कॉरोना त्रासदी और भारतीय ज्ञान-विज्ञान को नकारने की गलती


कॉरोना के संक्रमण से फैलती महामारी की रोकथाम के बावत अंग्रेजी
चिकित्सा पद्धति में कोई भी दवा का ईजाद अभी तक नहीं हो पाया है । दुनिया
भर के चिकित्साशास्त्री से ले कर जीवविज्ञानी तक ऐसी दवा की खोज में
दिन-रात लगे हुए हैं किन्तु उन्हें सफलता नहीं मिल पा रही है । नतीजतन
जैसी कि खबर है एड्स व मलेरिया की दवाओं का इस्तेमाल कॉरोना-पीडितों की
जान बचाने के लिए किया जा रहा है जिससे जाहिर है- अपेक्षित लाभ नहीं मिल
पा रहा है । संक्रमितों में से कुछ लोग अगर ठीक हो भी रहे हैं तो इन
दवाओं के प्रभाव से नहीं बल्कि अन्य दूसरे कारणों से स्वस्थ हो रहे
हैं ।
अपने देश भारत में कॉरोना की तस्वीर बिल्कुल ही भिन्न है । पहली
भिन्नता तो यह है कि यहां संक्रमितों की संख्या अपेक्षाकृत बहुत ही कम है
। अर्थात संक्रमण की गतिशीलता और आक्रामकता तीव्र नहीं मद्धिम है । दूसरी
भिन्नता यह है कि संक्रमितों में मरने वालों के बजाय स्वस्थ हो जाने
वालों की संख्या ज्यादा है । इसका कारण यह बताया जा रहा है कि भारत के
लोगों में रोग-प्रतिरोधक क्षमता अभारतीय लोगों की अपेक्षा बहुत ज्यादा है
। एक और खास बात यह है कि कोई भी शाकाहारी व्यक्ति इस कॉरोना से संक्रमित
नहीं पाया गया है । दुनिया भर के जीव-विज्ञानी व चिकित्सा-शास्त्री इसे
आश्चर्य मान रहे हैं और इसके कारणों की खोज कर रहे हैं । उनकी यह खोज
जैव-विविधता के उनके सिद्धांत पर आ कर अटक जा रही है । वे यह मान ले रहे
हैं कि पृथ्वी के अलग अलग भू-भागों के निवासियों की शारीरिक संरचना में
रोग-प्रतिरोधक क्षमता की मात्रा प्राकृतिक तौर पर ही असमान रुप से
अलग-अलग होती है । जबकि सच्चाई यह नहीं है । धरती पर के सारे मनुष्यों की
शारीरिक संरचना तो एक ही तरह की अवश्य होती है लेकिन उनके भीतर की
प्रतिरोधक क्षमता प्राकृतिक तौर पर प्रायः न्यूनत्तम एक समान होने के
बावजूद उनके खान-पान की सामग्री व रहन-सहन की रीति-पद्धति के अनुसार
भिन्न हो जाती है । भारत के लोगों की रोग-प्रतिरोधक क्षमता अधिक होने का
सबसे बडा कारण यहां के पारम्परिक भोजन की स्वास्थ्यवर्द्धक सामग्री और
स्वास्थ्योन्मुखी जीवन शैली है । एक आम भारतीय परिवार का पारम्परिक भोजन
विदेशी भोज्य-व्यंजनों की तुलना में बहुत समृद्ध भले ही न हो किन्तु वह
ऐसे ऐसे औषधीय तत्वों से युक्त अवश्य होता है जो आरोग्यवर्द्धक एवं
रोग-प्रतिरोधक तो होता ही है । यहां प्रायः हर घर-परिवार के भोजन में
स्वास्थ्य-नियमों की पडताल किये बिना अनजाने में भी परम्परा से ही हल्दी
जीरा धनिया मेथी लहसुन आजवाइन गोलमीर्च सौंफ आदि ऐसे मशालाओं का उपयोग
होता है जिनमें चमत्कारिक औषधीय गुण हैं । इनके अलावे यहां के गावों का
औसत व्यक्ति तुलसी व नीम का सेवन भी किसी न किसी रुप में करते ही रहता
है । आखिर क्या कारण है कि दिल्ली आदि महानगरों से भीड की शक्ल में भागे
मजदूरों में से किसी को अथवा ग्रामीण परिवेश के किसी भी व्यक्ति को
कॉरोना आज तक संक्रमित नहीं कर पाया है ? जबकि ऐसी सम्भावना जतायी जा रही
है कि उस भीड में कॉरोना-संक्रामक ‘जमाती’ लोग भी जानबूझ कर घुसे हुए थे
। इसका मुख्य कारण यही है- भोजन की भारतीय परम्परा जो आरोग्य स्वास्थ्य व
चिकित्सा की आयुर्वेदिक भारतीय पद्धति के नियमों पर आधारित है ।
मालूम हो कि आयुर्वेद स्वास्थ्य चिकित्सा व आरोग्यता की एक पूर्ण
वैज्ञानिक पद्धति के साथ-साथ एक जीवन-शैली भी है जो रोगों का शमन-दमन
करने के लिए रोगी को बाहर से औषधि खिलाने के बजाय उसके भीतर ही
रोग-प्रतिरोधक क्षमता विकसित करने के सिद्धांत पर आधारित है । आयुर्वेद
रोगी को अपेक्षित आहार व औषधि के द्वारा भीतर से क्षमतावान बनाने एवं
उसकी उसी आन्तरिक क्षमता से उसके रोगों का शमन करने की ऐसी
चिकित्सा-पद्धति है जिसकी औषधियों से कोई सह-विकृति (साईड इफेक्ट) नहीं
होती है ; जबकि अभारतीय युरोपीय-अमेरिकी चिकित्सा-पद्धति ठीक इसके विपरीत
सिद्धांत पर आधारित है जिसकी हर दवा से कोई न कोई छोटी-बडी विकृति
उत्पन्न होती ही है । अंग्रेजों के आगमन से पूर्व हमारे देश में यही
चिकित्सा-पद्धति कायम थी जिसमें शल्य क्रिया (सर्जिकल ऑपरेशन) से ले कर
कृत्रिम त्वचारोपण (प्लास्टिक सर्जरी) तक की चिकित्सीय विद्यायें प्रचलित
थीं और अंग्रेजी चिकित्सा-पद्धति से कई अर्थों में कई गुणा विकसित थीं ।
लेकिन अंग्रेजों ने हमारी अत्यन्त समृद्ध व विकसित शिक्षा-व्यवस्था को
समूल उखाड कर उसका जो हाल किया वही हाल आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति का
भी कर दिया । अंग्रेजों ने भारत के प्राचीन ज्ञान-विज्ञान को सिरे से
नकार दिया अर्थात हमारी इस प्राचीन वैज्ञानिक परम्परा को ज्ञान मानने से
ही इंकार कर दिया और अपना अधकचरा ज्ञान हमारे ऊपर थोप दिया । फिर
अंग्रेजी शासन की समाप्ति के बाद कांग्रेस की सरकार तो और भी
शत्रुतापूर्वक समस्त भारतीय ज्ञान-परम्पराओं का दमन करती रही । नतीजा यह
हुआ कि चिकित्सा के व्यापक वैज्ञानिक सरंजाम से सम्पन्न होने के बावजूद
हम मामूली सर्दी खांसी की दवाओं के लिए भी अंग्रेजी गोलियों पर आश्रित हो
गए । बावजूद इसके हमारी परम्परिक जीवनशैली एवं इस आरोग्य-विद्या की
व्यापक सामाजिक स्वीकृति और इन सबसे बढ कर अपनी स्वयं की संजीवनी शक्ति
के बल पर हमारा यह आयुर्वेद आज भी न केवल फल-फुल रहा है बल्कि अंग्रेजी
एलोपैथिक चिकित्सा पद्धति को चुनौती दे रहा है । मेरे व्यक्तिगत संज्ञान
में कई ऐसी बीमारियों के मामले हैं जिन्हें ठीक करने में एलोपैथ असमर्थ
रहा किन्तु आयुर्वेद से वे ऐसे ठीक हो गईं जैसे कोई चमत्कार हो गया ।
किन्तु विडम्बना यह है कि इस भारतीय चिकित्सा पद्धति में बदलते परिवेश के
अनुकूल आवश्यक शोध-प्रयोग व अनुसंधान को सरकारी प्रोत्साहन नहीं के बराबर
मिल रहा है और किसी भी बीमारी की दवा के लिए हम युरोप अमेरिका में होने
वाले अनुसंधानों-आविष्कारों का मोहताज बने रहते हैं । कॉरोना महामारी के
सम्बन्ध में हमारी तमाम चिकित्सा-व्यवस्थायें उन्हीं अभारतीय संस्थानों
से निर्देशित हो रही हैं । यद्यपि यह बीमारी चूंकि उन्हीं देशों से यहां
आई हुई है इस कारण उनकी चिकित्सा पद्धति की ततसम्बन्धी दवाओं की अनदेखी
कतई नहीं करनी चाहिए तथापि हमें हमारी अपनी भारतीय चिकित्सा-पद्धति में
भी इसका निदान अवश्य खोजना चहिए । इस सम्बन्ध में उल्लेखनीय है कि
आयुर्वेद के ज्ञान-विज्ञान पर नवीन शोध अनुसंधान में सक्रिय ‘पतंजलि
योगपीठ’ ने दावा किया है कि आयुर्वेदिक औषधियों से ‘कोविड-19’ का
शत-प्रतिशत इलाज संभव है, और इसके संक्रमण से बचाव के लिए इन औषधीयों
का बतौर वैक्सीन भी इस्तेमाल किया जा सकता है । मीडिया में आई खबरों के
अनुसार पतंजलि अनुसंधान संस्थान द्वारा तीन माह तक शोध-परीक्षण करने के
बाद यह दावा किया गया है कि अश्वगंधा, गिलोय, तुलसी और स्वासारि रस का
निश्चित अनुपात में सेवन करने से कोरोना संक्रमित व्यक्ति को पूरी तरह
स्वस्थ किया जा सकता है । 14 शोधकर्ताओं ने आयुर्वेदिक गुणों वाले 150 से
अधिक पौधों पर दिन-रात शोध कर यह सफलता हासिल की है । शोधकर्ताओं का
ततसम्बन्धी शोध-पत्र अमेरिका के ‘वायरोलॉजी रिसर्च’ नामक मेडिकल जर्नल
में प्रकाशन के लिए भेजा गया है, जबकि वहीं के एक इंटरनेशनल जर्नल
‘बायोमेडिसिन फार्मोकोथेरेपी’ में इसका प्रकाशन हो चुका है । पतंजलि
अनुसंधान संस्थान के प्रमुख एवं उपाध्यक्ष डॉ. अनुराग वार्ष्णेाय ने कहा
है कि कोविड-19 के ईलाज की सारी विधियां महर्षि चरक के प्रसिद्ध ग्रंथ
‘चरक संहिता’ और आचार्य बालकृष्ण के वर्तमान प्रयोगों पर आधारित है । डॉ.
अनुराग वार्ष्णेिय के अनुसार ‘कोविड-19’ कोरोना-परिवार का सबसे नया एवं
खतरनाक वायरस है । इसकी प्रकृति इससे पहले आए इसी परिवार के ‘सॉर्स’
वायरस से काफी मिलती-जुलती है । इन दोनों में समानता और अंतर को तय करने
के साथ ही मानव-शरीर में कोविड-19 की क्रियाशीलता एवं मारक-क्षमता का
विस्तृत अध्ययन किया गया है । डॉ. वार्ष्णेेय का तो यह भी कहना है कि
कॉरोना-पीडितों की अति सुरक्षा के लिए आयुर्वेदिक अणु तेलक भी ‘नोजल
ड्रॉप’ के रूप में इस्तेमाल योग्य है जिसकी चार-चार बूंदें
सुबह-दोपहर-शाम को नाक में डालने पर रामबाण सिद्ध होंगी । उन्होंने दावा
किया है कि ये औषधियां राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सभी प्रमुख
संस्थानों से प्रामाणिक हैं । ऐसे में कॉरोना महामारी की त्रासदी से
निबटने में चिकित्सा के आयुर्वेद नामक भारतीय ज्ञान-विज्ञान को नकारना
एक बहुत बडी गलती सिद्ध हो सकती है । भारत-सरकार को इस संक्रामक बीमारी से देश को उबरने के बावत आयुर्वेद की महत्ता को भी स्वीकार करना ही चाहिए ।
• अप्रेल’२०२०