नस्ल विज्ञान का उल्टा परिणाम- अमेरिका-युरोप के नाम


अमेरिका में जॉर्ज फ्लॉयड नामक एक अश्वेत अफ्रीकी-अमेरिकी नागरिक
की पुलिस-हिरासत में हुई मौत से भडका ‘नस्ल-भेद’ विरोधी हिंसक
आन्दोलन-प्रदर्शन अब समूचे युरोप को भी अपनी चपेट में लेते जा रहा है ।
सम्भव है कि नस्लभेदी राज्यों की सरकारें शक्ति का इस्तेमाल कर इस ज्वलंत
स्थिति पर काबू पा लें और शांति स्थापित कर लें लेकिन तब भी यह आग तो
भीतर-भीतर जलती ही रहेगी जो एक न एक दिन पुनः धधक उठेगी । क्योंकि पुलिस
के हाथों अश्वेत की मौत का यह मामला इकलौता नहीं है । संयुक्त राज्य
अमेरिका अमेरिका व युरोप के तमाम राज्यों में इस तरह की वारदातें आय
दिनों होती ही रहती हैं । श्वेत-अश्वेत के बीच भेद-भाव तो
अमेरिकन-युरोपियन शासन-समाज का स्थाई शगल है । एक आधिकारिक सर्वेक्षण के
मुताबिक़, अमरीका में पुलिस के हाथों हर साल क़रीब 1200 लोगों की मौत
होती है, लेकिन क़रीब 99 प्रतिशत मामलों में पुलिस अधिकारियों पर ऐसे
किसी अपराध का मुकदमा दर्ज नहीं होता है । सर्वेक्षण के आंकड़े इस तथ्य
की ओर इशारा करते हैं कि पुलिस की गोली से मारे जाने के मामले में
अफ्रीकी-अमरीकी लोगों की तादाद उनकी अमरीका में कुल आबादी के अनुपात में
अधिक है । आंकडे बताते हैं कि अमेरिका में अफ्रीकी-मूल के अश्वेत
अमरीकियों की जनसंख्या अमरीका की कुल आबादी का 14 प्रतिशत है । लेकिन
अमेरिकन पुलिस की गोलियों के शिकार बनने वालों में यह संख्या 23
प्रतिशत से ज्यादा है । इसी तरह से गोरे लोगों की तुलना में ड्रग्स के
माममे में गिरफ़्तार होने वाले अफ्रीकी-अमरीकियों की दर भी कहीं ज्यादा
है ; जबकि सर्वे में यह बात सामने आई है कि गोरे-काले (श्वेत-अश्वेत)
दोनों ही समुदायों के लोग ड्रग्स का इस्तेमाल समान स्तर पर करते रहे हैं
। सर्वे-रिपोर्ट के अनुसार 2018 में करीब प्रति एक लाख अफ्रीकी-अमरीकियों
पर 750 लोग ड्रग्स के मामले में गिरफ़्तार हुए थे जबकि इसकी तुलना में
गोरे अमरीकी सिर्फ़ 350 ही थे । हाल में जारी आकड़ों के मुताबिक
अफ्रीकी-अमरीकी लोग गोरे लोगों की तुलना में पांच गुना अधिक जेल की हवा
खाते हैं जबकि हिस्पैनिक (स्पेनी-पुर्तगाली भाषी)-अमरीकियों की तुलना में
दो गुना ज्यादा । फिलवक्त जेल में क़ैद अमेरीकियों में एक तिहाई हिस्सा
इन्हीं अश्वेतों का ही है । श्वेत-अमरीकी जेल में क़ैद कुल संख्या के तीस
फ़ीसदी हैं जबकि देश की आबादी में उनका हिस्सा 60 फ़ीसदी से ज्यादा है ।
प्रति एक लाख अफ्रीकी-अमरिकियों की आबादी पर 1000 से ज्यादा लोग जेलों
में बंद है जबकि प्रति एक लाख श्वेत आबादी पर सिर्फ़ 200 लोग ही क़ैदी
हैं । युरोपीय राज्यों में भी अश्वेतों की हालत कमोबेस ऐसी ही है ।
स्पष्ट है कि नस्लीय-जातीय भेद-भाव तथा मानवाधिकार-हनन के
झूठे-झूठे मामलों को ले कर भी भारत के विरुद्ध समय-समय पर उंगलियां उठाते
रहने वाला अमेरीकी शासन स्वयं को ऐसे सच्चे आरोपों से भी परे मानता रहा
है । किन्तु सच्चाई को अधिक दिनों तक नहीं दबाये रखा जा सकता है । मौजुदा
नस्ल-भेद विरोधी आन्दोलन-प्रदर्शन की हिंसक भीड से घिरे अमेरिकी शासन को
अब सारी दुनिया कठघरे में खडा देख रही है। अमेरिकी राष्ट्र्पति डोनाल्ड
ट्रम्प को ह्वाइट हाउस के बंकर में छिप जाने के लिए विवश कर देने वाले इस
आन्दोलन का तात्कालिक कारण जॉर्ज फ्लॉयड नामक एक अश्वेत की हुई पुलिसिया
हत्या अवश्य है ; किन्तु इसका असली कारण तो वस्तुतः अमेरिकी राष्ट्रीयता
की वह मजहबी मान्यता है जिसकी प्रेरणा से ‘रेड इण्डियण्स’ अर्थात अश्वेत
रक्तवर्णी समाज का उन्मूलन कर उसकी कब्र पर खडा ‘ह्वाइट हाऊस’ पूरी
दुनिया को श्वेत साम्राज्य के अधीन कर लेने को उद्धत रहा है । वह मान्यता
यह है कि पूरी दुनिया को गॉड ने बनाया है और जिसस क्राईस्ट गॉड का इकलौता
पुत्र है तो उसके मूल अनुयायी अर्थात ‘श्वेतवर्णी लोग’ सर्वश्रेष्ठ हैं
और इस कारण सारी दुनिया के मालिक भी हैं । उपनिवेशवाद और मौजुदा समय के
‘नवसाम्राज्यवाद’ के मूल में भी यही मान्यता कायम रही है । इसका औचित्य
सिद्ध करने के लिए उनने एक ओर बायबिल में ‘नूह के तीन पुत्रों- हैम-शैम व
जॉफेथ’ का एक मीथक रच-गढ रखा है. जिसके अनुसार हैम की संततियां शैम व
जॉफेथ की संततियों के अधीन गुलाम बने रहने के लिए नूह के द्वारा ही
अभिशप्त हैं ; तो दूसरी ओर ‘नस्ल-विज्ञान’ का टण्ट-घण्ट खडा कर उसके
माध्यम से इस मीथक को जबरिया प्रमाणित भी करते रहे हैं । इसी मीथक के
आधार पर उनने अफ्रीकी निवासियों और अन्य तमाम अश्वेत लोगों को ‘हैम की
सन्तति’ घोषित करते हुए उन्हें गुलाम बनाया हुआ था । एक लम्बे समय तक
समस्त युरोप व अमेरिका में उन गुलामों की खरीद-फरोख्त का धंधा भी परवान
पर था । जॉर्ज फ्लॉयड जैसे लोगों का समुदाय उन्हीं गुलामों का वंशज है
जिन्हें लम्बी लडाई से नागरिकता व मताधिकार तो प्राप्त हो गया है ;
किन्तु ‘नूह’ के अभिशाप से वे आज भी अभिशापित ही हैं । क्योंकि ‘नस्ल
विज्ञान’ दिन-रात इसी शोध अनुसंधान में लगा हुआ है कि श्वेत चमडी के लोग
ही दुनिया में सर्वश्रेष्ठ हैं और चर्च मिशनरियां व उनसे सम्बद्ध
संस्थायें इस कुतथ्य को फैलाने में लगी हुई हैं । श्वेतरंगी
श्रेष्ठता-बोध के झण्डाबरदारों द्वारा इस नस्ल विज्ञान का दोतरफा
इस्तेमाल होता है- एक तरफ धर्मान्तरण-ईसाइकरण के लिए तो दूसरे तरफ
धर्मान्तरित ईसाइयों के उन्मूलन के लिए ।
नस्ल-भेद के विरुद्ध वर्षों पहले से आन्दोलन करती रही एक 87
वर्षीय अमेरिकन गोरी शिक्षिका- जेन इलियट ने बीबीसी को दिए एक
साक्षात्कार में इस सच को स्वीकार करते हुए बिल्कुल सही कहा है कि
“अमरीकी शिक्षा प्रणाली श्वेतरंगी नस्ल की स्वघोषित सर्वश्रेष्ठता व
वर्चस्व के मिथक को हर कीमत पर बनाए रखने के लिए डिज़ाइन की गई है ।”
बकौल इलियट-“वर्तमान आन्दोलन-प्रदर्शन हम श्वेतों द्वारा बनाई गई
परिस्थितियों का परिणाम है, हम अपने व्यवहार के परिणामों को भुगत रहे हैं
।” इलियट कहती हैं कि हमारा समाज लोगों को बचपन में ही नस्लभेद सिखा देता
है । वो कहती हैं, “कोई भी गोरा मनुष्य जो अमरीका में पैदा हुआ और पला
बढ़ा है, अगर वो नस्लभेदी न हो तो ऐसा सिर्फ़ चमत्कार ही हो सकता है ।”
श्वेत मां व अश्वेत पिता की संतान- बराक ओबामा भले ही अमेरिका के
राष्ट्रपति रह चुके हों लेकिन वे भी इस तथ्य को स्वीकारते हैं कि
“नस्ल-भेद अमेरिका के डीएनए में है ।” उनके राष्टपति रहते हुए भी
अश्वेतों पर श्वेतों का हिंसक नस्लीय हमला होता रहा था ।
अमेरिकन-युरोपियन समाज-शासन का यह नस्लभेदी श्रेष्ठता-बोध केवल
अफ्रीकी अश्वेतों के प्रति ही आक्रामक नहीं है बल्कि उसके निशाने पर भारत
की ‘आर्य-प्रजा’ भी है जिसके विखण्डन-ईसाइकरण व अंततः उन्मूलन के लिए
उनने नस्ल-विज्ञान के सहारे यहां उतर-भारत बनाम दक्षिण भारत के बीच
‘आर्य-द्रविड’ का आधारहीन काल्पनिक वितण्डा खडा कर दिया है । यह ‘नस्ल
विज्ञान’ उनका एक ऐसा हथियार है जिसके सहारे वे अमेरिका व युरोप से बाहर
की तमाम सभ्यताओं के लोगों की नस्लीय पहचान अपनी अवश्यकता-सुविधा के
अनुसार गढते हैं तथा उन्हें विविध काल्पनिक नस्लों में विभाजित करते हुए
नस्लीय आधार पर उन्हें एक-दूसरे के विरुद्ध लडाते-भडकाते हैं और अन्ततः
सम्बन्धित राज्यों के विरुद्ध ‘अन्तर्राष्ट्रीय नस्लीय भेदभाव उन्मूलन
कानून’ के तहत कार्रवाई के माध्यम से अमेरिक व युएनओ के हस्तक्षेप की
जमीन तैयार करते हैं । इस बावत ‘लुथेरन वर्ल्ड फेडरेशन’ तथा ‘वर्ल्ड
काउंसिल ऑफ चर्चेज’ व ‘साउथ एशियन स्टडिज नेटवर्क’ और ‘स्टॉकहोम
एन्थ्रोपोलॉजिकल रिसर्च इन इण्डिया’ जैसी अनेक संस्थायें आर्य-प्रजा के
विभिन्न समुदायों की पृथक-पृथक नस्लीय पहचान सृजित करने में लगी हुई हैं
। इतना ही नहीं अमेरिकन-युरोपियन शासन से संपोषित इन संस्थाओं के द्वारा
अभी हाल ही में युएनओ की ‘युनिवर्सल पिरियॉडिक रिव्यु कमिटी’ को ‘भारत
में वर्ण-आधारित भेदभाव’ विषयक एक रिपोर्ट सौंप कर ज्ञान-पराक्रम-श्रम-सेवा-कौशल आधारित भारतीय वर्णाश्रम-व्यवस्था को कानूनन अवैध घोषित कराने तथा चारो वर्णों को चार अलग-अलग नस्लों में परिणत करने की सिफारिस भी की गई है ।
ऐसे में नस्ल विज्ञान के सहारे विभिन्न सभ्यताओं की नस्लीय पहचान
रचने-गढने और नस्लीय भेदभाव उन्मूलन कानून की लाठी भांजते रहने वाले
अमेरिका-युरोप में ही अब ‘नस्ल-भेद’ के विरुद्ध हिंसक आन्दोलन भडक उठा है
तो समझा जा सकता है कि उनका ‘नस्ल विज्ञान’ उन्हें ही उल्टा परिणाम देने
लगा है ।
• जुन’२०२०