गांधी के ‘हिन्द-स्वराज’ पर विमर्श करे शासन और समाज
महात्मा गांधी के समस्त चिन्तन-दर्शन का मूल है, उनका
‘हिन्द-स्वराज’ । ‘हिन्द-स्वराज’ वह नहीं , जिसके नाम पर बडी-बडी
संस्थायें कायम हैं और बडे-बडे गांधीवादियों ने अपनी-अपनी राजनीति चमका
ली । हिन्द-स्वराज वह भी नहीं है, जिसका नारा दे कर अरविन्द केजरीवाल ने
दिल्ली की सत्ता हथिया ली । हिन्द स्वराज तो अंग्रेजी शासन से मुक्त
हिन्दुस्तान के स्वयं के राज्य का ऐसा राजनीतिक दर्शन है , जिसके
सम्बन्ध में इस दर्शन के प्रणेता महात्मा गांधी ने ही कहा है कि केवल
अँगरेजों को और उनके राज्य को हटा देना स्वराज नहीं है । अंग्रेज अगर
चाहें तो यहीं रहें, किन्तु हमारी भारतीय सभ्यता-संस्कृति को आत्मसात कर
लें, तो बेशक यह भारत का स्वराज अर्थात हिन्द स्वराज होगा । महात्मा जी
का ‘हिन्द स्वराज’ वस्तुतः भारतीय और अभारतीय सभ्यताओं के बीच संघर्ष में
भारतीय सभ्यता का राजनीतिक प्रतिविम्ब है । ‘हिन्द स्वराज’ नामक अपनी
पुस्तक में गांधीजी ने कहा है “ दुनिया को जो सभ्ययता हिंदुस्तान ने
दिखाई है, वह अन्यत्र कहीं नहीं है । जो बीज हमारे पुरखों ने बोए हैं,
उनकी बराबरी कोई कर सके , ऐसी कोई चीज देखने में अन्यत्र कहीं नहीं आई है
। रोम मिट्टी में मिल गया, ग्रीस का सिर्फ नाम ही रह गया, मिस्र की
बादशाही चली गई, जापान पश्चिम के शिकंजे में फँस गया और चीन का कुछ भी
कहा नहीं जा सकता । लेकिन गिरा-टूटा , जैसा भी हो, भारत आज भी अपनी
बुनियाद से मजबूत है । जो रोम और ग्रीस गिर चुके हैं, उनकी किताबों से
यूरोप के लोग सीखते हैं और वैसी गलतियाँ वे नहीं करेंगे, ऐसा गुमान रखते
हैं । उनकी कंगाल हालत ऐसी है । जबकि हिंदुस्तान अचल है, अडीग है । यही
इसका भूषण है । भारत के लोगों पर युरोप के लोग अक्सर ऐसा आरोप लगाते
रहते हैं कि वे ऐसे जंगली, व अज्ञानी हैं कि उनसे जीवन में कुछ फेरबदल
कराए ही नहीं जा सकते । किन्तु यह आरोप हमारा गुण है, दोष नहीं । अनुभव
से जो हमें ठीक लगा है, उसे हम क्यों बदलेंगे? बहुत से अकल देने वाले
यहां आते जाते रहतें हैं, पर भारत अडीग रहता है, यह इसकी खूबी है ।”
भारतीय सभ्यता-संस्कृति के प्रति गांधीजी का आग्रह इतना प्रचण्ड है कि वे
कहते हैं- अंग्रेजों को भारत से बाहर निकालने का मकसद सामने रखने की
जरुरत नहीं है, अंग्रेज अगर भारतीय सभ्यता-संस्कृति को आत्मसात कर के
यहां रहें तो हम यहां उन्हें समायोजित कर सकते हैं । लेकिन अगर वे अपनी
सभ्यता के साथ यहां रहना चाहें तो भारत में उनके लिए कोई जगह नहीं है ।”
हिन्द स्वराज में ऐसी सख्त वर्जना की घोषणा करने वाले गांधीजी अंग्रेजों
की सभ्यता को आसुरी सभ्यता करार देते हुए उसे मानवता के लिए घातक बताते
हैं , क्योंकि वह नस्ल-भेद और शोषण-दमन तथा असत्य व अन्याय पर आधारित
भोगवादी सभ्यता है । वे कहते हैं कि युरोप की अंग्रेजी शिक्षा पाये हुए
भारत के जो लोग उसके पाश में फंस चुके हैं वे ही लोग गुलामी से घिरे हुए
हैं , क्योंकि वह शिक्षा भी गुलाम बनाने वाली है ।
गांधीजी के हिन्द स्वराज का ‘स्वराज’ स्वतंत्रता का पर्याय नहीं
है । ‘स्वराज’ की अपनी अवधारणा का विश्लेषण करते हुए उन्होंने व्यापक
अर्थ में संपूर्ण नैतिक स्वतंत्रता और संकुचित अर्थ में व्यक्ति अथवा
राष्ट्र की नकारात्मक स्वतंत्रता के बीच अन्तर स्पष्ट किया है । उन्होंने
लिखा है कि “ मेरे पास इंगलिश में स्वराज को समझाने के लिये कोई उपयुक्त
शब्द नहीं हैं । ‘स्वराज’ का मूल अर्थ स्वतंत्रता से भिन्न है । इसे
आत्म-शासन अथवा अंतःकरण का अनुशासित शासन कहा जा सकता है । अंग्रेजी के
शब्द ‘इण्डिपेण्डेण्ट’ अर्थात् स्वतंत्रता का अर्थ स्वराज के समान कतई
नहीं है । स्वतंत्रता और स्वराज में फर्क है । क्योंकि स्वतंत्रता का
अर्थ है- बिना रोक टोक अपनी मनमर्जी करने की छूट । किन्तु ठीक इसके
विपरीत स्वराज का अर्थ है- आत्मानुशासन से अनुशासित । स्वराज की धारणा
सकारात्मक है , जबकि स्वतंत्रता नकारात्मक है । स्वराज एक पवित्र शब्द
है, एक दैविक शब्द है , जिसका अर्थ है- आत्म नियंत्रित व आत्म-शासित, न
कि सभी वर्जनाओं से मुक्त । अतएव, हमें अपनी आत्मा से अपने संस्कारों से,
अर्थात अपनी सभ्यता-संस्कृति से शासित होना चाहिए । भारत के पढ़े-लिखे चंद
लोग युरोपीय सभ्यता के मोह में फँस गए हैं , किन्तु जो लोग उसके प्रभाव
में नहीं आये हैं, वे भारत की धर्मपरायण नैतिक सभ्यता-संस्कृति को ही
अनुशासन के योग्य मानते हैं और हिन्द स्वराज का आधार यही है ।
गांधीजी का ‘हिन्द स्वराज’ भारत को अंग्रेजी सभ्यता युक्त शासन की
दासता से मुक्त कर भारतीय सभ्यता की देशज शासन-व्यवस्था से युक्त करने की
वकालत करता है । इसके लिए वे अंग्रेजों द्वारा कायम की गई हर व्यवस्था को
उखाड फेंकना चाहते हैं । शिक्षा, चिकित्सा व न्याय की पारम्परिक भारतीय
व्यवस्था को तत्सम्बन्धी अंग्रेजी व्यवस्था से सर्वतोभावेन बेहतर आंकते
हुए वे उसे पुनर्स्थापित करने का औचित्य भी सिद्ध करते हैं । इसी तरह से
वे अंग्रेजों की ‘पार्लियामेण्टरी सिस्टम’ (संसदीय व्यवस्था) के प्रति भी
असहमति जताते हैं और कहते हैं कि वह तो व्यक्ति को गुलाम बनाने वाली
निरर्थक एवं बोझिल व्यवस्था है । इस अर्थ में ब्रिटेन की पार्लियामेण्ट
को उन्होंने ‘बांझ वेश्या’ कहा है । उनके हिन्द स्वराज की बुनियाद ‘ग्राम
स्वराज’ है, अर्थात भारत के सात लाख गांवों का अपना-अपना स्वराज । इसी
कारण वे शहरीकरण और अनावश्यक मशीनीकरण के सख्त खिलाफ हैं । सन १९४५ में
अपने हिन्द स्वराज के बावत जवाहरलाल नेहरु को लिखे खत में गांधीजी कहते
हैं कि “भारत में सात लाख गांव हैं, तो समझो कि सात लाख हुकुमतें कायम
होनी चाहिए ”। वे हर गांव को हर मायने में आत्मनिर्भर बनाना चाहते थे ।
अर्थात, गांव में इतना सब कुछ हो कि ग्रामीणों को शहर की ओर पलायन ही न
करना पडे । शिक्षा, चिकित्सा व न्याय तो गांव में ही भारतीय रीति से सबको
सहज ही सर्वसुलभ हो ।
किन्तु स्वतंत्र भारत का शासन महात्मा गांधी के उस ‘हिन्द
स्वराज’ को प्रयोग के योग्य भी नहीं समझा । अंग्रेजों से हस्तान्तरित
सत्ता पर गांधी के सहारे ही सत्तासीन हुए लोगों द्वारा गांधी के हिन्द
स्वराज को संग्रहालय में कैद कर अंग्रेजों की ही बनाई हुई तमाम
व्यवस्थाओं को संजोये रखने में शासन की शक्ति का इस्तेमाल किया जाता रहा
। शिक्षा-पद्धति से ले कर न्याय-व्यवस्था तक वही की वही रह गई । फलतः
भारतीय सभ्यता-संस्कृति पर अंग्रेजी असभ्यता-अपसंस्कृति का आक्रमण अब तो
और तेज हो गया है । राष्ट्रभाषा हिन्दी को दरकिनार किया जाता रहा और
अंग्रेजी का मान बढाया जाता रहा । शासन तो शासन, समाज भी ‘हिन्द स्वराज’
से विमुख होता रहा । फलतः कहीं गांव के गांव शहर की ओर भागते दिख रहे
हैं, तो कहीं गांवों को शहर लीलते-निगलते जा रहे हैं । हालत ऐसी हो गई है
कि जनसंख्या के बोझ से कराहते शहरों को ‘स्मार्ट सिटी’ बनाना ही अब तो
विकास का पैमाना बन चुका है । ऐसे में महात्माजी की १५०वीं जयन्ती के
उपलक्ष्य में कम से कम उनके ‘हिन्द स्वराज’ पर शासन और समाज के बीच एक
सार्थक विमर्श तो होना ही चाहिए , तभी देश के संतुलित विकास को सन्मार्ग
मिलेगा और तदनुसार उसकी गति में तेजी आएगी ।
• मनोज ज्वाला; अक्तूबर’२०२०
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