चीन देश के वुहान शहर से निकल कर दुनिया भर में फैला हुआ कोविड-19
(कोरोना वायरस) नामक महामारी अब संपूर्ण मानवता को अपने आगोश में ले लेने
को उद्धत है । यह मुख्यतः चमगादड़ और सांप का भक्षण करने के कारण पैदा
हुआ बताया जा रहा है । इसके पहले सन 2009 में ‘स्वाइन फ्लू’ नाम का वायरस
फैला हुआ था जो सूअर का मांस खाने से पैदा हुआ था और उसके कारण सारे
संसार में त्राहि-त्राहि मच गई थी । परिणामस्वरुप हजारों लोग मरे थे और
लाखों निर्दोष निरीह संक्रमित सुअरों को निर्दयता पूर्वक कत्ल कर दिया
गया था ।
उससे भी पहले वर्ष 2007 में ‘बर्ड फ्लू’ नामक वायरस का प्रकोप फैला था जो
हांगकांग से निकला था और मुर्गे खाने वालों से पैदा हुआ था जिसके
दुष्प्रभाव से हजारों मनुष्य मरे । कुछ वर्ष पूर्व ‘ईबोला’ नामक वयरस
का प्रकोप दुनिया भर में फैला था जो कांगो देश से निकला हुआ था । उससे भी
पहले सन 1996 ‘मैड कॉउ डिजीज’ (mad cow desease) यानी ‘बोवाइन
स्पंजिफॉर्म इंसेफेलाइटिस’ (bovine spongiform encephalitis) नामक वायरस
इंग्लैंड से पैदा हुआ था जो गौ-मांस खाने का दुष्परिणाम था । इस बीमारी
में पहले गायों का मस्तिष्क स्पंज की तरह हो जाता था और काम करना पूरी
तरह से बंद कर देता था लेकिन बीमारी 4-5 साल बाद मालूम पड़ती थी । इस
दौरान जो मनुष्य उन्हें खाते रहते थे उनका भी मस्तिष्क पूरी तरह से
स्पंज की तरह बनकर खत्म हो जाया करता था । इस पर काफी शोध किया गया तो
पता चला कि इसका मूल कारण यह है कि गाय, जो कि एक शुद्ध शाकाहारी जानवर
है, उसको मांस और हड्डी से बना हुआ फैक्ट्री निर्मित भोजन देने के कारण
यह बीमारी पहले गाय को होती है और फिर मनुष्यों को हो जाती है । तब ऐसी
44 लाख निर्दोष निरीह गायों का वहां कतल कर दिया गया ।
वायरस-जनित इन सभी बीमारियों का मूल कारण मनुष्य की राक्षसी
प्रवृत्तियां है, जिनका भारत की राष्ट्रीयता अर्थात सनातन धर्म में
पूर्णत: निषेध है । भारत को जगतगुरु यूं ही नहीं कहा गया है । वायरसों की
बरसात के इस दौर में आज भारत ही ऐसा एक देश है जहां का सनातन धर्म सारे
संसार को रास्ता दिखा रहा है । पश्चिम का पदार्थ विज्ञान जैसे जैसे नई-नई
खोजें कर रहा है वैसे-वैसे अमेरिका युरोप के तथाकथित विकसित देशों को भी
यह समझ में आने लगा है कि वेदों से निःसृत भारतीय सनातन संस्कृति में
जीवन जीने की जो वैदिक पद्धति है वही सर्वकल्याणकारी है और वही वरण करने
योग्य है ।
सनातन धर्म की वैदिक चिन्तन-धारा के एक महान मनीषी और सृष्टि के
रहस्यों को उद्घाटित करने वाले ‘सांख्य-दर्शन’ के प्रतिपादक ऋषि कपिल
मुनि ने अपने ग्रंथ- ‘सांख्यसूत्र’ (सांख्य शास्त्र) में कहा है कि
पृथ्वी पर मनुष्यों के कुल वजन से 20 गुणा अधिक वजन मनुष्येत्तर
प्राणियों का होना चाहिए तभी पृथ्वी पर संतुलन कायम रह सकता है । इस
अनुपात के बिगड्ते ही प्रकृति विभिन्न आपदाओं के द्वारा मनुष्य के
विनाश को उद्धत हो जाती है ताकि ‘एक गुणा बीस’ की आनुपातिक स्थिति कायम
हो सके । यहां यह विशेष उल्लेखनीय है कि सनातन धर्मग्रंथों में पृथ्वी को
‘गौ’ भी कहा गया है और गौ-सेवा को सबसे बडा पुण्य कर्म एवं गौ-हत्या को
सबसे बडा पापकर्म कहा गया है तो इसका कारण यही है कि पृथ्वी और गाय में
बहुत गहरा सम्बन्ध है । गौ-सेवा पृथ्वी की सेवा है तो गौ-हत्या पृथ्वी के
विरुद्ध किया गया घातक अत्याचार है । गायों की आह से पृथ्वी कराह उठ्ती
है जो गौं-मांस-भक्षियों को सुनाई दे या न दे किन्तु प्रकृति उसका
संज्ञान लेते रहती है । गाय तो गाय . अन्य मनुष्येत्तर प्राणियों की आह
से भी समस्त समष्टि व सृष्टि की चेतना इस कदर चीत्कार करती है कि
प्रकृति उसका बदला बाढ भूकम्प तूफान महामारी जैसी आपदाओं के रुप में ले
कर ही रहती है । सनातन धर्म के विविध आख्यानों में समस्त ज्ञान-विज्ञान
के स्रोत कहे जाने वाले तमाम देवी देवताओं के वाहन अगर कतिपय पशु-पक्षी
बताए गए हैं तो इसीलिए क्योंकि सृष्टि के संतुलन में उनका विशेष महत्व है
अतएव मनुष्य उन्हें पूजनीय मान कर उनके प्रति सदैव संवेदनशील रहे और
उनकी हत्या तो कतई न करे । यही कारण है कि सनातन भारतीय जीवन-पद्धति में
जहरीले सर्पों को भी पूजनीय माना गया है ।
मालूम हो कि सृष्टि के संतुलन में सनातन धर्म के अनुसार सर्पों
की भी महत भूमिका है । सनातन धार्मिक आख्यानों के विषधर नागों से ही
पृथ्वी स्थिर है । महादेव के गले में सर्प अकारण ही नहीं लिपटे रहते और
विष्णु जी शेषनाग की शय्या पर यूं ही विश्राम नहीं करते । विष्णु पुराण
में पृथ्वी को शेषनाग के फण पर टिका हुआ बताया गया है और यह भी कहा गया
है कि सारे देवमन्दिरों की रक्षा का भार नागों पर ही है । पद्मनाभस्वामी
मन्दिर का विशाल खजाना विषधर नागों के घेरे में ही सुरक्षित है ।
नाग-हत्या का पाप सैकडों वर्षों तक भी मनुष्य का पीछा करते रहता है ।
पुराणों की इसी प्रेरणा से प्रेरित हो कर सनातन धर्म की परम्परा में
सर्पों को भी पूजनीय माना गया है । सर्पों की महत्त्ता स्थापित करने के
लिए ही वर्ष में एक बार ‘नागपंचमी’ के दिन नागों की पूजा का विधान है ।
जबकि चीन आदि अनेक देशों में अधार्मिक जीवन-पद्धति का अनुसरण करने वाले
पाशविक लोग सर्पों की हत्या कर उन्हें खाते रहे हैं । इसी तरह से सारा
यूरोप गौमांस खा कर अपनी बर्बादी को निमंत्रण देता रहा है । सर्प, गौ और
अन्य मानवेत्तर प्राणियों की व्यापक पैमाने पर होती रही हत्या के
पापस्वरुप ही उपरोक्त वर्णित वायरसों की बरसात होती रही है जिसका
दुष्परिणाम झेलते रहे हैं अभक्ष्य भक्षण करने वाले तथाकथित आधुनिक लोग ।
यह कहना तनिक भी अतिश्योक्ति नहीं कि आज कॉरोना जैसा अदृश्य सूक्ष्म
जीवाणु समस्त मानवी सभ्यता को घरों के भीतर दुबके रहने को विवश कर दिया
है तो यह मनुष्य के हाथों निरीह मनुष्येत्तर प्राणियों की लगातार होती
रही हत्या से उत्पन्न पाप की पराकाष्ठा का अंजाम ही हो सकता है । प्रकृति
कदाचित ‘सांख्यशास्त्र’ में वर्णित सूत्र-समीकरण के अनुसार पृथ्वी पर
मानवी जनसंख्या को मनुष्येत्तर प्राणियों के कुल वजन से बीस गुणा कम कर
देने को ही तत्पर हो इससे इंकार नहीं किया जा सकता है । ऐसा करने के लिए
प्रकृति इस दुनिया के हवलदार कहे जाने वाले अमेरिकी राष्ट्रपति को अथवा
पूरी पृथ्वी पर अपनी मिल्कियत का दावा करने वाले वेटिकन सिटी के पोप को
या उनकी जेबी संस्था- युएनओ को कभी कोई सूचना हलफनामा या शपथ-पत्र तो
कतई नहीं देगी कि वह मनुष्येत्तर प्राणियों की क्रूर हत्याओं के बदले में
मनुष्य की आबादी कम करने के बावत कॉरोना वायरस भेज रही है । यह तो
पृथ्वी की इन महाशक्तियों को सनातन धर्म की भारतीय प्रज्ञा से निःसृत
‘सांख्य दर्शन’ और कपिल मुनि के सांख्य शास्त्र में वर्णित विविध
सूत्रों-समीकरणों से प्रकृति के रहस्यों को पढ कर स्वयं समझना होगा ।
मालूम हो कि ‘सांख्य दर्शन’ वेदों की व्याख्या करने वाले छह दर्शनों में
से एक है और इसमें सृष्टि की उत्पत्ति व संतुलन एवं विनाश की विशद
व्याख्या सृष्टि-तत्व अर्थात अणु-परमाणु युक्त सत (इलेक्ट्रोन) रज
(प्रोटोन) तम (न्यूट्रोन) सहित २४ तत्वों की संख्या के आधार पर की गई है
। इसी कारण इसे ‘सांख्य दर्शन’ कहा गया है । इसका मुख्य ग्रंथ ‘सांख्य
शास्त्र’ अथवा ‘सांख्य सूत्र’ है जो यद्यपि आज के पश्चिम के पदार्थ
विज्ञान का आदि स्रोत है तथापि समस्त प्रकार के दुःखों आपदाओं व
विभीषिकाओं की युक्ति-युक्त कारण मीमांसा प्रस्तुत करने वाला भी है ।
दुनिया के तमाम दर्शनशास्त्रियों से ले कर पदार्थ विज्ञानियों तक ने
सृष्टि के रहस्यों को जानने-समझने की दृष्टि सांख्य दर्शन से ही प्राप्त
की है । सृष्टि-उत्पत्ति विषयक आइंस्टिन के सापेक्षतावाद (relativity
theory) और सृष्टि-विस्तार विषयक डार्विन के विकासवाद (evolutionary
theory) नामक सिद्धांतों का मुख्य स्रोत लपिल मुनि का सांख्य शास्स्त्र
ही है ।
• अप्रेल’ २०२०
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