भारतीय राष्ट्रीयता का मर्म और ‘नेशन’ व ‘राष्ट्र’ का संभ्रम


भारत एक सनातन राष्ट्र है । दुनिया के सभी राष्ट्रों से पुराना ,
सर्वाधिक प्राचीन । पूरब-पश्चिम किसी भी दुनिया के ज्ञात-अज्ञात इतिहास
से परे । इतिहास तो पश्चिम की प्रवृति है और बडी षड्यंत्रकारी प्रवृति है
। दुनिया की सभी श्रेष्ठ चीजों पर अपना स्वामित्व जताने-दर्शाने की
पश्चिमी कुटिल कूटनीति की परिणति है- इतिहास । इतिहास से पहले भारत में
पुराणों स्मृतियों और श्रुतियों की एक समृद्ध परम्परा कायम रही है । उनका
अध्ययन आप करेंगे तो पाएंगे कि भारत राष्ट्र की प्राचीनता अत्यंत प्राचीन
है । पश्चिम तो राष्ट्र की अवधारणा से अभी हाल ही में लगभग पांच सौ साल
पहले परिचित हुआ है और वह भी ‘नेशन’ के अर्थ में । पश्चिम के ‘नेशन’ को
आप ‘राष्ट्र’ के अर्थ में समानार्थी नहीं कह सकते हैं । पश्चिम का
‘नेशन’ राज्य से निःसृत हुआ है, जबकि भारत का राष्ट्र धर्म-संस्कृति से
निःसृत है । इसे इस उदाहरण से आप समझ सकते हैं- पश्चिम के युरोप में
अनेक छोटे-बडे राज्य हैं- फ्रांस, जर्मनी, इंग्लैण्ड, न्युजिलैण्ड, कनाडा
आदि । इसी तरह, अमेरिका , आस्ट्रेलिया भी स्वतंत्र राज्य हैं । इन सभी
राज्यों की संस्कृति एक ही है- ईसाइयत । किन्तु सिर्फ स्वतंत्र राज्य
होने की वजह से ये सब पृथक-पृथक ‘नेशन’ हैं । किन्तु भारत में सैकडों
स्वतंत्र राज्य होने के बावजूद सबकी संस्कृति एक होने के कारण वे सब एक
ही भारत-राष्ट्र के अंग रहे हैं । सन १९४७ से पहले और उससे भी पहले
अंग्रेजों के आगमन से पूर्व भारत में सैकडों स्वतंत्र राज्यों का
अस्तित्व कायम रहा है । अंग्रेजी शासनकाल में भी कई ऐसे बडे-बडे राज्य
थे, जो आकार में ब्रिटेन से कई गुणा बडे थे और उनसे ब्रिटिश महारानी की
संधियां थीं । किन्तु राष्ट्र एक ही था- भारत । ऐसा इस कारण, क्योंकि उन
सभी भारतीय राज्यों की संस्कृति एक ही रही थी- वैदिक संस्कृति, जिसे आम
तौर पर हिन्दू-संस्कृति कहा जाता है । राज्य-विशेष की स्थानीय परम्पराओं
में थोडी बहुत विभिन्नतायें भी रही थीं और आज भी हैं , तो भी व्यापक स्तर
पर उन सबके मूल में एक ही समान वैदिक मान्य्ताओं-स्थापनाओं की
संव्याप्ति के कारण सांस्कृतिक रुप से वे सभी एक ही राष्ट्र के अंग-अवयव
रहे । यहां भारत नाम का कभी कोई एक अलग राज्य नहीं रहा है , बल्कि भारत
राष्ट्र के भीतर ही अनेक राज्य रहे हैं , जिनकी संस्कृति सदैव एक ही रही
है, इसी कारण उन सब क्षेत्रों-भूभागों की राष्ट्रीय पहचान भी एक ही रही ।
आसेतु हिमाचल भारत के सभी राज्यों के निवासियों का एक ही धर्म रहा है-
सनातन धर्म और एक ही संस्कृति रही है- वैदिक संस्कृति अर्थात आर्य
संस्कृति अथवा हिन्दू-संस्कृति । यहां धार्मिक पंथ अनेक होते रहे हैं,
किन्तु उन सब में एक ही सनातन धर्म के मौलिक तत्व विद्यमान रहे हैं ।
सनातन धर्म से ही निकले हुए कई पंथों का जोर-विस्तार भी इतना ज्यादा हुआ
कि आम लोग उन्हें भी एक पृथक धर्म ही मान लिए , किन्तु वास्तव में सब
सनातन धर्म की परिधि के भीतर ही रहे । बौद्ध , जैन और सिक्ख ऐसे ही पंथ
आज भी हैं । इन सभी पंथों में सनातन धर्म के अनेक तत्व प्रमुखता से पाये
जाते हैं, या यों कहिए कि उन्हीं तत्वों से इन पंथों का निर्माण हुआ है ।
वेद- आधारित सनातन भारतीय जीवन-मूल्य इन सभी पंथों में सम्पूज्य हैं और
आत्मा की अमरता का सनातन तत्व इन सब में सर्वमान्य है ; केवल
उपासना-पद्धतियां भिन्न-भिन्न हैं और इस कारण जीवन-शैली में विभिन्नता
होने के बावजूद इन सभी पंथों को मानने वाले लोगों के जीवन का उद्देश्य एक
समान, एक ही है- ‘मोक्ष’ । यहां इसी सर्व-सामान्य जीवनोद्देश्य के अनुकूल
जीवन-दृष्टि विकसित हुई है और तदनुसार ही परिवार व समाज की रचना भी । यही
कारण है कि महर्षि अरविन्द सरीखे तमाम तत्व-वेताओं-चिन्तकों-दार्शनिकों
ने एक स्वर से यह स्वीकार किया है कि सनातन धर्म ही भारत की राष्ट्रीयता
है । यह सहज स्वाभाविक ही है, क्योंकि किसी भी राज्य की जनता जिस धर्म के
अनुसार जीवन-यापन करती है, उस धर्म से ही वहां की राष्ट्रीयता का निर्माण
होता है अर्थार प्रकारान्तर में वह धार्मिकता ही वहां की राष्ट्रीयता
होती है । युरोप के सभी राज्यों की राष्ट्रीयता ‘ईसाइयत’ है और अरब या
खाडी के सभी देशों की राष्ट्रीयता (नेशन के अर्थ में भी ) ‘इस्लाम’ है ,
इससे इंकार नहीं किया जा सकता है । वेदों में राष्ट्र को जो अर्थ प्रदान
किया गया है , उसके अनुसार आप देखें तो समूचा युरोप और समूचा अरब एक-एक
राष्ट्र हो सकता है, क्योंकि इन दोनों की अपनी अपनी एक-एक सांस्कृतिक
पहचान है, अपनी अपनी एक-एक संस्कृति है । इन दोनों के भीतर के राज्यों की
पृथक-पृथक परस्पर-भिन्न कोई सांस्कृतिक पहचान नहीं है; इस कारण वे सभी
राज्य राष्ट्र नहीं है, नेशन भले ही हों । इस राष्ट्रीय दृष्टि से आप
देखें तो अपना भारत समूचे युरोप के समकक्ष है, न कि फ्रांस जर्मनी
ब्रिटेन अथवा कनाडा या रुस के । इसी तरह अरब के अथवा खाडी के किसी
देश-राज्य से भारत की कोई तुलना-समानता नहीं की जा सकती है, बल्कि उन सभी
देशों-राज्यों का सांस्कृतिक आकार जो है- अरब, वही उन सबका राष्ट्र है और
इस कारण वही भारत के समकक्ष होने योग्य है । किसी भी देश के निवासियों
की धार्मिक-सांस्कृतिक चेतना की व्यापक व्याप्ति का सूक्ष्म आकार-विस्तार
है राष्ट्र । एक राष्ट्र के भीतर कई राज्य हो सकते हैं, जबकि एक राज्य के
भीतर अनेक राष्ट्र कतई नहीं हो सकते । एक राज्य किसी क्षेत्र या
स्थान-विशेष के स्थूल भौगोलिक विस्तार की राजनीतिक-शासनिक व्याप्ति है ,
तो राष्ट्र उसकी धार्मिक-सांस्कृतिक चेतना के विस्तार की सूक्ष्म
अभिव्यक्ति है । यहां यह भी उल्लेखनीय है कि किसी भी देश के राष्ट्र होने
और उस राष्ट्र (नेशन के अर्थ में भी) की राष्ट्रीयता (नेशनलिटी) के पुष्ट
होने में मानव-कल्याण और विश्व-कल्याण की कामना-भावना के तत्वों का
जितना समावेश होता है , उतना ही उस राष्ट्र की जीवनी-शक्ति होती है । ये
तत्व किसी भी राष्ट्रीयता में जितनी ही सूक्ष्मता व व्यापकता के साथ
समाहित होते हैं वह राष्ट्र मानवीय सभ्यता और विश्व के लिए उतना ही
वरेण्य और महत्वपूर्ण होता है । अब आप देखें तो पाएंगे कि युरोपीय
अमेरिकी और अरबी संस्कृति से युक्त राष्ट्रों की राष्ट्रीयता- क्रमशः
‘ईसाइयत’ और ‘इस्लाम’ में मानव-कल्याण व विश्व-कल्याण की कामना-भावना
अखिल विश्व और मानव-मात्र के प्रति आग्रही नहीं है, बल्कि केवल ईसाइयों
और केवल मुस्लिमों के प्रति आग्रही है । ये दोनों ही प्रकार की
राष्ट्रीयतायें नकारात्मकता और विभाजकता पर आधारित हैं । समस्त विश्व के
कल्याण की कामना-भावना रखने-करने वाली सिर्फ और सिर्फ एक ही राष्ट्रीयता
है इस दुनिया में और वह है- भारतीय राष्ट्रीयता अर्थात सनातन धर्म ,
जिसमें न केवल मानव-मात्र के , बल्कि प्राणि-मात्र के और उससे भी अधिक
समग्रता में सम्पूर्ण सचराचर सृष्टि के कल्याण की कामना-भावना और तदनुसार
क्रियायें-चेष्टायें समाहित हैं । यही कारण है कि ईसाइयत व इस्लाम से
अनुप्राणित राष्ट्रों (नेशन के अर्थ में) और सनातन धर्म से निःसृत
राष्ट्र सतही तौर पर बाहर से देखने में भले ही एक-दूसरे के पूरक या
सहयोगी दिखाई पड्ते हों , किन्तु भीतर से सूक्ष्मता में दोनों की प्रकृति
व प्रवृति सर्वथा भिन्न ही नहीं हैं , बल्कि एक-दूसरे के विरूद्ध और
विरोधी भी हैं । सूक्ष्मता में आप देखें तो पाएंगे कि दोनों के बीच
अदृश्य सतत संघर्ष जारी है । इसका कारण यह है कि ईसाइयत व इस्लाम दोनों
के वैश्विक विस्तारवादी अभियान में सनातन धर्म सबसे बडा बाधक है, क्योंकि
दोनों की तथाकथित धार्मिकता के तत्व-ज्ञान सनातन धर्म से सामना होते ही
तार-तार हो जाते हैं । दोनों के समक्ष असली चुनौती सनातन धर्म और इसे
धारण करने वाले भारत राष्ट्र से ही है ।
• मनोज ज्वाला; सितम्बर’२०२०