ऋषियों के ‘दिव्यास्त्र’ से भी संपन्न है भारतीय सेना


भारत की सेना अकार-प्रकार में विश्व की सबसे बड़ी ‘स्वैच्छिक सेना’
है । भारतीय सेना के पास अग्नि , पृथ्वी और ब्रह्मोस नाम के जो
प्रक्षेपास्त्र परमाणु क्षमता से युक्त हैं, सो दुनिया भर में बेजोड हैं
। ब्रह्मोस तो एक ऐसा सुपरसोनिक मिसाइल है , जो ध्वनि के रफ्तार से भी 7
गुणी तेज गति से प्रहार करती है । ऐसे अनेक आयुधों से सम्पन्न भारतीय
सेना सामर्थ्य के हिसाब से विश्व की चौथी शक्तिशाली सेना है , जो
पृथ्वी के सबसे घातक परमाणु अस्त्रों और उन्हें शत्रुओं के बीच
प्रक्षेपित करने वाले विविध प्रक्षेपास्त्रों से भी सम्पन्न है , यह तो
सारी दुनिया जानती है ; किन्तु इसे एक दुर्लभ ‘दिव्यास्त्र’ भी प्राप्त
है, यह कोई नहीं जानता । जी हां , दिव्यास्त्र ! अर्थात , एक ऐसा ‘दिव्य
अस्त्र’ , जो दिव्य होने के कारण सर्वथा अदृश्य रहता है । यह अलौकिक
दिव्यास्त्र भारत के महान ऋषियों की कठोर आध्यात्मिक तप-साधना से निःसृत
होता है , जो भारतीय सेना को युद्ध के दौरान तब स्वतः प्राप्त हो जाया
करती है, जब मुश्किलों से घिर जाने पर उसे इसकी तीव्र आवश्यकता अपरिहार्य
होती है । यह दिव्यास्त्र भारतीय सेना को शत्रुओं की ओर से मिली
प्रत्यक्ष चिन्ताजनक चुनौतियों को ठिकाने लगाने में परोक्ष रुप से कैसे
काम करता रहा है, इसकी एक बानगी देखिए-
सन 1971 में देश की पूर्वी व पश्चिमी दोनों सीमाओं पर
पाकिस्तान के विरुद्ध युद्ध के अपरिहार्य हालात उत्त्पन्न हो जाने और
शत्रु-देश की तरफदारी में अमेरिका जैसी महाशक्ति के खडा हो आने पर भारतीय
सेना के समक्ष ऐसी चुनौती उत्त्पन्न हो गई थी कि कठोर निर्णय लेने वाली
तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी भी अपनी ओर से किये गए तमाम सामरिक
उपायों के बावजूद सशंकित हो उठी थीं । लिहाजा, स्थिति की नजाकत को
देखते हुए केन्द्र-सरकार उस युद्ध को हर हाल में जीत लेने के बावत
गैर-शासनिक व अराजनीतिक उपायों की तलाश में भी जुट गई थी । वह तलाश
देव-भूमि हरिद्वार तक चली गई , जहां ऋषि-सत्ता के संरक्षण में एक
स्वतंत्रता-सेनानी से तत्ववेता-तपस्वी बने गायत्री-साधक पण्डित श्रीराम
शर्मा आचार्य अपने ‘शांतिकुंज’ नामक आश्रम से भारत-पुनरुत्थान की ‘युग
निर्माण योजना’ क्रियान्वित करने के आध्यात्मिक सरंजाम को विस्तार देने
में लगे हुए थे । ब्रह्मवर्चस रिसर्च इंस्टिच्युट के डॉयरेक्टर डॉ प्रणव
पण्ड्या द्वारा लिखित आचार्यश्री की तपश्चर्या को अनावृत करती एक
पुस्तक-‘चेतना की शिखर यात्रा’ के तीसरे भाग में इस प्रसंग का विस्तार से
वर्णन है- “ केन्द्र सरकार के प्रतिनिधि श्री अय्यर जी ने माताजी
(आचार्यश्री की अर्द्धांगिनी-भगवती देवी शर्मा) से अनुरोध किया कि संकट
के इस दौर में कुछ ऐसे आध्यात्मिक उपचार किये जाएं , जिससे विजय
सुनिश्चित हो , सरकार ऐसे उपाय के लिए भी प्रयत्नशील है” । तब उन माताजी
ने उन्हें आश्वस्त करते हुए कहा- “आसन्न संकट को देखते हुए गत
नवरात्रियों में ही विशिष्ट साधनायें कर ऐसे उपचार किये जा चुके हैं और
आचार्यजी ने सूक्ष्म-जगत में सीधे हस्तक्षेप किया हुआ है- भारत का भविष्य
उज्ज्वल है” । यहां यह उल्लेखनीय है तब आचार्य शर्मा अपने सूक्ष्म
संरक्षक के निर्देशानुसार हिमालय के एक सिद्ध क्षेत्र में एक विशिष्ट
आध्यात्मिक तप-साधना करने में तल्लीन थे । उन्हीं दिनों 03 दिसम्बर 1971
को पाकिस्तान की ओर से आक्रमण कर दिया गया, तब जो हुआ वह दुनिया के
युद्धों के इतिहास में एक अकेला उदाहरण बन गया ।
तेरह दिनों तक चले उस युद्ध में पाकिस्तान को अमेरिका से
पूरा सहयोग-समर्थन मिल रहा था, जबकि भारत को सोवियत रुस का । अमेरिकी
विदेश मंत्री हेनरी किसिंगर के शब्दों में- “राष्ट्रपति निक्सन पूर्वी
पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) की जनता के पक्षकार-भारत को जीतते हुए नहीं
देखना चाहते थे और इसके लिए वे पाकिस्तान के पक्ष में सब कुछ करने को
तैयार थे ” । अन्ततः अमेरिकी सरकार ने भारत के विरुद्ध सैनिक हस्तक्षेप
की घोषणा करते हुए अपनी नौसेना के सातवें बेडे को पाकिस्तान की तरफदारी
के लिए बंगाल की खाडी में कूच करने का आदेश कर दिया । परमाणु बमों से लैश
उसका वह अजेय समुद्री बेडा भारत को तबाह करने के लिए 09 दिसम्बर को जब चल
पडा , तब दुनिया भर में उस युद्ध की बाजी पलट जाने, अर्थात भारत की हार
सुनिश्चित होने के कयास लगाए जाने लगे । तरह-तरह के डरावने अनुमान खबरों
की शक्ल में लोगों को डराने लगे थे, किन्तु मात्र तीन दिनों के बाद ही
भारत की तबाही शुरू होने के समाचार आने थम गए , क्योंकि अमेरिकी नौसेना
का वह सातवां बेडा अकारण ही चुपचाप उल्टी दिशा में वापसी का रुख ले लिया
। और इधर , भारतीय नौसेना के जवानों ने पाकिस्तानी नौसेना की पनडुबियों
को पानी में ही डुबो-डुबो कर उनक क्म तमाम कर दिया और एक साथ दो-दो
सीमाओं पर, अर्थात पूर्वी पाकिस्तान के ढाका व पश्चिमी पाकिस्तान के
कराची को अपनी जद में ले कर शत्रु-सेना के 90 हजार सैनिकों को समर्पण के
लिए बाध्य कर दिया । अमेरिकी नौसेना का वह ‘सातवां बेडा’ आखिर किस कारण
से उल्टे पांव वापस लौट गया , यह आज भी रहस्य बना हुआ है । अपने गोपणीय
निर्णयों को भी बीस वर्षों के बाद सार्वजनिक कर देने वाले अमेरिकी-शासन
के तत्सम्बन्धी तत्कालीन दस्तावेज आज भी इस प्रसंग में निरुत्तर ही हैं
कि वह सातंवा बेडा बीच रास्ते से ही आखिर किसके आदेश पर और क्यों वापस
लौट गया ?
डॉ० पण्ड्या के पुस्तक- ‘चेतना की शिखर-यात्रा’ में इस प्रश्न
का उत्तर कुछ यों दिया गया है- “उन दिनों शांतिकुंज से सम्बद्ध राजनंद
गांव (मध्यप्रदेश) के एक प्रबुद्ध साधक ललित कुमार साहू जैसे अनेक साधकों
की ध्यानस्थ चेतना में कुछ अद्भूत चित्र व दृश्य उभरे थे- .... एक विराट
युद्ध-पोत का चित्र और उसके आस-पास युद्धक विमानों से युक्त सैकडों
नौकाओं के तैरने एवं द्रूतगति से भारतीय तटों की ओर बढते हुए रामेश्वरम
की सीध में आने का दृश्य….. और अचानक समुद्र की छाती को चीरते हुए एक ऋषि
का विशाल हाथ,….लहरों के बीच से उभरता हुआ हाथ आकाश की ऊंचाई तक उठता है
….उसका पंजा खुलने लगता है….वह उस जहाजी बेडे को अनावृत करते हुए उस पर
छा जाता है और उसे तोड्ते-मरोडते हुए समुद्र के गर्भ में डुबो देता है
…..”। फिर अगले ही दिन भारत के सरकारी रेडियो- ‘आकाशवाणी’ से यह खबर
प्रसारित हो गई कि अमेरिकी नौसेना का सातवां बेडा वापस लौट पडा है , तब
वह साधक अपनी ध्यानावस्था की उक्त अनुभूति का मर्म समझने के निमित्त
शांतिकुंज गया , तो वहां उसे मालूम हुआ कि ऐसा ही दृश्य उस ऋषि-आरण्यक
में रह रहे अन्य कई परिजनों को भी अनुभूत हुआ था । स्थूल से सूक्ष्म में
कायान्तरित हो चुके आधुनिक युग के विश्वामित्र व युग-ऋषि कहे जाने वाले
श्रीराम शर्मा आचार्य के सानिध्य में रह चुके अनेक लोग अभी जीवित हैं, जो
उनके आध्यत्मिक तप के ताप से निःसृत एक दिव्य-शक्ति के उस चमत्कार को
‘दिव्यास्त्र’ का प्रहार बताते हैं । सचमुच वह भारत की महान ऋषि-सत्ता का
सूक्ष्म दिव्यास्त्र ही था, जिसने अमेरिकी नौसेना के उस जंगी जहाज
(सातवां बेडा) को चुपचाप लौट जाने के लिए विवश कर कर दिया । अन्यथा
अमेरिकी प्रशासन भी अज तक यह स्पष्ट नहीं कर सका है कि उसका सातवां बेडा लक्ष्य तक पहुंचे बिना ही वापस आखिर क्यों लौट गया ? ऐसे में यह तथ्य इसी
सत्य को सिद्ध करता है कि एक आध्यात्मिक शक्ति के हस्तक्षेप से ही एक
वैश्विक महाशक्ति की नौसेना को अपना रुख बदलने के लिए विवश होना पडा ।
चूंकि भारत एक सनातन राष्ट्र है और ऋषि-सत्ता की शाश्वतता से सदैव
अनुप्राणित रहा है, इसलिए यह स्वाभाविक ही है । इससे जाहिर है कि भारतीय
सेना ऋषियों के सूक्ष्म-संरक्षण से निःसृत एक प्रकार के अदृश्य ‘दिव्यास्त्र’ से आज भी सम्पन्न है । इन दिनों चीनी सेना और भारतीय सेना जब आक्रमण-प्रत्याक्रमण की स्थिति में आमने-सामने डटी हुई हैं तब इस परिपेक्षय में भारत की सैन्य शक्ति का आकलन इस ‘दिव्य’ दृष्टि से भी किया ही जाना चाहिए ।
• जुलाई’ २०२०