हिन्दुत्व’ पर मोहनदास का मत और मोहन भागवत


राष्ट्रीय स्वयंसेवक के सरसंघचालक मोहन भागवत ने पिछले दिनों
गांधी स्मृति कीर्ति मण्डप के एक मंच से हिन्दुत्व के प्रति महात्मा
गांधी के सम्बन्ध में यह जो कहा है कि वे स्वयं को एक कट्टर सनातनी
हिन्दू कहते-मानते थे उससे अपने देश के सेक्युलर नेताओं और संघ-विरोधी
बुद्धिबाजों में बेचैनी बढ गई है । उनकी बेचैनी की वजह यह नहीं है कि
मोहन भागवत ने हिन्दुत्व के प्रति मोहनदास के किस मत का उल्लेख किया
बल्कि इसकी असली वजह यह है कि उन्होंने जो भी कहा है सो सच कहा है और अगर
देश यह जान गया कि महात्माजी सचमुच हिन्दुत्व के प्रति आग्रही थे तो
हिन्दू-विरोध पर आधारित उनके ‘सेक्युलरिज्म’ का आसमानी घोडा धराशायी हो
जाएगा । उनकी बेचैनी का सबब यह भी है कि गांधी जी की हत्या के नाम पर संघ
के प्रति घृणा का जो विषवमण उनके द्वारा सन १९४८ से ही किया जा रहा सो
गांधी-जयन्ती के इस १५०वें वर्ष से अगर धुल जाएगा या धुलना शुरु हो जाएगा
तो फिर वे कहीं के नहीं रहेंगे । बहरहाल. मोहन भागवत ने जब महात्मा गांधी
अर्थात मोहनदास करमचन्द गांधी को ‘कट्टर सनातनी हिन्दू’ बता ही दिया है
तो अब हिन्दुत्व पर गांधीजी के मत की छानबीन तो होनी ही चाहिए । .
‘हिन्दुत्व’ को भारतीय राष्ट्रीयता का आधार बताते हुए गांधी जी ने
‘हिन्दू धर्म’ नामक अंग्रेजी भाषा की अपनी पुस्तक में ३४वें पृष्ठ पर
लिखा है- “अंग्रेज हमें यह सिखाने की कोशिशें करते रहे हैं कि भारत कभी
एक राष्ट्र नहीं रहा है । उनका यह प्रचार झुठा है । इसका कोई आधार नहीं
है । अंग्रेजों के भारत आने के पहले से हम एक राष्ट्र रहे हैं । हमारे
मूलभूत विचार पूर भारत में एक ही थे । इसी कारण हरिद्वार सेतुबंध
रामेश्वर व जगन्नाथपुरी आदि चारो धामों एवं विविध तीर्थों की प्रतिष्ठा
है । हिन्दुत्व हमारी राष्ट्रीयता का आधार था ।” २४ नवम्बर १९२७ के ‘यंग
इण्डिया’ में उन्होंने लिखा है- हिन्दुत्व का विश्व को सबसे बडा य्गदान
यह है कि इसने सर्वप्रथम यह तथ्य प्राकाशित किया कि पुनर्जन्म सत्य है ।”
२६ दिसम्बर १९३६ के ‘हरिजन’ में उन्होंने लिखा है- “हिन्दुत्व हमें यह
सिखाता है कि सभी मनुष्यों को तो मोक्ष मिलना सम्भव है ही ; सृष्टि के
समस्त जीवों की भी मुक्ति सम्भव है । हिन्दुत्व तो जीव मात्र में एकात्म
देखता है । हिन्दुत्व में सभी प्रकार के शोषण का निषेध है । हिन्दुत्व
में समस्त जीवों के प्रति एकात्मता की यह अनुभूति मनुष्य को अपनी जरुरतें
व इच्छायें सीमित व मर्यादित रखने पर बल देती है ।” हिन्दू धर्म व
हिन्दुत्व के प्रति गांधीजी की यह दृष्टि रामायण और गीता से अभिप्रेरित
है ।
यह तो जगजाहिर है कि गांधी जी राजनीति का आदर्श रामराज्य रहा है
और गीता उनकी समस्त राजनीतिक गतिविधियों की प्रेरणा-स्रोत रही है ।
‘गीता’ पर उनका चिंतन-मनन तथा लेखन भी लंबे समय तक चलते रहा । सम्पूर्ण
गीता का गुजराती में अनुवाद उन्होंने स्वयं किया हुआ है जो ‘अनासक्ति
योग’ नामक पुस्तक के रुप में वर्ष १९२९-१९३० में नवजीवन प्रकाशन मंदिर,
अहमदाबाद से पहली बार प्रकाशित हुआ । फिर उसका हिंदी, बांग्ला एवं
मराठी अनुवाद भी हुआ । इसका अंग्रेजी-अनुवाद भी वे ‘यंग इंडिया’ नामक
अपने अखबार में समय-समय पर प्रकाशित करते-कराते रहे थे । उन्होंने अपनी
धार्मिक मान्यता के सम्बन्ध में स्वयं कहा है कि “हिंदू धर्म, जैसा मैंने
इसे समझा है, मेरी आत्मा को पूरी तरह से तृप्त करता है तथा मेरे प्राणों
को आप्लावित कर देता है,... जब संदेह मुझे घेर लेता है, जब निराशा मेरे
सम्मुख आ खड़ी होती है, जब क्षितिज पर प्रकाश की एक किरण भी दिखाई नहीं
देती, तब मैं ‘गीता’ की शरण में जाता हूँ और उसके प्रभाव से मैं घोर
विषाद के बीच भी तुरंत मुस्कुराने लगता हूं । मेरे जीवन में अनेक बाह्य
त्रासदियां घटी है और यदि उन्होंने मेरे ऊपर कोई प्रत्यक्ष या अमिट
प्रभाव नहीं छोड़ा है तो मैं इसका श्रेय ‘गीता’ के उपदेशों को ही देता
हूँ” । ‘गीता’ के प्रति उनकी अनुरक्ति को आप इतने ही समझ सकते हैं कि वे
वर्ष १९३१-३२ में जब यरवदा सेंट्रल जेल में थे तब वहां से हर सप्ताह
गीता के विभिन्न श्लोकों का सहज बोधगम्य भावानुवाद का पत्र प्रत्येक
सप्ताह साबरमति आश्रम के तत्कालीन प्रबंधक अर्थात अपने भतीजे नारायणदास
गांधी को इस हिदायत के साथ भेजा करते थे कि आश्रम की प्रार्थना सभाओं
में इसे पढा जाए । उनके उन समस्त पत्रों का संकलन पुस्तक-रुप में
‘गीता-बोध’ नाम से हुआ है । गीता से गाँधी जी का जुड़ाव इतना गहरा था कि
तमाम राजनीतिक व्यस्तताओं के बावजूद उन्होंने गीता के प्रत्येक पद का
अक्षर क्रम से कोश तैयार किया. जिसमें सभी पदों के अर्थ के साथ-साथ उनके
प्रयोग-स्थल भी निर्दिष्ट हैं और उन्होंने इस पुस्तक को ‘गीता माता’ नाम
दिया ।
आइएअ अब चलते हैं दिल्ली के तीस जनवरी मार्ग स्थित गांधी स्मृति कीर्ति
मण्डम के उस मंच पर जंहा सन १९४८ में गांधीजी हत्या हुई और जिसके लिए संघ
को लांछित किया गया इसी कारण संघ का कोई भी सरसंघचालक आज तक वहां नहीं
गया था; किन्तु मोहन भागवत ने वहां जा कर इस परम्परा को तोडते हुए
गांधीजी को कट्टर हिन्दू घोषित किया है । भागवत जी ने कहा है कि “गांधी
जी स्वयं को कट्टर सनातनी हिंदू मानते थे और यह भी कहा करते थे कि मैं
कट्टर सनातनी हिंदू हूं , इसलिये पूजा पद्धति के भेद को मैं नहीं मानता
हूं ।” संघ-प्रमुख के इस कथन में कहीं कोई अतिरंजना कतई नहीं है ।
‘यंग इंडिया’ के छह अक्टूबर १९२१ के अंक में उन्होंने स्वयं ही
लिखा है “मैं अपने को सनातनी हिंदू इसलिए कहता हूं क्य़ोंकि, मैं वेदों,
उपनिषदों, पुराणों और हिंदू धर्मग्रंथों के नाम से प्रचलित सारे साहित्य
में विश्वास रखता हूं और इसीलिए अवतारों और पुनर्जन्म में भी । मैं
गो-रक्षा में उसके लोक-प्रचलित रूपों से कहीं अधिक व्यापक रूप में
विश्वास रखता हूं । इसी लेख में उन्होंने यह भी लिखा है कि “मैं
मूर्तिपूजा में अविश्वास नहीं करता”। आगे उन्होंने लिखा है- “ मैं हिन्दू
धर्म के मूल विश्वासों में से एक को भी नहीं छोड सकता ।”
हिन्दुत्व पर महात्माजी की राय को व्यक्त करते हुए रामेश्वर
मिश्र मे अपनी पुस्तक ‘गांधीजी की विश्व दृष्टि’ में सम्पूर्ण गांधी
वांग्मय के हवालेव से लिखा है- “मेरी दृष्टि में हिन्दुत्व एवं सत्य व
धर्म तीनों परस्पर एक दूसरे के स्थान पर रखे जा सकने योग्य हैं ।
हिन्दुत्व सर्वव्यापी है. सर्वसमावेशी है । विश्व में जहां कहीं भी धर्म
का जो भी रुप होगा वह समस्त धर्म-रुप हिन्दुत्व में स्वतः विद्यमान है और
जो धर्म रुप हिन्दुत्व में नहीं है वह असार व अनावश्यक है”।
स्पष्ट है कि ‘एनसीईआरटी’ के पूर्व निदेश्क जगमोहन राजपूत की
पुस्तक- ‘गांधी को समझने का यही समय’ का विमोचन करते हुए मोहन भागवत ने
हिन्दुत्व पर मोहनदास करमचन्द गांधी के जिस मत का उल्लेख अपने भाषण में
किया है वह ध्यातव्य है । गांधीजी की १५०वीं जयन्ती के अवसर पर उनके
विचारों को इस परिप्रेक्ष्य में पढने-समझने और सम्यक बहस-विमर्श करने की
आवश्यकता है ।
• फरवरी’२०२०