आसेतु-हिमाचल ‘एक देश - एक शिक्षा’ की हो पहल
भारत-सरकार की राष्ट्रीय शिक्षा नीति-२०२० पर इन दिनों देश भर में
चर्चा-परिचर्चा का दौर चल रहा है । भाजपाई केन्द्र सरकार की इस नई
राष्ट्रीय शिक्षा नीति को कई अर्थों में पहले की शिक्षा नीति से बेहतर
बताया जा रहा है । जबकि देश के जिन राज्यों में भाजपा का शासन नहीं है
वहां की सरकारों ने इस नयी शिक्षा-नीति के प्रति असहमति जताते हुए इसे
लागू करने से इंकार भी कर दिया है । ऐसे में सवाल यह उठता है कि सम्पूर्ण
भारत भर में जब तक एक समान शिक्षा की व्यवस्था अनिवार्य रुप से कायम नहीं
की जाएगी तब तक किसी भी केन्द्र सरकार द्वारा नयी-नयी राष्ट्रीय
शिक्षा-नीतियां निर्मित-घोषित करने का भला क्या अर्थ है ? मालूम हो कि
भारत में शिक्षा एक ऐसा मसला है जो भारतीय संविधान की ‘समवर्ती सूची’
में शामिल है अर्थात यह संघीय शासन (केन्द्र सरकार) व प्रान्तीय शासन
(राज्य सरकार) दोनों का संयुक्त मसला है; दोनों ही सरकारें शैक्षिक नीति
का निर्धारण व क्रियान्वयन कर सकती हैं । लेकिन सर्वाधिक भूमिका राज्य
सरकारों की ही होती है । यही कारण है कि देश भर में एक समान शिक्षा का एक
‘राष्ट्रीय स्वरुप’ निर्मित नहीं हो सका है शिक्षा की असमानता एक
ऐसा कारक है जिसके कारण देश में कभी शिक्षितों का एक वर्ग भारत राष्ट्र
को टुकडे-टुकडे कर देने के लिए आन्दोलित हो उठता है, तो कभी
राष्ट्रद्रोहियों-आतंकियों की तरफदारी करते हुए देखा जाता है ; किसी
राज्य के शिक्षित लोग रावण-महिषासुर का महिमामण्ड्न करते हुए देवी दुर्गा
के विरुद्ध कीचड उछालने लगते हैं, तो कहीं का शिक्षित समुदाय भरतीय
संस्कृति से विमुख हो अविवाहित सहवास (लीव-इन-रिलेशन) व समलैंगिक विवाह
की वकालत करने लगता है ; उच्च शिक्षित समुदाय के लोग देश के संसाधनों से
पढ-लिख कर विदेशों में जा बसने को लालायित रहता है, तो दूसरा शिक्षित
समुदाय रोजी- रोजगार के लिए देश भर में दर-दर की ठोकरें खाता-फिरता है ;
एक शिक्षित वर्ग भारत की हर चीज से घृणा करते हुए भारतीय होने में शर्म
का अनुभव करता है , तो दूसरा शिक्षित वर्ग भारत के इतिहास-विरासत-परम्परा
से प्रेम करते हुए भारतीय अस्मिता पर गैरवान्वित महसूस करता है ; एक
शिक्षित वर्ग पढ-लिख कर नौकरी-व्यवसाय के द्वारा घूस-रिश्वत, लूट-खसोट
आदि विभिन्न तरीकों से बेशुमार धन कमाने में ही जीवन की सार्थकता समझता
है . तो दूसरा वर्ग नीति-न्याय-सत्य-सादगी के मार्ग का अनुसरण करते हुए
देश के लिए मर-मिट जाने को ही अपने जीवन का ध्येय मानता है ; एक शिक्षित
वर्ग वन्दे मातरम के उद्घोष व भारत माता की जय के स्वर से रोमांचित हो
उठता है तो दूसरा वर्ग इस जयघोष के विरोध में आन्दोलन पर उतर आता है ।
सबके अपने-अपने बौद्धिक तर्क हैं, सबकी अपनी-अपनी प्रेरणायें-मान्यतायें
हैं, जो सबकी पृथक-पृथक शैक्षिक स्थापनाओं से निर्मित हुए हैं । ऐसी
भिन्न-भिन्न मानसिकताओं व मान्यताओं के निर्माण में असमान शिक्षा की अहम
भूमिका है । असमान शिक्षा का ही यह परिणाम है कि हम और हमारी पीढियां
स्वयं के इतिहास-बोध पर भी एकमत नहीं हैं । कहीं यह पढा-पढा जाता है कि
हम विदेशी मूल के आर्य हैं, तो कहीं यह कि हमारे पूर्वज अनपढ गंवार मदारी
पिण्डारी थे, जबकि सच यह है कि हम ज्ञान को भी आलोकित करने वाले महान
ऋषियों तथा पराक्रम को भी परास्त कर देने वाले शुरवीरों की संतान हैं ।
अपने देश में भिन्न-भिन्न प्रकार के शिक्षण-संस्थानों में भिन्न-भिन्न
प्रकार की शिक्षायें दी जा रही हैं । सबके पाठ्यक्रम से ले कर प्रबंधन
तक अलग-अलग हैं, जिनका सरकारीकरण से ले कर व्यापारीकरण तक हो चुका है और
पढने वाले बच्चों के परिवारों की आर्थिक हैसियत के अनुसार उनका वर्गीकरण
भी । निम्न आय वर्ग, मध्यम आय वर्ग , उच्च आय वर्ग, अभिजात्य कुलिन वर्ग
के लिए अलग-अलग चार श्रेणियों के अतिरिक्त सरकारी- स्कूलों-कॉलेजों की एक
पांचवीं श्रेणी भी है, जिसमें आम तौर पर गरीबी रेखा से नीचे के लोग पढते
हैं । इन पांचों श्रेणियों के स्कूलों-कॉलेजों में न केवल पाठ्यक्रम
अलग-अलग हैं, बल्कि पाठ्य-पुस्तकों की सामग्रियां भी भिन्न-भिन्न तरह की
हैं । सबकी आधारभूत संरचनाओं में भी काफी असमानतायें हैं, जबकि पठन-पाठन
की सुवुधाओं में काफी अन्तर है , जिसके परिणामस्वरुप
बच्चों-विद्यार्थियों के बौद्धिक स्तर में भी सामान्य से अधिक असमानता
उत्पन्न हो जाती है और वे अपवाद को छोड कर आम तौर पर प्रगति के समान
अवसर से वंचित हो जाते हैं ।
मालूम हो कि भारतीय संविधान की प्रस्तावना में ही देश के सभी
लोगों को ‘अवसर की समानता’ देने की बात कही गई है । तो सभी बच्चों को
समान अवसर मिल पा रहा है ? कतई नहीं । जबकि , एक समतामूलक समाज की
स्थापना के लिये यह आवश्यक है कि सभी बच्चों को प्रगति का समान अवसर
मिले, जो ‘समान सुविधाओं से युक्त एक समान शिक्षा से ही सम्भव है ।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद २१ (अ) के अनुसार छह से चौदह वर्ष की उम्र के
सभी बच्चों को ‘शिक्षा का अधिकार’ मौलिक अधिकार के रुप में प्राप्त है
जो सबके लिए एक समान होता है । बावजूद इसके, देश के नवनिहाल ‘एक समान
शिक्षा के अधिकार’ से अब तक वंचित ही हैं । यदि हम भारतीय संविधान के
अनुच्छेद २१(अ) को अनुच्छेद १४ और १५ के साथ पढ़ें तो यह और भी स्पष्ट
हो जाता है कि ६-१४ वर्ष के सभी बच्चों को एक समान शिक्षा ही मिलनी
चाहिए ।
शिक्षा की ऐसी स्थिति के लिए भारतीय संविधान में ‘शिक्षा’ को
समवर्ती सूची के अधीन होने का जो प्रावधान है सो सर्वाधिक जिम्मेवार है ।
इसी प्रावधान के तहत विभिन्न राज्य-सरकारों द्वारा संचालित
विद्यालयों-विश्वविद्यालयों के साथ-साथ केन्द्र सरकार से संचालित
केन्द्रीय विद्यालय व जवाहर नवोदय विद्यालय तथा केन्द्रीय विश्वविद्यालय
भी देश भर में जहां-तहां कायम हैं । देश के सभी केंद्रीय विद्यालयों और
नवोदय विद्यालयों में ‘समान शिक्षा’ की व्यवस्था लागू है, जिसके तहत
सभी बच्चों को एक समान सुविधाओं के साथ न केवल एक ही पाठ्यक्रम पढ़ाये
जाते हैं, बल्कि उनके गणवेश (ड्रेस) भी एक ही होते हैं । किन्तु
राज्य-सरकारें ऐसी व्यवस्था नहीं कर सकी हैं, जिसके कारण सरकारी व
गैर-सरकारी विद्यालयों की आधारभूत संरचनाओं, सुविधाओं एवं उनके
पाठ्यक्रमों में घोर असमानताएं कायम हैं । सरकारी विद्यालयों में जहां
बच्चों को कायदे से बैठने की सुविधायें भी उपलब्ध नहीं हैं, वहीं विभिन्न
स्तर के महंगे गैर-सरकारी स्कूलों में प्रयोगशालाओं से ले कर स्वीमिंग
पुल तक स्थापित हैं । सन २०१० में तमिलनाडु प्रदेश में वहां की विधानसभा
‘यूनिफार्म एजुकेशन एक्ट’ नामक विधेयक पारित कर कानून बना चुकी है,
जिसके तहत वहां की सरकार ने सरकारी व गैर-सरकारी सभी स्कूलों में ६ से
१४ वर्ष उम्र के सभी बच्चों के लिये समान पाठ्यक्रम से एक समान शिक्षा की
व्यवस्था लागू कर रखी है, किन्तु शिक्षण-सुविधाओं में असमानता तो बनी ही
हुई है ।
मालूम हो कि चीन जापान जर्मनी अमेरिका आदि दुनिया के कई देशों
में ‘यूनिफार्म एजुकेशन सिस्टम’ लागू है । किन्तु भारत में ६ से १४ वर्ष
की उम्र के बच्चों को ‘शिक्षा का अधिकार’ मात्र प्राप्त है, जबकि ‘समान
शिक्षा का अधिकार’ तो अभी भी दूर की कौडी बनी हुई है । बच्चों को ‘समान
सुविधाओं से युक्त समान शिक्षा’ का अधिकार मिलना चाहिये । यह तभी सम्भव
है, जब ‘टेलीफोन रेगुलेटरी अथॉरिटी ऑफ़ इंडिया’ की तरह ही ‘एजुकेशन
रेगुलेटरी अथॉरिटी ऑफ़ इंडिया’ जैसी नियामक संस्था कायम की जाए , जो
सरकारी व गैर-सरकारी सभी विद्यालयों-विश्वविद्यालयों में उपलब्ध
सुविधाओं-संसाधनों, तथा उनके पाठ्यक्रमों और शिक्षण-शुल्क आदि में समानता
एवं गुणवत्ता स्थापित कर उन्हें नियंत्रित भी करे । भारत राष्ट्र की
राष्ट्रीय एकात्मता-अखण्डता के लिए भी यह आवश्यक है क्योंकि दक्षिण के
सेतुबंध रामेश्वरम से ले कर उतर के हिमाचल (हिमालय) तक समूचा भारत जब
सांस्कृतिक रुप से भी एक है तब इस विशाल देश में ‘एक समान शिक्षा’ की
व्यवस्था से ही राष्ट्रीय एकत्मता का भाव और परिपुष्ट होगा । आशा है ,
देश लुंज-पुंज व्यवस्थाओं को पटरी पर लाने के प्रति कटिबद्ध प्रधानमंत्री
नरेन्द्र मोदी ‘असेतु हिमाचल एक देश’ के लिए ‘एक समान शिक्षा’ के महत्व
को स्वीकार करते हुए इसे कायम करने की दिशा में भी पहल करेंगे । समान
सुविधाओं से युक्त एक समान शिक्षा की व्यवस्था लागू हुए बिना देश में
समता व एकात्मता की स्थापना हो पाना कतई सम्भव नहीं है , जबकि
राष्ट्रीयता-विरोधी मानसिकता का सृजन करने वाली ‘कुशिक्षा’ का उन्मूलन भी
तभी सम्भव है । अतएव जरुरी यह भी है कि शैक्षिक पाठ्यक्रम का
राष्ट्रीयकरण हो और उसे प्रादेशिक पाठ्यक्रमों के साथ समन्वित कर देश भर
के तमाम विद्यालयों-विश्वविद्यालयों में लागू किया जाए ।
• मनोज ज्वाला; सितम्बर’२०२०
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