’ की अपनी अवधारणा के साथ
सत्य-अहिंसा-सेवा-संयम-स्वदेशी की पंचाग्नि से तपा कर उसे गांव-गांव तक
राष्ट्रव्यापी विस्तार देते हुए देश के तमाम सत्ता-प्रतिष्ठानों पर आरूढ
कर दिया था । किन्तु २१वीं सदी में सत्ता से बेदखल हो चुकी वर्तमान
विपक्षी कांग्रेस, वह कांग्रेस नहीं है, जो ‘महात्मा-युग’ में चरखा के
खादी उत्पादों और रामधुन के पदों से परिभाषित हुआ करती थी । यह वह
कांग्रेस भी नहीं है, जो ब्रिटिशकालीन भारत की कोटि-कोटि जनता के एकमात्र
प्रतिनिधि-संगठन के रुप में नामित-गौरवान्वित हुआ करती थी । यह वह
कांग्रेसतो कतई नहीं है, जिसे भारत की आजादी के तुरंत बाद महात्माजी ने
भंग कर देने और उसे ‘लोकसेवक संघ’ में तब्दील कर देने की थी सिफारिश की
थी । स्वतंत्रता-संघर्ष एवं उस ऐतिहासिक विरासत से संपन्न कांग्रेस हकीकत
में तो एक ऐसी कांग्रेस है जो महात्माजी की उक्त सिफारिश के अनुसार
विघटित नहीं हुई बल्कि जवाहरलाल नेहरु के हाथों आतंकित व अपहृत हो कर
सत्तासीन जरूर हुई किन्तु कालान्तर बाद कायान्तरित हो जाने के बावजूद
राज-रोग से ग्रसित होते-होते अब एक पारिवारिक मिल्कियत में तब्दील हो
चुकी है । जबकि इसके अपहर्ता-नेता-नियन्ता गण इसे ही वही
स्वतन्त्रता-संघर्षकालीन ऐतिहासिक कांग्रेस बता-बता कर समूचे देश को
भ्रमित कर रहे हैं । मालूम हो कि एक अंग्रेज हाकीम ए०ओ०ह्यूम के हाथों
स्थापित व कभी विदेशी-अंग्रेजी शासन की ही हस्तक रही यह वह कांग्रेस है,
जो आंग्रेजों की कुटिल दुरभिसंधि के परिणामस्वरुप स्वतन्त्रता-संघर्षकाल
में जिन्ना व नेहरु के हाथों आतंकित होकर स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद
प्रधानमंत्री नेहरु के हाथों अपहृत हो गई थी एवं ७० के दशक में इन्दिरा
गांधी के हाथों विभाजित हो कर ‘कांग्रेस ई’ नाम से कायान्तरित हो गई और
उसके साथ ही वह असली कांग्रेस मृत हो गई ।
किन्तु इधर हाल के कुछ वर्षों से विशेष कर १६वीं लोकसभा चुनाव
के मद्देनजर २०१० के आरम्भ से ही देश भर में एक बहुत बडा झूठ प्रचारित
किया-कराया जाता रहा कि यह वही कांग्रेस है जो सन १८८५ में स्थापित हुई
थी । इसी आधार पर वर्ष २०१० में इसकी १२५वीं जयन्ती भी मनाई गई देश भर
में धूमधाम से । बीतते समय के साथ अब यह १३५ वर्ष पुरानी बतायी जा रही
है और सम्भव है आगे भी इसकी बढती उम्र बतायी जाती रहेगी । किन्तु यह
सरासर झूठ और मिथ्या दुष्प्रचार है जिसकी हवा निकल चुकी है । सच तो यह
है कि इस वर्तमान कांग्रेस की उम्र है महज ५० वर्ष की है ।
मालूम हो कि आजादी-प्राप्ति के बाद महात्माजी ने जब यह लिखित
निर्देश दे डाला कि कांग्रेस देश को स्वतन्त्रता दिलाने का लक्ष्य हासिल
कर चुकी है इसलिए अब इसे देश की राजसत्ता पर आसीन होने अथवा होते रहने की राजनीति करने के हेतु राजनीतिक संगठन के रुप में बनाये रखने का कोई
औचित्य नहीं है , क्योंकि देश में सत्ता से दूर हरिजनोद्धार व
ग्रामोत्थान के बडे-बडे काम करने को पडे हैं , अतएव कांग्रेस को भंग कर
उसे “हरिजन सेवक संघ” बना दिया जाये ; तब नेहरु ने सत्ता हासिल करने व
भविष्य में भी करते रहने की उस सीढी का काम तमाम होते देख उनके उस
निर्देश को मानने से इंकार कर दिया इंकार कर दिया था । नेहरु ने महसूस
किया कि महात्मा जी के तप-त्याग से चमत्कृत कांग्रेस ही एक ऐसा चुम्बकीय
उपकरण है , जिसके सम्मोहन से जनता को सम्मोहित कर महात्माजी के नहीं रहने
पर आगे भी राजसत्ता हासिल करते रहना आसान हो जायेगा, इसलिए उन्होंने उसे
भंग करने से तो कर ही दिया इंकार , उसे हथिया लेने की भी कोशिश करते रहे
लगातार । महात्माजी जब परलोक सिधार गये , तब कांग्रेस के सिर पर चढ कर
बोलने लगा नेहरु का तत्सम्बन्धी स्वेच्छाचार । उन्होंने कांग्रेस के
तत्कालीन अध्यक्ष पुरुषोतम दास ट्ण्डन के विरुद्ध अभियान छेड दिया और सन
१९५० बीतते-बीतते येन-केन-प्रकारेन टण्डन के हाथों से छीन कर अपने हाथों
में ले ली कांग्रेस की कमान । इस तरह से नेहरु ने महात्मावादी कांग्रेस
का अपहरण कर लिया और तब फिर उस संगठन मे महात्मावादी कांग्रेसियों को
दरकिनार कर अपने चापलूसों की फौज से उस पर अपना एकाधिकार कायम कर लिया । इतना ही नहीं उन्होंने अपने जीते-जी उस अपहृत कांग्रेस की बागडोर अपनी बेटी इन्दिरा को थमा दिया । फिर नेहरुजी के मरणोपरांत उनकी बेटी इन्दिरा तो पूरी कांग्रेस पर मनमाना शासन करने लगी । वंशवाद के उस आघात से १९६९ आते-आते बचे-खुचे लगभग सारे महात्मावादी कांग्रेसी, यथा- एस० निजलिंगप्पा,
मोरारजी देसाई व एस० के० पाटिल आदि ऐसे मर्माहत हो गए कि वह अपहृत
कांग्रेस भी मरणासन्न हो गई । तब इन्दिरा ने उस घायल-मरणासन्न कांग्रेस
को छोड, अपने तमाम नेहरुवादी कांग्रेसियों-चापलूसों को साथ ले पृथक हो
कर अपनी नयी कांग्रेस कायम कर लीं ; विल्कुल अपने नाम से –‘इन्दिरा
कांग्रेस’ अर्थात कांग्रेस-इ ( congress I ) और मोरारजी भाई आदि तमाम
महात्मावादी कांग्रेसियों को उस मरणासन्न अपहृत कांग्रेस के साथ छोड दी ।
फिर मीडिया के सहयोग और अपनी सरकार के दुरुपयोग से वे यह प्रचारित कराती
रहीं कि “इन्दिरा-कांग्रेस” ही है असली कांग्रेस । जबकि वास्तव में
मोरारजी भाइयों की जो थी असली कांग्रेस सो तो नेहरुजी के हाथों अपहृत
होने के बाद इन्दिराजी के प्रहार से घायल होकर चारो खने चित हो मरणासन्न
पडी हुई थी । वह घायल कांग्रेस लगभग एक दशक तक मृत्यु-शय्या पर पडी-पडी
नेहरु-इन्दिरा के हाथों हुए अपहरण-दमन दर्द भुगतती रही जो १९८० में गठित
इन्दिरा-विरोधी जनता पार्टी में तिरोहित-विसर्जित हो अन्ततः छोड ही दी
संसार । तब से ही इस दुनिया में कहीं भी सन १८८५ में स्थापित ‘भारतीय
राष्ट्रीय कांग्रेस’ नामक राजनीतिक संगठन का कोई वजूद नहीं देखा जा रहा
है । बावजूद इसके, १९६९ में गठित-कायान्तरित इस ‘इन्दिरा-कांग्रेस’ को ही
“वही कांग्रेस” बता-बता के उसके जीवित बचे होने की भ्रांति फैला कर देश
भर के नेहरुवादी बुद्धिजीवी व इन्दिरा गांधी और अब उनकी बहु सोनिया गांधी
सहित तमाम कांग्रेसी उस ‘राष्ट्रीय कांग्रेस’ के अपहरण-उन्मूलन का सबूत
मिटाते रहे है । ऐसे में इन तमाम नेताओं व इनके झण्डाबरदारों पर तो
ठगी-जालसाजी का आपराधिक मामला दर्ज होना चाहिए । क्योंकि, एक परिवार
विशेष के राजनीतिक व्यवसाय का प्रतिष्ठान बनी इस ५० वर्षीया कांग्रेस को
देश के महान स्वतंत्रता सेनानियों के तप-त्याग से निर्मित व गौरवपूर्ण
ऐतिहासिक विरासतों से युक्त बताकर निजी स्वार्थवश झूठ के सहारे
जन-साधारण को ठगना व भ्रमित करना किसी अपराध से कम नहीं है । देश की
कोई शासनिक अदालत भले ही इस मामले पर कोई सुनवाई न कर सकी हो किन्तु
पिछले दो-दो संसदीय चुनावों के दौरान जनता की अदालत में इस सच्चाई की
सुनवाई होती रही है और कांग्रेसियों के इस दावे को सिरे से खारिज किया जा
चुका है । यही कारण है कि इस वर्तमान तथाकथित ‘राष्ट्रीय कांग्रेस’ को
संसद में ‘प्रतिपक्ष’ की हैसियत का जनादेश भी नहीं मिल पा रहा है । अब तो
यह ‘इन्दिरा कांग्रेस’ भी नहीं रह गई बल्कि अघोषित रुप से ‘सोनिया कांग्रेस’ में तब्दील हो चुकी है क्योंकि यह सिर्फ और सोनिया गांधी और उनके परिवार की तथाकथित राजनीति को ढोने वाली ‘पालकी’ से अधिक और कुछ नहीं है ; जबकि अधिकतर कांग्रेसी उस पालकी को कन्धे पर ले कर चलने वाले ‘कहार’ बन चुके हैं और शेष ‘वरिष्ठगण’ सोनिया-दरबार’ में ताता-थैया करने वाले ढोलची-तबलची ।
• मनोज ज्वाला ; दिसम्बर’ २०२०