कॉरोना संक्रमण से गांधीजी के ‘हिन्द-स्वराज’ का स्मरण
कॉरोना-संक्रमण से उत्पन्न हालातों के कारण देशबन्दी के दौर में जब
तमाम रेलगाडियों के चक्के जाम गए… हवाई उडाने स्थगित हो गईं…स्कूल-कॉलेज
बन्द पडे हैं… तमाम व्यापारिक-औद्योगिक प्रतिष्ठानों की गतिविधियां मन्द
हैं एवं शहरों से श्रमिकों की ग्राम-वापसी जारी है तथा गांवों से
ग्रामीणों का पलायन भूतकाल का प्रसंग बन चुका है और सभ्यता की भावी
रीति-नीति व जीवन-पद्धति की नई रुप-रेखा गढी जाने लगी है ; तब ऐसे में
महात्मा गांधी के ‘हिन्द स्वराज’ का स्मरण अनायास ही होने लगा है । जी
हां महात्माजी के उस ‘हिन्द स्वराज’ का जिसे उन्होंने अंग्रेजी परतंत्रता
के विरुद्ध भारतीय स्वतंत्रता के संघर्ष का चरम लक्ष्य निर्धारित कर
पूंजीवाद व साम्यवाद नामक दोनों ही प्रकार की विदेशज राज्य-व्यवस्थाओं को
नकारते हुए शुद्ध देशज व्यवस्था की अवधारणा के तौर पर देश-दुनिया के
सामने प्रस्तुत किया था । किन्तु महात्माजी के इस देशज दर्शन से
अनुप्राणित भारतीय स्वतंत्रता-संघर्ष की समाप्ति के पश्चात भारत की
राजनीति व राजसत्ता ने ‘हिन्द स्वराज’ को सिरे से नकार दिया और उसी
‘पश्चिम’ का वही मार्ग अपना लिया जिसका जीवन भर विरोध करते रहे थे
महात्मा गांधी । गांधीजी का स्वतंत्रता-संघर्ष हिन्द की ‘राजसत्ता’ से
दूर ‘हिन्द-स्वराज’ की ओर उन्मुख था जो उन्हीं के शब्दों में दो सभ्यताओं
का पारस्परिक संघर्ष था । युरोप-अमेरिका की यांत्रिक सभ्यता और भारत की
आध्यात्मिक सभ्यता के बीच का संघर्ष ; अर्थात यांत्रिक सभ्यता के
अतिक्रमण और आध्यात्मिक सभ्यता के आत्मरक्षण का संघर्ष । आज से एक सौ दस
वर्ष पहले ‘हिन्द स्वराज’ को परिभाषित करते हुए महात्माजी लिखते हैं-
“पश्चिम की ‘चाण्डाल सभ्यता’ भारत के जिस भाग में नहीं पहुंची है अर्थात
जहां यंत्रों-कारखानों की बाढ व रेलगाडियां का संजाल नहीं हैं… जहां
डॉक्टर व अस्पताल नहीं हैं… जहां वकिल व अदालतें नहीं हैं… वहां आज भी
सच्चा स्वराज कायम है… वहां के लोगों पर न अंग्रेज राज करते हैं न हम-आप
कर सकेंगे ।” वे लिखते हैं कि “रेलों-अस्पतालों-अदालतों की बाढ से घिर कर
भारत बरबाद हो जाएगा । रेल से महामारी फैलती है । रेलगाडियां अगर न हों
तो कुछ ही लोग एक जगह से दूसरी जगह जाएंगे और इस कारण संक्रामक रोग सारे
देश में नहीं पहुंच पाएंगे । रेल से दुष्टता बढती है और बुराइयां फैलती
हैं । पहले पवित्र स्थानों तीर्थ-स्थलों पर सच्चे लोग दिव्य भावनाएं ले
कर बडे संकट से जाते थे; किन्तु रेलगाडियों के कारण दुष्टों व ठगों की
टोलियां भी वहां पहुंचने लगी जिससे वे स्थान भी अपवित्र हो गए । पहले
हम प्राकृतिक तौर पर ‘सेग्रेगेशन’ (सूतक) पालते-मानते थे… किन्तु रेल के
प्रभाव से वह टूट गया ।
पाठक-सम्पादक के बीच सवाल-जवाब की शैली में लिखे ‘हिन्द-स्वराज’
में पाठक जब यह पुछता है कि रेलगाडियों का उपयोग अच्छे लोग अच्छाइयां
फैलाने के लिए भी नहीं कर सकते क्या ? तब सम्पादक महात्माजी इसके जवाब
में कहते हैं कि “जो अच्छा होता है वह ‘बीरबहुटी’(धीरे-धीरे चलने वाला एक
प्रकार का सुन्दर कीट) की तरह धीरे-धीरे चलना पसंद करता है; क्योंकि उसके
मन में स्वार्थ नहीं होता है इस कारण रेल से उसकी बनती ही नहीं । रेल से
‘एक राष्ट्र-भाव’ का संचार होने के तर्क को भी खारिज करते हुए महात्माजी
कहते हैं कि “ऐसा समझना भारी भूल है … अंग्रेजों व रेलों के आने से पहले
से ही भारत एक राष्ट्र है । हमारे लोग पैदल या बैलगाडियों से अखिल
राष्ट्र की यात्रा करते थे…उस दौरान विभिन्न प्रदेशों के लोग एक-दूसरे की
भाषा-रीति-संस्कृति सीखते-समझते थे । जिन दूरदर्शी महापुरुषों ने सेतुबंध
रामेश्वरम व जगन्नाथपुरी आदि चार धामों एवं हरिद्वार आदि तीर्थ-यात्राओं
की परम्परा कायम की थी वे मूर्ख नहीं थे…वे जानते थे कि भगवत-भजन घर पर
भी हो सकता है…फिर भी आसेतु-हिमाचल अनेक तीर्थ स्थापित किए तो राष्ट्रीय
एकात्मता-भाव के कारण ही ऐसा किये । यह तो अंग्रेजों का फैलाया हुआ
वितण्डा है कि अंग्रेजी शासन व रेल-परिचालन से पहले भारत एक राष्ट्र नहीं
था ।”
इसी तरह से युरोप की मेडिकल साइंस पढ कर डॉक्टर बने लोगों और
उनके अस्पतालों को भी महात्माजी ‘हिन्द-स्वराज’ के विरुद्ध बताते हैं ।
हिन्द स्वराज में उन्होंने लिखा है- “अस्पतालें लूट का अड्डा व पाप की जड
है और युरोपियन डॉक्टरी सीखना-अपनाना गुलामी की गांठ को मजबूत बनाने जैसा
है । उस डॉक्टरी में परोपकार की भावना कतई नहीं है; जबकि वह इफरात पैसे
कमाने का धंधा और लूट का जरिया मात्र अवश्य है । उन डॉक्टरों से अच्छे
तो हमारे आयुर्वेदिक वैद्य हैं ।”
कॉरोना की राह रोकने के बावत हुई लोकबन्दी के दौर में महात्माजी
के हिन्द-स्वराज की अवधारणा को पुष्ट करने वाले अनेक तथ्य एक्दम सत्य
प्रमाणित होते हुए दिख रहे हैं । रेलगाडियों से महामारी फैलती है ; यह तो
कॉरोना-संक्रमण से उत्पन्न लोकबन्दी के हालातों से पुनः पुनः फिर सिद्ध
हो ही गया और यह भी सिद्ध हो गया कि सम्पूर्ण भारत भर में देश के एक छोर
से दूसरे छोर तक पैदल यात्रा भी की जा सकती है … जैसा इस बन्दी के दौरान
अनेक लोगों को सदियों पहले की तरह करते देखा-सुना गया । इसी तरह से
अंग्रेजी मेडिकल साइंस के प्रति भी महात्माजी की यह धारणा सच सिद्ध हो गई
कि यह पैसा कमाने का जरिया मात्र है । यह ऐसे सिद्ध हुआ कि आज भारत के
अधिकतर अस्पतालों में जब केवल कॉरोना-संक्रमितों का ही ईलाज हो रहा है और
अधिकतर असंक्रमित लोग जब अस्पताल जाना भी नहीं चाह रहे हैं तब ऐसे में
बिना किसी ‘मेजर ऑपरेशन’ के ही माताओं की प्रसूति सम्पन्न हो जा रही है…
बच्चे स्वाभाविक रीति से जन्म ले रहे हैं तथा साधारण बीमारियों का उपचार
तो घर पर ही देशी नुस्खों से ही हो जा रहा है ; जबकि इससे पहले महज
‘डॉक्टरी धंधा’ के कारण सामान्य प्रसव-मामलों में भी माताओं का ऑपरेशन
अपरिहार्य हुआ करता था । इस परिप्रेक्ष्य में ध्यातव्य यह भी है कि
कॉरोना की दवा का ईजाद करने में अंग्रेजी सभ्यता की चिकित्सा पद्धति
(डॉक्टरी) आज नाकाम सिद्ध हो रही है जबकि भारतीय चिकित्सा-पद्धति
(आयुर्वेद) और भारतीय सभ्यता की जीवन-शैली व संस्कृति ही कॉरोना को हराने
में सर्वाधिक सहायक प्रमाणित हो रही है ।
ऐसे में जाहिर है कि भारत से अंग्रेजों के चले जाने के बाद भी ‘दो
सभ्यताओं का संघर्ष’ समाप्त नहीं हुआ है बल्कि वह ‘सभ्यता-विमर्श’ में
बदल कर आज भी जारी है । महात्मा जी पश्चिमी-अंग्रेजी-मशिनी सभ्यता को
चाण्डालों की आसुरी सभ्यता करार देते हुए उसे मानवता के लिए घातक बताते
हैं , क्योंकि वह शोषण-दमन असत्य अन्याय अनीति पर तो आधारित है ही;
भोगवृत्ति व अनावश्यक प्रतिस्पर्द्धा बढा कर मनुष्य को गुलाम बेईमान व
बीमार बनाने वाली भी है । बकौल महात्मा- “ऐसा नहीं है कि भारत के हमारे
पूर्वज यंत्र बनाना जानते ही नहीं थे. बल्कि सच यह है कि वे यह भी जानते
थे कि यंत्रीकरण से मनुष्य का गुलाम बेईमान बीमार व भ्रष्ट होना
सुनिश्चित है ; इसी कारण उनने बहुत सोच-समझ कर यंत्रों का आविष्कार ही
नहीं किया और हाथ-पैर से जो काम जितना हो सके उसे ही सुख व स्वास्थ्य के
लिए आवश्यक माना । वे जानते थे कि गांव की उपेक्षा कर शहर खडा करना… शहर
बसाना बेकार की झंझट है ; क्योंकि उससे लोग सुखी नहीं होंगे तथा उससे
उलटे धूर्त्तों की टोलियां व वेश्याओं की गलियां पैदा होंगी और अमीरों के
हाथों गरीब लुटे जाएंगे । इसी कारण उनने गांवों को ही महत्व दिया ।”
महात्माजी का ‘हिन्द स्वराज’ भारत को अंग्रेजी सभ्यता के शासन की
दासता से मुक्त कर भारतीय सभ्यता की देशज शासन-व्यवस्था से युक्त करने की
वकालत करता है । इसके लिए वे अंग्रेजों द्वारा कायम की गई हर व्यवस्था को
उखाड फेंकना चाहते हैं । शिक्षा, चिकित्सा व न्याय की पारम्परिक भारतीय
व्यवस्था को तत्सम्बन्धी अंग्रेजी व्यवस्था से सर्वतोभावेन बेहतर आंकते
हुए वे उसे पुनर्स्थापित करने का औचित्य भी सिद्ध करते हैं । उनके ‘हिन्द
स्वराज’ की बुनियाद ‘ग्राम स्वराज’ है, अर्थात भारत के सात लाख गांवों का
अपना-अपना स्वराज । इसी कारण वे शहरीकरण और अनावश्यक मशीनीकरण के सख्त
खिलाफ रहे । सन १९४५ में अपने ‘हिन्द स्वराज’ के बावत जवाहरलाल नेहरु को
लिखे खत में गांधीजी कहते हैं कि “भारत में सात लाख गांव हैं, तो समझो कि
सात लाख हुकुमतें कायम होनी चाहिए ”। वे हर गांव को हर मायने में
आत्मनिर्भर बनाना चाहते थे । अर्थात, गांव में इतना सब कुछ हो कि
ग्रामीणों को शहर की ओर पलायन ही न करना पडे । शिक्षा, चिकित्सा व न्याय
तो गांव में ही भारतीय रीति से सबको सहज ही सर्वसुलभ हो । किन्तु नेहरुजी
ने माहात्मा के जीते जी उनके ‘हिन्द-स्वराज’ को खारिज कर दिया और देश को
पश्चिमीकरण के मार्ग पर बलात धकेल दिया जिसकी परिणति आज सामने है कि
गांवों और शहरों के उजडने-बसने की आपा-धापी जारी है । बाद की सरकारें भी
उसी लकीर की फकीर बनी रही हैं । बावजूद इसके . देश की राजनीति ने महात्मा
के ‘हिन्द स्वराज’ को भले ही नकार दी हो किन्तु नियति को शायद यही
स्वीकार है तभी तो इन दिनों देश भर में रेलगाडियां बन्द पडी हैं… शहर
सहमा हुआ है और गांव अपना पुराना आकार ग्रहण करता दिख रहा है ।
• जुलाई’ २०२०
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