सता-हस्तांतरण की दुरभिसंधि और यह आजादी
१४ अगस्त १९४७ की आधी रात को ब्रिटेन की महारानी के परनाती ने
जवाहर लाल नेहरू के हाथों भारत की सत्ता यों ही हस्तान्तरित नहीं कर दी
थी, बल्कि ब्रिटिश हितों को साधने के प्रति उनकी वफादारी की कसम ले कर
उन्हें सत्ता की चाबी सौंपी थी । इसके लिए नेहरू जी को सन १९४५ में
ब्रिटिश हुक्मरानों द्वारा ली गई एक अत्यन्त ‘गुप्त परीक्षा’ में
उत्तीर्ण हो कर ब्रिटिश क्राउन के प्रति अपनी असंदिग्ध निष्ठा-भक्ति
सिद्ध करनी पडी थी और सन १९४६ में पटेल को बहुमत से कांग्रेस-अध्यक्ष चुन
लिए जाने के बावजूद उन्हें धकिया कर स्वयं अध्यक्ष बनना पडा था । दरअसल
ब्रिटिश कूटनीति के रणनीतिकारों ने अपने सुनहरे जाल में फांस कर पर्दे के
भीतर उन्हें प्रधानमंत्री तो पहले ही बना दिया था , इसी कारण बाद में
किसी भी तरह से कांग्रेस का अध्यक्ष बनना उनकी उस महत्वाकांक्षा के लिए
राजनीतिक जीवन-मरण का सवाल बन गया था । गांधीजी कदाचित उस गुप्त प्रकरण
को जानते थे, तभी वे निर्वाचित पटेल को पीछे कर नेहरू को कांग्रेस का
अध्यक्ष मनोनीत कर दिए थे ।
उल्लेखनीय है कि द्वितीय विश्वयुद्ध में जापान को हरा कर
सिंगापुर दुबारा हासिल कर लेने के बावजूद ब्रिटिश हुक्मरान भारत से
ब्रिटेन को समेट लेने की तैयारी में लग गए थे । क्योंकि , एक ओर उस
महायुद्ध को जीतने में उनकी कमर टूट चुकी थी, तो दूसरी ओर सुभाष चन्द्र
की आजाद हिन्द फौज पूर्वोत्तर भारत की सीमा पर चोट कर तथा ब्रिटिश नौसेना
के भारतीय सैनिकों में विद्रोह करा कर उनकी निन्द हराम कर चुकी थी । फलतः
ब्रिटिश हुक्मरान अपने किसी ऐसे विश्वास-पात्र भारतीय नेता के हाथों में
सत्ता सौंप अपने लाव-लश्कर की सही-सलामत बाइज्जत घर-वापसी चाहने लगे थे
, जो ब्रिटिश-हित-साधन में हर तरह से सहायक हो । इस बावत उनने नेहरू का
चयन कर उनकी ब्रिटिश-भक्ति और एक अवांछित आशक्ति को अत्यन्त गोपणीय तरीके
से जांच-परख रखा था ।
मालूम हो कि ब्रिटेन को सैन्य-शक्ति के सहारे भारत से खदेड
भगाने के लिए आजाद हिन्द फौज को संगठित कर अपनी सरकार बना लेने तथा १२
देशों से मान्यता हासिल कर लेने के पश्चात जर्मनी-जापान के सहयोग से
अण्डमान-निकोबार कब्जा करते हुए सिंगापुर के रास्ते भारत के पूर्वोत्तर
सीमा-क्षेत्र में घुस इम्फाल-कोहिमा को अपनी जद में ले चुके सुभाष चन्द्र
बोस ने जुलाई १९४५ में बंगाल पर आक्रमण करने की पूरी तैयारी कर ली थी ।
किन्तु सुभाष जी के दुर्घटनाग्रस्त हो जाने के कारण उनकी फौज आगे नहीं बढ
सकी , जबकि उसके समर्थन में ब्रिटिश नौसेना के भारतीय जवानों के बगावती
रुख मुम्बई की सड्कों पर उतर चुका था । ऐतिहासिक तथ्य बताते हैं कि तब
ब्रिटिश वायसराय लार्ड बॉवेल इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि आजाद हिन्द फौज के
सिपाहियों में सद्भावना पैदा करने के निमित्त कांग्रेस के किसी बडे
नेता को सिंगापुर भेजा जाये । ब्रिटिश हुक्मरानों द्वारा भारत की
केन्द्रीय सत्ता कांग्रेस को हस्तान्तरित किये जाने का निर्णय लिया जा
चुका था , किन्तु सत्ता की चाबी किस कांग्रेसी को दी जाए , इस बावत
उनकी ओर से तरह-तरह के परीक्षण किये जाने लगे थे । उसके मद्देनजर
कांग्रेसियों में तत्सम्बन्धी पात्रता सिद्ध करने की स्पर्द्धा मच गई थी
। इतिहासकार सतीश चन्द्र मित्तल के अनुसार दार्जलिंग-कलकत्ता में एक
जनसभा को संबोधित करते हुए नेहरू ने तो यहां तक कह दिया था कि “सुभाष अगर
बंगाल में घुसेगा, तो मैं अपने दोनो हाथों में तलवार लेकर उसे रोकूंगा ”।
अंततः दिसम्बर १९४५ में बॉवेल ने नेहरू जी को सिंगापुर भेजने का निर्णय
लिया । उसने प्रचारित यह किया-कराया कि उन्हें कांग्रेस भेज रही है
सिंगापुर , किन्तु पर्दे के पीछे उनकी उस यात्रा के प्रायोजक थे ब्रिटिश
हुक्मरान, जो उस बावत हेलिकॉप्टर भी मुहैय्या करा रखे थे । उस यात्रा का
घोषित उद्देश्य आजाद हिन्द फौज के सिपाहियों में ब्रिटिश सरकार के प्रति
सद्भावना पैदा करना था , किन्तु वास्तविक उद्देश्य था- ब्रिटिश क्राऊन
के खासम-खास अर्थात जार्ज षष्ठम के रिश्तेदार भाई- माऊण्ट बैटन से
नेहरू की मुलाकात कराना तथा सत्ता-हस्तांतरण के लिए ब्रिटिश हितों
के अनुकूल कांग्रेसी नेता में ब्रिटिश-निष्ठा की अंतिम जांच करना और
तदनुसार एक दुरभिसंधि क्रियान्वित करना । ब्रिटिश लेखक लॉपियर और
कॉलिन्स अपनी पुस्तक ‘फ्रीडम ऐट मीड नाईट’ में लिखे हैं कि नेहरू के
सिंगापुर पहुंचने से दो दिन पहले ही ब्रिटिश सेना के दक्षिण-पूर्व
एशियाई कमान के कमाण्डर इन चीफ- माऊण्ट बैटन रंगुन से वहां पहुंच गए थे ।
बैटन ने स्थानीय अंग्रेज प्रशासकों को यह बोध कराया कि “ वह आदमी भारत
का ‘भावी प्रधानमंत्री’ है और इस कारण उसका स्वागत एक राष्ट्राध्यक्ष के
रूप में किया जाना चाहिए ”। स्थानीय प्रशासन द्वारा उस रहस्यमय अतिथि के
लिए मोटर-कार की व्यवस्था नहीं की गई थी , तो माऊण्ट बैटन ने उनके स्वागत
सत्कार में अपनी ‘लिमोजिन’ मोटरकार लगा दी थी । उनका भाषण सुनने के लिए
भीड जुटाने हेतु आस-पास के गांवों-देहातों में बसें भी भेज दी थी ।
नेहरु जी सभा-स्थल पर लुई माउण्ट बैटन की कार से पहुंचे, जहां एक बडे हॉल
में लुई की पत्नी एडविना पहले से मौजूद थी । हॉल के भीतर नेहरू के घुसते
ही वहां एक हादसा हो गया । हुआ यह कि उनके स्वागतार्थ पहले से मौजूद
एड्विना उनकी ओर लपकती हुई गिर कर लुढक पडी । उस अफरा-तफरी के बीच नेहरू
ने तत्क्षण उसे ऐसे उठा लिया कि वह उनकी बांहों में सिमट गई और उनके
दिलो-दिमाग को सदा के लिए अपनी मुट्ठियों में जकड ली । थोडी देर में
स्थिति सामान्य हुई , तब वे अपना भाषण दिए , अर्थात ब्रिटिश साम्राज्य की
चाटुकारिता में कसीदे गढे । उस यात्रा पर नेहरुजी के साथ गए ‘जन्मभूमि’
अखबार के सम्पादक अमृतलाल सेठ के अनुसार “भाषण के बाद वे उस दम्पत्ति के
प्रति इस कदर आशक्त हो गए कि भोजनोपरांत एडविना से रात भर अंतरंग
बात-चीत करते रहे ” । अर्थात, साथ निभाने और ब्रिटिश गुलामी को परोक्ष
रुप से कायम रखने की कसमें खाते रहे । बकौल सेठ जी, “ उस अंतरंग वार्ता
से उन्हें सुभाष के जीवित बचे रहने तथा वापस लौट आने पर ब्रिटेन का खतरा
बढ जाने एवं भारत की सत्ता से कांग्रेस के दूर हो जाने की बात मालूम हो
गई, तो अगले दिन ‘आजाद हिन्द फौज’ के शहीद सिपाहियों के स्मारक-स्थल
पर पुष्पांजलि अर्पित करने का जो पूर्व-निर्धारित-प्रचारित मुख्य
कार्यक्रम आयोजित था, उसे वे स्वयं ही रद्द कर दिए । स्मारक-स्थल से
गुजरते हुए नेहरू जी ब्रिटिश साम्राज्य के बिरुद्ध युद्ध में दिवंगत हो
चुके सिपाहियों की समाधि पर पुष्पांजलि अर्पित करने से साफ इंकार कर दिए
और कार से नीचे उतरे तक नहीं , क्योंकि ‘ब्रिटिश क्राउन’ सुभाष और
उनकी उस फौज को अपना शत्रु घोषित कर चुका था ”। तो इस तरह से ‘ब्रिटेन
के प्रति असंदिग्ध भक्ति’ और ‘एक अवांछित आशक्ति’ की उस ‘गुप्त
परीक्षा’ में पूरे-पूरे अंक प्राप्त कर सफल हो गए नेहरु जी । फिर तो वे
लन्दन जाने पर वहां के एक खास होटल का जो ‘सुइट्स’ एड्विना के नाम सदा
आरक्षित रहता था, उसी की शोभा बढाते रहे और इधर आजाद हिन्द फौज के
सिपाहियों पर दिल्ली के लालकिला में चले मुकदमें के दौरान उनके स्वघोषित
वकील बन कर ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध वकालत भी करते हुए अपनी देश-भक्ति
भी चमकाते रहे ।
आगे फिल्मायी जाने वाली सत्ता-हस्तान्तरण-विषयक फिल्म की पूरी
पटकथा लन्दन में लिखी जा चुकी थी , जिसके अनुसार उसी माऊण्ट बैटन को भारत
की सत्ता के हस्तान्तरण हेतु वायसराय बना कर ‘सपत्नीक’ दिल्ली भेज दिया
गया, जिसने एड्विना के प्रति आशक्त नेहरू से भारत-विभाजन के साथ-साथ वह
सब कुछ करा लिया, जो ब्रिटेन के दूरगामी हितों की दृष्टि से आवश्यक था ।
इस पूरे प्रकरण की पुष्टि दिल्ली में भारत की आजादी का जश्न मना चुके
नेहरू जी के ही उस एक बयान से हो जाती है, जो उन्होंने प्रधानमंत्री बनने
पर अमेरिका के तत्कालीन राजदूत जॉन गैलब्रेथ से मिली बधाई के उत्तर में
दिया था कि “मैं भारत पर शासन करने वला अंतिम अंग्रेज हूं” । सिंगापुर के
उस गुप्त परीक्षण-प्रकरण में नेहरु जी को ब्रिटिश हितों के प्रति अनुकूल
पाये जाने और तत्सम्बन्धी हुई दुरभिसंधि को क्रियान्वित करने में सुभाष
के विरुद्ध ब्रिटेन का सहयोगी बने रहने के कारण ही अंग्रेजों ने उन्हीं
के हाथों भारत की सत्ता-हस्तान्तरित किया, अन्यथा सुभाष या सरदार के
हाथों सत्ता सौंपी जाती , तो आज के भारत की स्थिति कुछ और ही होती ।
• अगस्त’ २०२०
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