ठिठके हुए कानून को हाथ में ले कर दौडाने की त्रासदी


तेलंगाना प्रदेश में दुष्कर्म के आरोपी अपराधियों को पुलिसकर्मियों
द्वारा एक तथाकथित मुठभेड के दौरान गोलियों से भून कर मौत की निन्द सुला
देने के मामले पर देश भर में जो बौद्धिक बहस-विमर्श छिडा हुआ है और आम
जनता के बीच में जो तरह-तरह की प्रतिक्रियायें हो रही हैं सो निरर्थक
नहीं हैं । इनके कई अर्थ हैं । एक तो यह कि जिस प्रकार बहुत वर्षों से
ठहरा हुआ पानी लम्बे समय के बाद जहरीला हो जाता है उसी प्रकार से कोई
अच्छा से अच्छा कानून भी अगर क्रियान्वित ही न हो तो वर्षों-वर्षों तक
अदालत की चौखट के भीतर ठिठका रहे तो उस कानून की उपयोगिता भी व्यर्थ हो
जाती है । फिर तो उस ठहराव-बंध को काट कर ठहरे हुए पानी को प्रवाहित कर
देना और वैसे ठहराव की पुनरावृति ही न होने देना अपरिहार्य हो जाता है ।
तेलंगाना मुठभेड मामले के समर्थन में जनता की जुबान से निकल कर आ रही
बातों का जायका उसी ठहरे हुए पानी और ठिठके हुए कानून की त्रासदी से
निर्मित हुआ प्रतीत होता है । कहने को तो दुष्कर्मियों के लिए फांसी की
सजा का भी कानून है । किन्तु वह अदालत की चौखट के भीतर ही शोभायमान है ।
दिसम्बर २०१२ में हुए निर्भया-काण्ड के दुष्कर्मी आरोपियों को अदालत ने
फांसी की सजा मुकर्रर तो कर दिया है किन्तु उसका क्रियान्वयन आज तक नहीं
हो सका है । कारण बताया जा रहा है कि आरोपियों में से एक ने सजा माफ
कराने के लिए देश के राष्ट्रपति के पास दया-याचिका भेज रखी है और महामहिम
राष्ट्रपति के पास इतनी फुर्सत नहीं है कि उस याचिका पर अपना फैसला दे
सकें जबकि हमारे देश के कानून में ऐसा प्रावधान है कि एक ही मामले के
अनेक अभियुक्तों में से किसी एक अभियुक्त की भी दया-याचिका लम्बित रहने
पर शेष अभियुक्तों को भी तब तक फांसी नहीं दी जा सकती जब तक उस याचिका का
निबटारा न हो जाए । ऐसे में सवाल यह है कि जिन शेष अभियुक्तों को किसी
तरह की ‘दया’ चाहिए ही नहीं अर्थात जिन्हें फांसी की सजा स्वीकार है उनकी
सजा को भी टाले रखने का कानूनी प्रावधान आखिर क्यों है और फिर महामहिम
राष्ट्रपति महोदय ऐसे मामलों का निष्पादन करने में वर्षों का समय आखिर
क्यों लगाते हैं । कायदे से होना तो यह चाहिए कि दुष्कर्मियों को दया
मांगने और उन्हें दया प्रदान करने का विकल्प ही नहीं रहना चाहिए । मालूम
हो कि निर्भया कांड के बाद ०३ फरवरी २०१३ को केन्द्र सरकार ने आपराधिक
कानून संशोधन अध्यादेश जारी किया था , जिसके तहत भारतीय दण्ड विधान
संहिता की धारा १८१ और १८२ में बदलाव किए कर बलात्काार से जुड़े कानूनों
को कड़ा किया गया । बलात्कारियों को फांसी की सजा का भी प्रावधान किया
गया । फिर २२ दिसंबर २०१५ को राज्यसभा में ‘किशोर न्याय विधेय्क पारित कर
ऐसा प्रावधान किया गया कि १६ साल या उससे अधिक उम्र के किशोर को जघन्य
अपराध करने पर एक वयस्क मानकर मुकदमा चलाया जाएगा । बलात्काअर एवं
बलात्कायर से हुई मृत्यु, तथा सामूहिक बलात्कार और एसिड-हमला जैसे
महिलाओं के साथ होने वाले अपराध ‘जघन्य अपराध’ की श्रेणी में लाए गए ।
पूरे देश को झकझोर देने वाले ‘निर्भया-काण्ड’ के बाद केंद्र-सरकार ने
दुष्कर्म-मामलों के शीघ्र निष्पादन हेतु लगभग ४०० करोड़ की लागत से देश
भर में १७०० से भी अधिक त्वरित अदालतों का गठन कर रखी है । देश के लगभग
हर ज़िले में औसतन पांच ऐसी अदालतों का गठन किया जा चुका है । लेकिन तब
भी ‘नेशनल क्राइम रिसर्च ब्यूरो’ की रिपोर्ट के अनुसार देश भर के उच्च
न्यायालयों में दुष्कर्म के ३१ हज़ार से भी ज्यादा मामले यों ही लम्बित
पडे हुए हैं । जबकि देश की निचली अदालतों में ९५ हज़ार से ज्यादा
महिलाओं को न्याय का इंतज़ार है।
त्वरित अदालतों में किसी भी ऐसे मुकदमें का निष्पादन छह महीने से
एक साल के भीतर कर देने का प्रावधान है । लेकिन यह प्रावधान क्रियान्वित
नहीं हो पा रहा है । इसका सबसे बडा करण यह है कि इन अदालतों में ऐसे
मामलों के निष्पादन हेतु अलग से न्यायाधीश नियुक्त नहीं किये जा सके हैं
। सामान्य अदालतों के न्यायाधीशों को ही त्वरित अदालत का भी अतिरिक्त
प्रभार दे दिया गया है । दुष्कर्म जैसे जघन्य मामलों के लंबित होने का एक
अहम कारण अधीनस्थ अदालतों में न्यायाधीशों की कमी है । एक रिपोर्ट के
अनुसार, उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों के ५००० से भी अधिक पद रिक्त
पड़े हैं । झारखण्ड, बिहार एवं उत्तर प्रदेश व गुजरात की जिला अदालतों
में न्यायाधीशों की भारी कमी वर्षों से दर्ज की जाती रही है । सर्वोच्च
न्यायालय में भी अभी हाल तक बाल दुष्कर्म के भी १५०३३२ मामले लंबित थे
और इस प्रकार के मामलों के निपटान की वार्षिक दर महज नौ फीसदी ही रही है
। पोक्सो कानून (प्रोटेक्शन ऑफ चिल्ड्रेन फ्रॉम सेक्सुअल ऑफेंस ऐक्ट) को
लागू हुए सात साल बीत जाने के बाद भी अभी देश में डाटा प्रबंधन प्रणाली
या एमआईएस (प्रबंधन सूचना प्रणाली) दुरुस्त करना ही बाकी है ।
समस्या की गंभीरता के बावजूद केंद्र और राज्यों सरकारों ने बाल
दुष्कर्म सम्बन्धी मामलों के सुनियोजित निष्पादन की व्यवस्था नहीं बनाई
है जबकि न्यायाधीशों के पास अन्य मामलों का भी बोझ पडा हुआ है । ऐसी
स्थिति में पृथक ‘पोक्सो अदालत’ और तत्सम्बन्धी अतिरिक्त न्यायाधीशों की
भी आवश्यकता है । यह तथ्य तो सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व प्रधान
न्यायाधीश रंजन गोगोई ही स्वीकार कर चुके हैं कि “देश में आपराधिक मामले
न्यायाधीशों की क्षमता से बहुत अधिक हैं ।”
रांची उच्च न्यायालय के एक अधिवक्ता बताते हैं कि ‘फास्ट ट्रैक
कोर्ट’ में बलात्कार के मामलों का कितने समय में निपटारा हो, इसका
निर्धारण अदालतों से कहीं ज्यादा आरोपियों व गवाहों की संख्या पर निर्भर
करता है । अगर, आरोपी एक से अधिक हैं तो उनके वकील भी अधिक होंगे और
कानून हर वकील को अलग से बचावी दलीलें प्रस्तुत करने का अधिकार देता है ।
फिर किसी निर्दोष को सजा न मिल जाए इस कारण गवाहों और सबूतों को जुटाने
में भी काफी समय व्यतीत हो जाता है । यहां तक तो बात समझ में आती है ।
लेकिन दुष्कर्मियों को भीड के हवाले कर देने अथवा उन्हें बिना किसी
वकील-दलील के ही सीधे-सीधे गोली मार देने अथवा पुलिसिया-मुठभेड का समर्थन
कर देने वाले सामान्य नागरिकों को यह बात समझ में नहीं आती कि ऐसे जिन
मामलों में अपराधियों द्वारा ही अपने अपराध स्वीकार कर लिए जाते हैं उनके
अपराध को प्रमाणित करने अथवा उन्हें दोषी-अपराधी मान लेने और तदनुसार सजा
देने में भी न्यायालय द्वारा आखिर अप्रत्याशित विलम्ब क्यों किया जाता
रहा है ? अपराधी ने जब स्वयं अपना अपराध स्वीकार कर लिया तब सक्षम
न्यायाधीश के समक्ष उसका स्वीकारोक्ति-बयान दर्ज करा लेने मात्र के
उपरांत ही तत्क्षण उसे सकी सजा क्यों नहीं मुकर्रर कर दी जाती है ?
अपराधी ने जब अपना अपराध स्वीकार कर ही लिया तब उसे उसकी न्यायोचित सजा
से बच निकलने के बावत अवसर व तत्सम्बन्धी सुविधायें प्रदान करने में समय
गंवाना व्यवस्था के प्रति असंतोष का सबसे बडा कारण है । दरअसल हमारे देश
की वर्तमान ‘दण्ड संहिता’ (आईपीसी) ही दोषियों-अपराधियों को दण्डित करने
के बजाय उन्हें स्वयं को निर्दोष प्रमाणित करने अथवा सजा से बचने की
सुविधायें प्रदान करने के अवांचित आदर्शवाद पर कायम है । यही सबसे बडी
त्रासदी है । इसी कारण दुष्कर्मियों को मिलने वाली वांछित सजा टलते रहती
है और इसी कारण न्यायिक व्यवस्था के प्रति आम जन का विश्वास नकारात्मक
होता जा रहा है । जघन्य अपराधों की कठोर सजा का कानून तो है किन्तु वह
क्रियान्वित होने के बाजाय अदालतों की देहरी के भीतर ठिठका हुआ है । फलतः
इधर समाज में जहर फैलता जा रहा है । देश के नीति-नियन्ताओं को जहरीले
मच्छरों-डेंगुओं के प्रकोप से बचाव के लिए ठहरे हुए पानी को प्रवाहित
करने और दुष्कर्मियों-अपराधियों के आतंक-दुष्कर्म से जनता को निजात
दिलाने के लिए ठिठके हुए कानून को क्रियान्वित करने की व्यवस्थायें कायम
करनी होंगी अन्यथा ऐसे कानून को हाथ में ले कर उसे दौडाने के लिए एक न एक
दिन जनता ही दौड पडेगी ।
• दिसम्बर’ २०१९