नैतिक समस्याओं का मर्म और साहित्य से उपजा संभ्रम


आज अपने देश में जितनी भी तरह की समस्यायें और चुनैतियां विद्यमान
हैं, उन सबका मूल कारण वस्तुतः बौद्धिक संभ्रम है , जो या तो अज्ञानतावश
कायम है या अंग्रेजी मैकाले शिक्षा व साहित्य से निर्मित औपनिवेशिक सोच
का परिणाम है अथवा वैश्विक महाशक्तियों के भारत-विरोधी साम्राज्यवादी
षड्यंत्र का दुष्परिणाम । राष्ट्रीय एकता-अखण्डता पर प्रहार करते रहने
वाला आतंकवाद , अलगाववाद , क्षेत्रीयतावाद, सम्प्रदायवाद ,
धर्मनिरपेक्षतावाद हो या आर्थिक विषमता की खाई को गहरी चौडी करने वाली
समस्याओं में शुमार भूख बेरोजगारी गरीबी पलायन शोषण दमन हों अथवा सामाजिक
जीवन की शुचिता-नैतिकता को ग्रसते जाने वाला अनाचार व्याभिचार
भ्रष्टाचार हो या व्यैक्तिक-पारिवारिक जीवन में घर करती जा रही
स्वार्थपरायणता व संकीर्णता हो , सब का मूल कारण अनुचित अनर्गल
बौद्धिक-शैक्षिक परिपोषण ही है ; जबकि किसी भी
व्यक्ति-परिवार-समाज-राष्ट्र की बौद्धिकता-शैक्षिकता का सीधा सम्बन्ध
साहित्य से ही है । क्योंकि , साहित्य न केवल संस्कृति के संवर्द्धन में
सहायक होता है , अपितु लोक-मानस व लोक-प्रवृति के निर्माण में भी साहित्य
की महत भूमिका कारगर होती है ।
उल्लेखनीय है कि अपने देश की विभिन्न भाषाओं के साहित्य में जब
तक राष्ट्रीयता का स्वर प्रमुखता से मुखरित होता रहा , तब तक राष्ट्रीय
एकता अखण्डता की भावनायें राजनीतिक दासता से स्वतंत्रता-प्राप्ति तक
पुष्ट होती रहीं । किन्तु स्वतंत्र्योत्तर साहित्य में जब वामपंथी धारा
के बहाव से जनवाद , दलितवाद , नारीवाद , प्रगतिवाद , प्रयोगवाद जैसी
प्रवत्तियां मुखरित हो उठीं ; तब उनके प्रभाव-दुष्प्रभाव से देश में
पृथकतावाद व जातिवाद ही नहीं , बल्कि आतंकवाद व नक्सलवाद का हिंसक विषवमन
भी होने लगा , जो आज राष्ट्र के समक्ष गम्भीर चुनौतियां बनी हुई हैं ।
इन सब अनुचित-अवांछित ‘वादों’ को किसी न किसी रुप में साहित्य से भी पोषण
हो रहा है , इससे इंकार नहीं किया जा सकता है । आज जवाहर लाल नेहरु
विश्वविद्यालय जैसे शीर्षस्थ शिक्षण संस्थानों में भारत-विरोधी नारा
मुखरित हो रहे हैं , गो-मांस-भक्षण के समारोह आयोजित हो रहे हैं ; तो
समझा जा सकता है कि ऐसी मनः-स्थिति व राष्ट्र-विरोधी प्रवृति के निर्माण
में साहित्य की ही एक खास धारा प्रभावी भूमिका निभा रही है ।
इसी तरह से व्यक्ति के नैतिक पतन और लगातार बढ रहे पारिवारिक
विघटन में भी कहीं न कहीं ऐसी प्रवृत्तियों का निर्माण करने वाले साहित्य
का ही योगदान है । साहित्य के नाम पर जन-मानस को अवांछित-गर्हित विचारों
का मानसिक आहार परोसा जाना इसके लिए कम जिम्मेवार नहीं है । यह साहित्य
की एक खास धारा का ही प्रभाव है , जिसकी वजह से आज परिवार की परिभाषा बदल
कर पति-पत्नी व बच्चे तक सीमित हो गई है । ‘प्रेम’ व ‘प्यार’ जैसे
पवित्र शब्दों को युवक-युवती या स्त्री-पुरुष के दैहिक आकर्षण एवं
मैथुनिक आचरण में परिणत कर देने और इसके परिणामस्वरुप समाज में बढ रहे
व्याभिचार-बलात्कार की प्रवृत्तियों के लिए तो सिर्फ और सिर्फ साहित्य ही
जिम्मेवार है । आज स्थिति यह हो गई है कि किसी युवती-स्त्री के प्रति
मैथुन-प्रेरित पशुवत आचरण करने वाले निकृष्ट अपराधी को भी उस
स्त्री-युवती का प्रेमी कहा जाने लगा है , तो दूसरी ओर भाई व बहन के
परस्पर सम्बन्ध के स्वरुप को ‘प्रेम’ या ‘प्यार’ कहे जाने में लोगों को
संकोच होने लगा है । यह साहित्य ही है , जिसके आधार पर सामाज में नैतिक
पतन व चारित्रिक क्षरण को बढावा देने वाली फिल्मों के निर्माण हो रहे
हैं । फिल्मी नचनिया-बजनिया कलाकारों और तथाकथित अभिनेताओं को समाज में
व्याभिचार फैलाने वाली फिल्मों के निर्माण व अभिनयन हेतु कच्चे माल के
तौर पर फुहड गीतो व कहानियों की आपूर्ति किसी न किसी रुप में साहित्य से
ही रही है । आज किशोर-किशोरियों, युवक-युवतियों को फिल्मी कथा-कहानियों
से प्रेरित हो कर अपने जीवन की दिशा स्वयं निर्धारित करने तथा जीवन-साथी
स्वयं चयनित करने और उस निर्धारण-चयन में माता-पिता की उपेक्षा करने में
साहित्य ही प्रेरक बना हुआ है । पारिवारिक विघटन के लिए और भी तत्व चाहे
जितने भी जिम्मेवार हों , किन्तु साहित्य इसके लिए सर्वाधिक जिम्मेवार है
। अपने देश में संयुक्त परिवारों का विघटित होते जाना भले ही सिर्फ
सामाजिक चुनौती के रुप में चिन्हित हो रहा हो , मगर यह पारिवारिक विघटन
प्रकारान्तर में एक राष्ट्रीय चुनौती भी है ; क्योंकि इससे एकता की भावना
खण्डित होती है, स्वार्थपरता बढती है और सामूहिक-पारिवारिक विकास अवरुद्ध
होता है, जिससे अंततः राष्ट्र ही कमजोर होता है ।
आज अपने देश की राष्ट्रीय अस्मिता एवं पुरातन संस्कृति और
भारतीय धर्म-दर्शन, जीवन-दृष्टि तथा भारतीय ज्ञान-विज्ञान के प्रति हमारी
पीढियों में बढती अरुचि एवं निष्ठाहीनता तथा पश्चिम के प्रति बढती
पलायनवादिता के लिए भी कहीं न कहीं वर्तमान साहित्य भी जिम्मेवार है ।
हालाकि इन सब के प्रति लोगों में बची-खुची थोडी-बहुत निष्ठा , रुचि व
आकर्षण भी पूर्ववर्ती साहित्य के कारण ही कायम है ; इससे भी इंकार नहीं
किया जा सकता है । आज हमारे देश में जिस तरह की शिक्षा-पद्धति कायम है ,
उससे हमारी अस्मिता अब तक तो समाप्त हो जानी चाहिए थी ; किन्तु इसके
बावजूद अगर हमारे भीतर राष्ट्रीयता अभी जीवित है , तो निस्संदेह इसका
श्रेय साहित्य को ही है , जिससे यह प्रमाणित होता है कि साहित्य की
तत्सम्बन्धी सृजनशीलता से यह और पुष्ट हो सकती है; जबकि यथास्थितिवादिता
से हमारी अस्मिता धीरे-धीरे मिट भी सकती है ।
हमारे देश की अधिकतर समस्याओं व चुनौतियों का कारण यहां का
राजनीतिक प्रदूषण है और इस राजनीति का अभीष्ट सिर्फ शासनिक सत्ता है ।
ऐसे में इन चुनौतियों का समाधान साहित्य में ही ढूंढना वांछित है । कहा
भी गया है , बल्कि देखा भी गया है कि राजनीति जब डगमगाती है, तो साहित्य
उसे गिरने से बचाता है । किन्तु यह तभी सम्भव है जब साहित्य अपने धर्म-पथ
पर अडीग रहे । किन्तु अपने देश में वर्तमान स्थिति भिन्न है । साहित्य की
एक धारा साहित्य के स्वधर्म के पथ पर नहीं , बल्कि राजनीति के एक
पथ-विशेष पर उन्मुख हो उसी की हां में हां मिलाता रहा है ।
स्वातंत्र्योत्तर भारत का लोकमानस गढने में राजनीति व साहित्य की इसी
दुरभिसंधि का योगदान रहा है , जिसके तहत अब राजनीतिक परिदृश्य बदल जाने
पर पुरस्कार-सम्मान वापसी से लेकर सहिष्णुता-असहिष्णुता को मापने तक के
प्रहसन किये जा रहे हैं । ऐसे में साहित्य की भूमिका अब और बढ गई है तथा
बदल भी गई है । साहित्य व राजनीति की दुरभिसंधि अगर कायम रही , तो स्थिति
और बिगडती जाएगी । अतएव साहित्य को अपने स्वधर्म पर लौटना होगा और धर्म के मार्ग पर ही अडीग रहना होगा । तभी बौद्धिक संभ्रम के कारण कायम तमाम नैतिक समस्याओं का समाधान हो पाएगा हैं और देश में स्वस्थ बौद्धिक
विमर्श का वातावरण निर्मित हो सकेगा ।
• फरवरी’ २०२०