बोलने की आजादी का वामपंथी मतलब और दूसरों को बोलने से रोकने का इरफानी करतब


दुनिया भर में बेआबरु हो चुका वामपंथ भारत में उन मुट्ठी भर
बुद्धिबाजों की जमात के सिर चढ कर बोल रहा है जो आय दिनों ‘बोलने की
आजादी’ का झण्डा लहराते रहते हैं और कभी-कभी तो ड्ण्डा भांजने जैसा करतब
भी दिखाने लगते हैं । पिछले दिनों बीते साल के अंत में ऐसा ही हुआ ।
पद्मभूषण से सम्मानित एक तथाकथित इतिहासकार तथा वामपंथी झण्डाबरदार और
बोलने की आजादी के जबर्दस्त पैरोकार- इरफान हबीब ने केरल के राज्यपाल
आरिफ मोहम्मद खान को बोलने से रोकने के बावत उनके मंच पर ही उनका मुंह
बंद करने लपक पडे । केरल के राजभवन से देश भर के मीडिया को जारी बयान
एवं खान साहब के व्यक्तिगत ट्विटर से सार्वजनिक हुई इस घटना की जानकारी
के मुताबिक पिछले दिनों कन्नूर युनिवर्सिटी में आयोजित ‘इण्डियन हिस्ट्री
कांग्रेस’ के उक्त कार्यक्रम में राज्यपाल के सुरक्षाकर्मी अगर मंच पर
मौजूद नहीं होते और युनिवर्सिटी के वाइसचांसलर अगर उन्हें अपनी ओट में न
लिए होते तो इतिहासकार इरफान हबीब उन पर हमला भी कर सकते थे । मालूम
हो कि उक्त कार्यक्रम के एक दिन पहले भी इस तथाकथित इतिहासकार ने
नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) पर विचार रखते समय केरल के गर्वनर के भाषण
को रोकने की कोशिश की थी ।
राजभवन से जारी ततसम्बन्धी बयान के अनुसार राज्यपाल का कार्यक्रम
नियमानुसार कहीं भी एक घंटे से ज्यादा का नहीं हो सकता, लेकिन उक्त
कार्यक्रम में वक्तागण नियम तोड़कर डेढ़ घंटे तक बोलते रहे । वे लोग सीएए
(नागरिकता संशोधन अधिनियम) को संविधान के खिलाफ बताते रहे और सरकार पर
संविधान को खतरे में डाल देने का आरोप लगा रहे थे । उस दौरान महामहिम
राज्यपाल उनकी इन सब बातों को चुपचाप सुनते रहे । आरिफ मोहम्मद खान ने
कहा है कि “इन सबको सुनने के बाद जब मैं बोलने लगा तो इतिहासकार इरफान
हबीब ने मुझको रोकने की कोशिश की । वो मेरी ओर बढ़े चले आये, लेकिन जब
मेरे एडीसी ने उनको रोका, तो उन्होंने एडीसी का बैज नोच लिया और उनसे
बदसलूकी की” । अपने ट्विटर में राज्यपाल ने पूरे देश को यह बताया है कि
“इस बीच सुरक्षाकर्मी और कन्नूर यूनिवर्सिटी के वाइस चांसलर मेरे
(राज्यपाल खान के) और इरफान हबीब के बीच दीवार बनकर खड़े हो गए” । जाहिर
है अगर ऐसा नहीं होता तो मोदी-सरकार पर बोलने की आजादी के हनन का आरोप
लगाते रहने वाला वह इतिहासकार राज्यपाल महोदय पर टूट पडता ; जैसा कि आरिफ
मोहम्मद खान ने स्वयं आरोप लगाया कि “इरफान हबीब मुझ तक पहुंचने की कोशिश
कर रहे थे ”। अपने ट्वीट में राज्यपाल ने कहा कि इरफान हबीब उनसे भाषण
में मौलाना अब्दुल कलाम आजाद को संदर्भित करने के ‘अधिकार’ पर सवाल
उठाते हुए नसे ‘गोडसे’ का जिक्र करने को कह रहे थे । राज्यपाल ने कहा है
कि वह तो केवल पिछले वक्ताओं के द्वारा उठाए गए बिन्दुओं पर अपनी राय दे
कर संविधान की रक्षा करने के अपने दायित्व का निर्वाह कर रहे थे ।
ध्यात्व्य है कि आरिफ मोहम्मद खान यदि राज्यपाल जैसे सांवैधानिक पद पर
आसीन न भी होते तो किसी मसले पर अपना विचार व्यक्त करने के बावत भाषण
करने और उस भाषण में किसी भी मौलाना आजाद या जवाहरलाल जैसे किसी भी
ऐतिहासिक पुरुष के अभिकथन को उल्लेखित करना तो उनका भी मौलिक अधिकार है ।
कोई व्यक्ति चाहे वह इतिहासकार या साहित्यकार ही क्यों न हो किसी को किसी
मसले पर अपनी राय व्यक्त करने या किसी को किसी के सवालों का जवाब देने
अथवा इस हेतु किसी ऐतिहासिक पुरुष का संदर्भ देने से आखिर क्यों और कैसे
रोक सकता है ? किन्तु अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर कुछ भी बोलते रहने
की पैरोकारी करते रहने वाला यह इरफान हबीब जब एक राज्यपाल जैसे
सांवैधानिक प्रमुख को बोलने से रोकते हुए कुछ भी कर बैठने की हिमाकत करते
हुए मंच पर चढ जाता है तो इसे आप क्या कहेंगे ? जहिर है- यही कि बोलने की
आजादी केवल भारत-विरोधियों और वामपंथियों को ही चाहिए ।
मालूम हो कि ‘इण्डियन हिस्ट्री कांग्रेस’ के उक्त कार्यक्रम के
दौरान कार्यक्रम-स्थल से बाहर कतिपय वामपंथी कार्यकर्ताओं का एक समूह
नागरिकता संशोधन अधिनियम’ (सीएए) के विरुद्ध हल्ला बोल रहे थे । राज्यपाल
आरिफ मोहम्मद खान के अनुसार “मंच पर मौजूद एक मलयाली साहित्यकार शाहजहां
मादमपर के विचार भी मुझसे अलग थे । मैंने उनसे कहा कि बाहर जो भी लोग
विरोध और नारेबाजी कर रहे हैं, उन्हें मेरी तरफ से बातचीत का बुलावा
भेजिए । तब वह बाहर गए और लौटकर बताए कि प्रदर्शनकारी बात करने नहीं
बल्कि प्रदर्शन करने आए हैं” । राज्यापाल खान ने जो ट्विट किया है उसके
अनुसार उस दौरान उन्होंने (राज्यपाल ने) कहा कि जब आप बातचीत का दरवाजा
बंद कर देते हैं तो हिंसा व नफरत का माहौल शुरू हो जाता है । जैसे ही
मैंने यह कहा, इरफान हबीब उठे और मेरी तरफ बढ़ आये । एडीसी ने उन्हें
रोका तब वे सोफा के पीछे से मेरी तरफ चले आए , जहां उन्हें
सुरक्षाकर्मियों ने फिर से रोका दिया । राज्यपाल ने भिन्न विचारधारा के
प्रति इतिहासकर इरफान हबीब के इस व्यवहार को ‘असहिष्णुतापूर्ण’ और
‘अलोकतांत्रिक’ करार दिया है । मोदी-भाजपा-सरकार पर देश में असहिष्णुता
बढाने और बोलने की आजादी पर पाबंदी का आरोप लगाते हुए पद्मभूषण व
पद्मश्री जैसे सरकारी स्म्मान लौटाने का प्रहसन करते रहने वाले गिरोह से
सम्बद्ध इतिहासकार हबीब द्वारा मंच पर किये गए इस हंगामे से नाराज
राज्यपाल ने ठीक ही तो कहा है कि “मैं अपने भाषण में किसको उल्लेखित करूं
और किसको नहीं, यह मैं तय करूंगा । मौलाना आजाद किसी की निजी जायदाद नहीं
हैं । यहां हल्ला मचा रहे लोग मुझे धमकी देकर चुप नहीं करा सकते हैं ।
मेरी बातों को भी आपको शांति से सुनना पड़ेगा ।” असल में वामपंथी
बुद्धिबाजों की सबसे बडी दिक्कत यही है । वे चाहते हैं- केवल हमें ही कुछ
भी बोलने की आजादी चाहिए ; दूसरों को नहीं और दूसरे लोग केवल हमारी
सुनें. हम किसी की नहीं सुनेंगे । यही है अभिव्यक्ति की वामपंथी आजादी ।
तभी तो इस निन्दनीय घटना के बाद मार्क्सवादी कम्युनिष्ट पार्टी की केरल
इकाई के
सचिव कोडियेरी बालकृष्णन ने अपनी पार्टी की ओर से अत्यन्त
निर्लज्जतापूर्वक यह बयान भी जारी कर दिया कि “सभी नागरिकों को राजनीतिक
क्रियाकलापों में शामिल होने का हक है । अगर राज्यपाल अपने पद के
संवैधानिक दायरों को नहीं पहचान रहे हैं तो उन्हें इस्तीफा देकर पूरी तरह
से राजनीति में सक्रिय हो जाना चाहिए” । अब इस बालकृष्णन को क्या इतना भी
मालूम नहीं है कि किसी भी राज्यपाल ही वहां का प्रथम नागरिक होता है और
राज्यपाल को भी राजनीति पर बोलने का उतना ही हक है. जितना किसी सामान्य
नागरिक को है । राज्यपाल खान किसी दल विशेष के किसी राजनीतिक कार्यक्रम
में अथवा किसी दल विशेष के बारे में कुछ नहीं बोल रहे थे । राज्यपाल ने
इतिहासकार इरफान पर अपने एडीसी और सिक्यॉरिटी ऑफिसर को धक्का देने का भी
आरोप लगाया है । उन्होंने साफ-साफ कहा है कि “इरफान हबीब ने नागरिकता
संशोधन कानून को लेकर कुछ मुद्दे उठाए थे । लेकिन जब मैंने उन मुद्दों पर
अपनी बात रखनी चाही तो वे अपनी सीट से उठ खड़े हो मेरी लपक आये और
शारीरिक तौर पर मुझे रोकने की कोशिश करने लगे । यह उस घटनाक्रम की विडियो
में भी पूरी तरह से स्पष्ट है ।”
मालूम हो कि इरफान हबीब अलिगढ मुस्लिम युनिवर्सिटी में
प्राध्यापक हैं और देश भर के वामपंथियों की ओर से इतिहासकार होने का दावा
करते हैं । और यह तो जगजाहिर है कि नेहरू-कांग्रेस द्वारा भारतीय
राष्ट्रवाद के विरूद्ध ब्रिटिश साम्राज्यवादी औपनिवेशिक एजेण्डे को लागू
करने के लिए वामपंथी जमात का उसी तरह से इस्तेमाल किया जाता रहा है, जिस
तरह से ब्रिटिश हुक्मरानों द्वारा कांग्रेस का इस्तेमाल किया जाता रहा
था । कांग्रेस के सत्ता में बने रहने पर उस सत्ता की रोटी से भरण-पोषण
हासिल करते हुए भारत-विरोधी आसमानी-सुल्तानी तीर चलाते रहने वाले वामपंथी
वुद्धिबाजों द्वारा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और
धर्मनिरपेक्षता-साम्प्रदायिकता आदि राष्ट्रीय मुद्दों-मसलों को ‘चोर-चोर
मौसेरे भाइयों’ के लाभ-हानि की दृष्टि से परिभाषित किया जाता रहा है ।
किन्तु , सहिष्णुता व असहिष्णुता बढने-घटने की माप-तौल से भाजपा-मोदी
सरकार की छवि बनाने-बिगाडने के बावत पुरस्कार-सम्मान वापसी का प्रहसन
करते रहने वाले इन ‘बुद्धि-बहादुरों’ को सत्ता की मलाई मिलनी बन्द हो गई
तब अब ये ऐसे बौखला गए हैं कि बलपूर्वक भी किसी का मुंह बन्द कफ्रने पर उतारु देखे जा रहे हैं ।