भारत में कश्मीर की भूमि को ‘पीओके’ बना देने के गुनहगार
मनोज ज्वाला
भारत के ‘पाक-अधिकृत कश्मीर’(पाकिस्तान के अवैध कब्जे वाली
कश्मीर-भूमि) अर्थात ‘पीओके’ पर इन दिनों दुनिया भर में चर्चा हो रही है
। भारत के वर्तमान प्रधानमंत्री- नरेन्द्र मोदी से इस बावत किसिम-किसिम
के सवाल पुछे जा रहे हैं और ततसम्बन्धी सरकारी नीतियों पर बहस-विमर्श भी
हो रहा है । वे लोग भी गाल बजाने में लगे हुए हैं जिन्हें ‘पीओके’ मामले
पर बोलने का न तो कोई अधिकार है और न ही इसके इतिहास-भूगोल का ज्ञान है ।
इस हल्ला-बोल में कोई किसी से यह नहीं पुछ रहा है कि ‘पीओके’ आखिर बना
कैसे ? कश्मीर की एक-तिहाई भूमि को किसने बना दिया ‘पीओके’ ? सन 1947 में
जम्मू-कश्मीर पर पाकिस्तानी-कबायली आक्रमण हो जाने और उसी दौरान उस पूरी
रियासत का वहां के राजा के हाथों भारत संघ में विधिवत विलय हो जाने के
पश्चात भारतीय सेना के जवानों ने जब आक्रमणकारियों को खदेड भगा दिया था
तब उसका लगभग एक-तिहाई भू-भाग आखिर ‘पाक-अधिकृत’ कैसे हो गया ? भारतीय
सेना जम्मू-कश्मीर के उस क्षेत्र को पाकिस्तानी आक्रमणकारियों से मुक्त
कराने में सफल नहीं हो सकी होगी, तभी तो उसके आठ जिलों पर पाकिस्तान का
कब्जा हो गया । आम तौर पर कोई यही समझ सकता है । कितु सच यह नहीं है ,
क्योंकि भारतीय सेना तो उस समय भी इतनी सक्षम थी कि महज दो माह पहले
अस्तित्व में आये पाकिस्तान को एक बार तो क्या, अनेक बार एकदम इत्मीनान
से मटियामेट कर सकती थी । तो फिर ऐसा हुआ होगा कि हमारी सेना पाकिस्तान
के कब्जे में चले गय उस क्षेत्र को मुक्त कराने की जंग लड रही होगी, उसी
दौरान संयुक्त राष्ट्र संघ के हस्तक्षेप से युद्ध-विराम करा दिया गया
होगा, जिसके कारण ऐसा हुआ । किन्तु सच यह भी नहीं है , बल्कि सच्चाई यह
है कि जानबुझ कर उस क्षेत्र पर पाकिस्तान का अधिकार होने दिया गया था ।
ऐतिहासिक तथ्य बताते हैं 26-27 अक्टुबर 1947 को जम्मू-कश्मीर का
भारत संघ में विलय हो जाने के साथ ही भारतीय सेना श्रीनगर धमक चुकी थी ।
किन्तु, जवाहरलाल नेहरु ने उस सैन्य-अभियान की ‘ओवर ऑल कमान’ शेख
अब्दुल्ला के हाथ में सौंप दी थी, जिसे सेना के जवान अपनी पहली खेप के
हेकिलॉप्टर से ही साथ लिए हुए गए थे श्रीनगर । वहां पहुंचते ही हमारी
सेना के जवान तो कश्मीर में कत्ल-ए-गारद मचा रहे पाकिस्तानी
आक्रमणकारियों को खदेडने के अभियान में हुट गए, कितु नेहरुजी की कृपा से
उस रियासत का आपातकालीन प्रशासक बने अब्दुल्ला साहब अपने मुस्लिम
कान्फ्रेंस (बाद में बना नेशनल कान्फ्रेंस) के कार्यकर्ताओं को गोलबन्द
करने और उक्त रियासत के भारत में हो चुके विलय को झुठलाने में जुट गए थे
। श्रीनगर के प्रताप चौक पर एक सभा को संबोधित करते हुए अब्दुल्ला ने कहा
था- “ हमने खाक में से उठा लाया है कश्मीर का ताज, हम हिन्दुस्तान में
रहें या पाकिस्तान में, यह तो बाद का सवाल है ; पहले तो हमें अपनी आजादी
मुकम्मल करनी है ”। अपने इसी लक्ष्य के हिसाब से अब्दुल्ला ने केवल
मुस्लिम-बहुल घाटी-क्षेत्र को आक्रमणकारियों से मुक्त करने और
हिन्दू-बहुल इलाकों पर पाकिस्तान का कब्जा होने देने अथवा वहां की
बहुसंख्यक आबादी , जो महाराजा का समर्थक थी, उनका उन्मूलन कर देने की
रणनीति के तहत उक्त सैन्य-भियान का संचालन किया ।
मालूम हो कि 21 अक्तुबर को एबटाबाद के रास्ते मुस्लिम-बहुल कश्मीर
घाटी में घुसे पाकिस्तानी आक्रान्ताओं को 10 दिनों की भारी मशक्कत के बाद
भारतीय सेना पीछे खदेडने में सफल हो गई और 07 नवम्बर बीतते ही सम्पूर्ण
घाटी-क्षेत्र पूरी तरह से सुरक्षित हो गया, तब वे आक्रमणकारी
हिन्दू-बहुल आबादी वाले क्षेत्रों की ओर कूच कर गए । 09 नवम्बर को उनने
भिम्बर नगर को चारों तरफ से घेर लिया । वहां भी अब्दुल्ला के मुस्लिम
कान्फ्रेंसी कार्यकर्ता लूट के माल-असवाब की लालच के वशीभूत हो कर उन
आक्रान्ताओं से ही मिल गए , तो बहुसंख्यक जनता जिहादी कहर का शिकार बनती
गई । देखते-देखते भर में भिम्बर शहर खाली हो गया और पूरी तरह से उनके
कब्जे में आ गया, तब कबायली सैनिक मीरपुर शहर को घेर लिए । लूट-पाट,
मार-काट बलात्कार का कहर शुरु हो गया । रियासती सेना की छोटी से टुकडी जब
जान-माल की रक्षा करने में अक्षम सिद्ध होने लगी, तब कुछ लोग जैसे-तैसे
भाग जम्मू के गणमान्य लोगों को साथ ले कर भारतीय सेना के ब्रिगेडियर
परांजपें से मीरपुर के बिगडे हालातों का बयान कर सुरक्षा की गुहार लगाई ।
लेकिन, उन गणमान्य लोगों में से एक और लोकसभा के पूर्व सांसद बलराज मधोक
के अनुसार –“ब्रिगेडियर ने मीरपुर में सैनिक सहायता भेजने से यह कहते हुए
इंकार कर दिया कि सेना की ‘ओवर ऑल कमान’ उस अब्दुल्ला के हाथ में है, जो
भारतीय सेना की तमाम सैन्य टुकडियों को कश्मीर घाटी में ही तैनात कर रखा
है । यद्यपि घाटी के हालात सामान्य हो चुके हैं, तब भी अब्दुल्ला की
अनुमति के बगैर मीरपुर में हम कोई कार्रवाई नहीं कर सकते । अतः इस बावत
आप लोग नेहरुजी से मिल कर कहिए , जो 15 नवम्बर को ही श्रीनगर जाने के
दौरान जम्मू हवाई अड्डे पर थोडी देर ठहरेंगे ” । ब्रिगेडियर की पहल पर
अगले दिन पण्डित प्रेमनाथ डोगरा व विष्णु गुप्त आदि लोगों के साथ नेहरुजी
से मिलने वाले प्रो० बजराज मधोक ने अपनी पुस्तक- ‘कश्मीर – जीत में हार’
के एक पृष्ठ पर लिखा है- “हमलोगों को पूरा विश्वास था कि हालातों से अवगत
होते ही नेहरुजी मीरपुर , भिम्बर , पूंछ एबटाबाद आदि सभी क्षेत्रों को
पाकिस्तान के जबडे में जाने से बचाने के लिए सेना भेजने का आदेश तत्क्षण
ही कर देंगे । किन्तु उन्होंने इसके ठीक उल्ट यह कह कर पल्ला झाड लिया कि
आपलोग शेख साहब से मिलिए । उन्हें जब यह बताया गया कि शेख से प्रार्थना
की जा चुकी है, तो वे क्रोधित हो उठे और हम सबको ‘बेवकूफ’ व ‘इडियट’ कहते
हुए एक ही बात रटते रहे कि वे सेना की ‘ओवर ऑल कमान’ अब्दुल्ला को दे रखे
हैं, तो वही तय करेगा कि सेना कहां भेजी जाए, कहां नहीं ”।
तो इस तरह से भिम्बर के बाद मीरपुर भी लुटता रहा, किन्तु सेना वहां
नहीं भेजी गई ; क्योंकि अब्दुल्ला की योजना ही यही थी । यही हुआ भी, 22
नवम्बर को पूरा मीरपुर दहल गया । चालीस हजार की आबादी में से बचे-खुचे
कुछ हजार लोगों को पाकिस्तानी कबायली सेना द्वारा बन्धक बना कर
रावलपिण्डी ले जाया गया । उस नरसंहार से किसी तरह बच निकले बाल के०
गुप्ता ने ‘फॉरगॉटन एट्रोसिटिज मेमोरिज ऑफ द सरवाइवर ऑफ 1947 पार्टिशन ऑफ
इण्डिया’ नामक पुस्तक में लिखा है- झेलम नहर के किनारे-किनारे
भेड-बकरियों की तरह हांके जा रहे उस काफिले में से कुछ स्त्रियां तो नहर
में कूद कर उन दरिन्दों की हवश का शिकार होने से बच गईं, किन्तु शेष तमाम
लोगों में पुरुषों व बच्चों को मार कर सभी स्त्रियों को पाकिस्तान व खाडी
देशों के बाजारों में बेंच दिया गया ।
मीरपुर के बाद कोटली, राजौरी, पूंछ और एबटाबाद का भी कमोबेस यही हाल
हुआ । कश्मीर घाटी में भारतीय पक्ष की आबादी अल्पसंख्यक होने के बावजूद
वहां से पाकिस्तानी कबायली आक्रमणकारियों को मार भगाने में सफल रही
भारतीय सेना की एक भी टुकडी अगर भारतीय पक्ष की बहुसंख्यक आबादी वाले उन
क्षेत्रों में भेज दी जाती, तो उन पर पाकिस्तान का कब्जा होता ही नहीं ।
किन्तु शेख अब्दुल्ला की कुटिल नीति व जवाहर लाल नेहरु की शेख-भक्ति के
कारण कश्मीर में भारतीय सेना की उपस्थिति के बावजूद उसकी एक तिहाई भूमि
पर पाकिस्तान काबिज हो गया । फिर तो भारत के तत्कालीन गवर्नर-जनरल लॉर्ड
माउण्ट बैटन के ब्रिटेनपरस्त कूटनीतिक हस्तक्षेप से नेहरुजी पाकिस्तानी
कब्जे वाले कश्मीर को मुक्त कराने के बजाय इस मामले को जब संयुक्त
राष्ट्र संघ में ले गए , तब उसके निर्देशानुसार यथास्थिति कायम हो गई तो
वह क्षेत्र ‘पाक-अधिकृत’ घोषित कर दिया गया, जिसे पाकिस्तान अब ‘आजाद
कश्मीर’ कहता है । दर-असल माउण्ट बैटन यह चाहते थे कि अन्तर्राष्ट्रीय
सामरिक महत्व के उस क्षेत्र पर भारत का शासन स्थापित न हो सके ताकि
ब्रिटेन व उसके मित्र देश (अमेरिका) सोवियत रुस को घेरने के लिए
पाकिस्तान के माध्यम से उसका मनमाना सैन्य-स्तेमाल कर सकें । जाहिर है,
मुस्लिम लीग की दहशतगर्दी और ब्रिटिश शासन की कुटिल कूटनीति के समक्ष
घुटने टेक कर कांग्रेस ने जिस तरह से भारत के पूरब व पश्चिम
सीमा-प्रान्त के भूभाग पर दोनों ओर पाकिस्तान बनवा दिया , उसी तरह से
पश्चिमोत्तर सीमा के कश्मीर की भूमि को पाक-अधिकृत करने के असली गुनहगार
जवाहरलाल नेहरु और ब्रिटिश वॉयसरॉय लॉर्ड माउण्ट बैटन हैं, जिन्हें भारत
के भूगोल को बिगाड देने वाला इतिहास भी कभी माफ नहीं करेगा ।
• मनोज ज्वाला; जुलाई’ २०२०
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