इन दिनों भारत भर में इसके संविधान को ले कर विभिन्न प्रकार के
बहस-विमर्श छिडे हुए हैं । कुछ लोगों का कोई समूह जनता के बीच यह
प्रचारित करने में जुटा हुआ है कि संविधान के समक्ष भाजपा-सरकार की
नीतियों से खतरा उत्त्पन्न हो गया है. तो कोई संविधान को उन कथित खतरों
से बचाने के हल्ला-बोल में डटा हुआ है । कोई समूह किसी कानून को
असांवैधानिक बताने के लिए धरना-प्रदर्शन के आयोजन में लगा हुआ है. तो कोई
सांवैधानिक प्रावधानों को परिभाषित करने में भिडा हुआ है । किन्तु क्या
सांवैधानिक है और क्या असांवैधानिक है तथा कोई कानून क्यों सांवैधानिक है
और कोई अधिनियम क्यों असांवैधानिक है ; इस पर कायदे से कोई तार्किक
बहस-विमर्श हो ही नहीं रहा है । क्योंकि हल्ला मचाने और धरना-प्रदर्शन
करने वाले समूह का सूत्र-संचालन उन लोगों के हाथों में है जो असल में
संविधान लागू होने के साथ ही संविधान के नाम पर वर्षों पहले से ही मनमाना
करते आ रहे हैं तथा आज भी अपनी मनमानी को ही सांवैधानिकता बनाम
असांवैधानिकता के निर्धारण का मापदण्ड बनाने और उसे ही भांजने की
जबर्दस्ती पर तुले हुए हैं । सच तो यह है कि ‘इण्डिया दैट इज भारत का
संविधान’ ही दर-असल अंग्रेज-हुक्मरानों द्वारा बनाया-बनवाया हुआ एक ऐसा
संविधान है. जिसे हमारे देश के मात्र ३८९ प्रतिनिधियों की संविधान-सभा के
सिर्फ २८४ सदस्यों ने स्वयं को ही ‘हम भारत के लोग’ बताते हुए अपने
हस्ताक्षर से आत्मार्पित किया हुआ है । गौर करने वली बात है कि
हिन्दू-मुस्लिम नामक धर्म व मजहब के आधार पर देश का बंटवारा कर हमारी
मातृभूमि के ३०% भू-भाग में मुस्लिम राष्ट्र बना देने वालों की ‘संविधान
सभा’ द्वारा उक्त विभाजन के बावजूद अवशेष भू-भाग पर स्वतः हिन्दू-राष्ट्र
बने रहने की स्वाभाविकता को जबरिया नकार देने की मनमानी की गई । फिर भी
इस बचे-खुचे देश की स्वयंभूव प्रजा ने संविधान सभा की उस मनमानी को
स्वीकार करते हुए सन१९५० में उक्त संविधान को ही आत्मसात कर लिया ।
फिर उसी संविधान के तहत ५४० सदस्यों की लोकसभा और २५०
सद्स्यों की राज्यसभा वाली संसद का गठन हुआ. जिसके द्वारा जब- जब जो-जो
कानून बनाये गए उन सब को इस देश की प्रजा ने स्वीकार कर बहुदलीय
प्रजातंत्र को अपना लिया । फिर सन १९७६ में जब सारे विपक्षी दलों के
नेता-कार्यकर्ता जेलों के भीतर कैद में थे और संसद की ये दोनों
विधायी-सभायें प्रजातंत्र का गला दबा चुकी कांग्रेस की मुट्ठी में थीं.
तब उस कांग्रेसी तानाशाही की चाकरी करने वाली संसद ने संविधान में
‘सेक्युलर’ शब्द जोड कर भारत को धर्मनिरपेक्ष गणराज्य घोषित कर दिया तो
उसे भी इस देश की स्वयंभूव प्रजा ने सांवैधानिक प्रावधान मान कर चुपचाप
स्वीकार कर लिया । इसी तरह से कांग्रेस के द्वारा समय समय पर और भी अनेक
वाजीब-गैरवाजीब तरह-तरह के कानून बनाये जाते रहे. जिनकी वैधानिकता या
सांवैधानिकता पर कभी कोई सवाल नहीं उठाया गया । किन्तु अब वही कांग्रेस
जब देश की केन्द्रीय राजसत्ता से बेदखल हो कर पुनः सत्तासीन होने का सपना
देख रही है और अवशेष भारत की स्वयंभूव प्रजा कांग्रेसी कुकर्मों का
दुष्फल भोग रही है ; तब सन २०१९ में विपक्ष की उपस्थिति से युक्त संसद की
दोनों सभाओं के बहुमत से ही बने नागरिकता संशोधन कानून को वह असांवैधानिक
बता रही है । सांवैधानिकता व असांवैधानिकता को अपनी जरुरत के हिसाब से
परिभाषित करते रहने वाली कांग्रेस के इशारे पर उसके कारिन्दों का एक समूह
इस कानून के विरोध-स्वरुप जहां-तहां तोड-फोड व आगजनी करता फिर रहा है. तो
एक समूह दिल्ली के शाहिनबाग में सडंक-जाम को अंजाम दिए हुए है । जबकि
अन्य तमाम कांग्रेसी ढोलची-तबलची संविधान की भावनाओं व धर्मनिरपेक्षता
के सांवैधानिक प्रावधानों एवं प्रजातंत्र के सांवैधानिक मूल्यों का
मिथ्या राग आलापने में लगे हुए हैं और इस अवशेष भारत की स्वयंभूव प्रजा
को देश के टूट जाने अथवा मिट जाने का काल्पनिक भय दिखा-दिखा कर भयभीत
करने में लगे हुए हैं । ऐसे में यह विचारणीय है कि यह संविधान है क्या ?
और इसकी भावना आखिर क्या है ?
मालूम हो कि जिस संविधान से हम शासित हो रहे हैं वह असल में
ब्रिटिश पार्लियामेण्ट द्वारा भारत को शासित करने के बावत समय-समय पर
पारित कानूनों यथा- ‘इण्डिया काऊंसिल ऐक्ट-१८६१’ तथा ‘भारत शासन
अधिनियम-१९३५’ और ‘कैबिनेट मिशन प्लान- १९४६’ एवं ‘इण्डियन इंडिपेण्डेन्स
ऐक्ट- १९४७’ का संकलन मात्र है । इस संकलन को ही स्वतंत्र भारत के
संविधान का जामा पहनाने के निमित्त ब्रिटेन की सरकार के निर्देशानुसार
तत्कालीन ब्रिटिश वायसराय बावेल ने बी०एन० राव नामक एक आई०सी०एस० अधिकारी
को संविधान-सभा का परामर्शदाता नियुक्त कर रखा था । उस ब्रिटिश नौकरशाह
ने ब्रिटिश योजना के तहत जिस संविधान का जो प्रारूप तैयार किया. उसे ही
संविधान-सभा ने थोडा-बहुत वाद-विवाद कर चुपचाप स्वीकार कर लिया था । उस
‘संविधान सभा’ के गठन में भी स्वतंत्र भारत की सामान्य-स्वाभाविक
स्वयंभूव प्रजा का कोई योगदान नहीं था । भारत की सामान्य प्रजा ने उक्त
संविधान सभा का न गठन किया था और न ही उसे अधिकृत किया था कि वे ‘हम
भारत के लोगो’ के लिए कोई संविधान लिख दें । .सच तो यह भी है कि भारत के
सामान्य लोगों से इस संविधान की पुष्टि भी नहीं करवायी गयी । बल्कि
संविधान में ही धारा ३८४ सृजित कर , उसी के तहत इसे ‘हम भारत के लोगों’
पर थोप दिया गया । बावजूद इसके संविधान-सभा के ३८९ बनाम २८४ सदस्यों के
उस निर्णय को ‘हम भारत के लोग’ आत्मसात किये हुए हैं । स्पष्ट है कि यह
संविधान दर-असल भारत को शासित करने के लिए संविधान-सभा के ३८९ बनाम २८४
सदस्यों द्वारा स्वीकार किया हुआ ब्रिटिश कानूनों का लिखित पुलिंदा मात्र
है । तो इसकी भावना आखिर क्या है ?
जाहिर है . जिन २८४ लोगों ने स्वयं को ‘हम भारत के लोग’ बताते हुए
अपने हस्ताक्षरों से इसे हमारे देश के नाम आत्मार्पित किया हुआ है उनकी
जो भावना रही होगी वही ‘इण्डिया दैट इज भारत’ के इस संविधान की मूल भावना
हो सकती है ; अर्थात ब्रिटिश कानूनों के तहत शासन-व्यवस्था कायम करने और
उस व्यवस्था से निर्मित सत्ता का सुख भोगने के सिवाय उनकी दूसरी कोई
भावना थी ही नहीं ; अन्यथा यह संविधान भारत की सनातन परम्पराओं से
निर्मित हुआ होता । यह ब्रिटिश कानूनों का संकलित रुप नहीं होता और न ही
विदेशों से आयातित होता । यह संविधान धर्म व मजहब के आधार पर विभाजित हो
कर बचे-खुचे ‘अवशेष भारत’ की भावनाओं को अभिव्यक्त करने की युक्ति कतई
नहीं है. क्योंकि बाद में इससे ‘धर्मनिरपेक्षता’ नाम का प्रावधान जोड
दिया गया । गौरतलब है कि संविधान बनाने और इसे आत्मार्पित करने वालों ने
जब धर्म व मजहब के आधार पर ही इस देश का विभाजन कर दिया तब अवशेष भारत को
धर्मनिरपेक्ष बनाने का औचित्य आखिर क्या रह गया ? फिर ऐसे घोर अनौचित्य
के बावजूद इस संविधान के दायरे में भी देखें तो धर्मनिरपेक्षता का जो
प्रावधान किया गया है सो तो निहायत ही असांवैधानिक है; क्योंकि यह तो एक
संशोधन के जरिये संविधान से तब जोडा गया है जब संसद में विपक्ष की
उपस्थिति ही नहीं थी ; जबकि इसे जोडने वाले लोग इस संविधान के मूल तत्व
अर्थात प्रजातंत्र का ही गला दबाये हुए थे । ऐसे में अब सवाल यह उठता है
कि जब महज २८४ लोगों द्वारा स्वीकार किये गए संविधान को पूरा अवशेष भारत
आत्मसात कर सकता है तथा विपक्ष की अनुपस्थिति व प्रजातंत्र की
वर्खाश्तगी के दौरान तानाशाहीपूर्वक उस संविधान से जोडी गई
धर्मनिरपेक्षता को सांवैधानिक प्रावधान मानने से इंकार नहीं किया जा सकता
है . तो यह नागरिकता संशोधन कानून ही आखिर किस कारण से किस आधार पर
असांवैधानिक हो गया ? इस सवाल का कोई भी जवाब इस कानून का विरोध करने
वाले किसी भी व्यक्ति. समूह या दल के पास नहीं है । देश का मनमाना विभाजन
कर अंग्रेजों के बनाये संविधान को इस देश पर मनमाना तरीके से थोप देने की
मनमानी करने वाली कांग्रेस जिस मनमाने ढंग से संविधान में धर्मनिरपेक्षता
का प्रावधान कर अपनी मनमानी बरपाती रही है. उसी तरह से अब सांवैधानिकता व असांवैधानिकता का भी मनमाना राग बेईमानीपूर्वक आलाप रही है । कांग्रेस
द्वारा प्रजातंत्र का गला घोंट कर संविधान में ‘धर्मनिरपेक्षता’ नाम का
जो प्रावधान जोडा गया है सो अगर सांवैधानिक है तो भरी संसद में
पक्ष-विपक्ष के बीच हुए स्वस्थ बहस-विमर्श के पश्चात नियमानुसार निर्मित
नागरिकता संशोधन कानून कांग्रेस की मनमानी थोथी व्याख्या से असांवैधानिक
भला कैसे हो सकता है ? यह कानून भी उतना ही सांवैधानिक है जितना कि दूसरा
कोई कानून ।
• फरवरी’ २०२०
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