चारो वेदों को हथियाने के लिए ‘पंचम वेद’ का ईजाद
“ पृथ्वी पर सबसे श्रेष्ठ हम हैं और दुनिया की सारी अच्छी चीजें,
ज्ञान-विज्ञान व प्राचीन गौरवशाली विरासतें हमारी हैं ।” हीनता के भाव से
ग्रसित पश्चिमी विद्वत-समुदाय व ईसाई-समाज का ऐसा दावा करना उनकी मानसिक
आवश्यकता प्रतीत होती है, किन्तु इस दावे की पुष्टि के लिए तरह-तरह के
षड्यंत्र रचना उनकी बौद्धिक धुर्तता को भी दर्शाती है । पृथ्वी के समस्त
मनुष्यों को नस्ल-विज्ञान के आधार पर विभाजित करते हुए ‘श्वेत चमडी’
वालों को सर्वश्रेष्ठ घोषित कर शेष दुनिया के देशो पर उनके साम्राज्यवादी
औपनिवेशिक शासन का औचित्य सिद्ध कर देने के साथ भाषा-विज्ञान के आधार पर
दुनिया की सबसे प्राचीन भाषा- संस्कृत को पश्चिम की लैटिन व ग्रीक भाषा
से निकली हुई भाषा घोषित कर तदनुसार अनुवाद के सहारे
संस्कृत-शास्त्रों-ग्रन्थों को ईसाइयत की शिक्षाओं से युक्त प्रतिपादित
कर इनके अपहरण का बौद्धिक षड्यंत्र पिछले कई शताब्दियों से चलता आ रहा है
। इस बावत विलियम जोन्स से लेकर मैक्समूलर तक और थामस मैकाले से लेकर
हर्बर्ट होप रिस्ली तक विभिन्न पश्चिमी विद्वानों के नेतृत्व में
चर्च-मिशनरियों द्वारा कायम अनेकानेक छ्द्मवेशी बौद्धिक-शैक्षणिक
संस्थायें आज भी बडी सिद्दत से सक्रिय हैं ।
अपने छद्म उद्देश्यों की पूर्ति के लिए पश्चिमी विद्वानों द्वारा
वेदों-पुराणों-उपनिषदों के विभिन्न यूरोपीय भाषाओं में न केवल तदनुसार
अनुवाद और प्रायोजित व्याख्या-विश्लेषण किये गए , बल्कि भारतीय
शास्त्रों-ग्रन्थों की सामग्रियों में परिवर्तन-प्रक्षेपण भी किये जाते
रहे । इतना ही नहीं, भारतीय विद्वत समाज में उनके उपरोक्त कार्यों के
प्रति व्याप्त उदासीनता से प्रोत्साहित होकर उन षड्यंत्रकारियों ने
साम्राज्यवादी उपनिवेशवाद एवं अपने स्व-घोषित श्रेठतावाद और तत्सम्बन्धी
ईसाई-तत्वज्ञान को संस्कृत-शास्त्रों-ग्रन्थों के हवाले से प्रामाणिक
सिद्ध करने के लिए फर्जी लेखन का भी सहारा लिया । इस हेतु
वेदशास्त्रों-ग्रन्थों में तत्सम्बन्धी सामग्रियां प्रक्षेपित कर उसे
प्रचारित करने में सफल हो जाने के बाद उननें वेदों के माध्यम से ईसाइयत
फैलाने के लिए अथवा वेदों को पश्चिमी वाङ्ग्मय का हिस्सा प्रमाणित करने
के लिए , अर्थात उन्हें पूरी तरह से हडप लेने के बावत फर्जी ‘पंचम वेद’
ही रच डाला ; ताकि जनमानस यह समझे कि वेद चार ही नहीं , पांच हैं और
पांचवां वेद पश्चिम में है, जहां से सारे वेद उद्भूत हुए हैं । इस ‘पंचम
वेद’ का नाम भी उन लोगों ने बहुत सोच समझ कर ऐसा रखा है कि वास्तविक
चारों वेदों के नाम से मिलता-जुलता और सहज विश्वसनीय हो , अर्थात ‘इजूर
वेदम’ ( Ezour veidam ) , ताकि सनातनधर्मीं लोग इसे चार में से ही एक
यजुर्वेद अथवा कम से कम उसका भाष्य तो समझ ही लें ।
भारत के विरुद्ध पश्चिम के बौद्धिक षड्यंत्र नामक मेरी एक पुस्तक
में इस फर्जी वेद-लेखन का खुलासा हुआ है । मैसाचुसेट्स विश्वविद्यालय
(अमेरिका) से सम्बद्ध एक भारतीय अन्वेषण्कर्ता राजीव मलहोत्रा के अनुसार
राबर्ट डी नोबिली एक शरारती ईसाई मिशनरी था, जिसने ब्राह्मण का वेष धारण
कर यह दावा करते हुए एक धोखाधडी की कि उसे एक पुराने ग्रन्थ (वेद) की
पाण्डुलिपि मिली है, जो पूरी भारतीय परम्परा को ईसाइयत के ही एक भ्रष्ट
उप-धर्म के रूप में दिखाती है । इसे उसने पंचम वेद कहा, जबकि यूरोपीय
भारतविदों ने इसे ‘ईसा वेद’ के रूप में प्रचारित किया ।” बकौल राजीव
मलहोत्रा, विख्यात फ्रांसिसी विद्वान वाल्टेयर ने नोबिली के इस कथित पंचम
वेद की प्रशंसा करते हुए लिखा है- “ यह पाण्डुलिपि निस्संदेह उस काल की
है, जब योगियों का प्राचीन धर्म (अर्थात, सनातन धर्म) विकृत होना
प्रारम्भ हो गया था । हमारे अपने पवित्र ग्रन्थों को छोड कर यह एक ही
ईश्वर में विश्वास रखने वाला सर्वाधिक सम्माननीय स्मारक है । इसे ‘इजूर
वेदम’ कहा जाता है , मानों कोई इसे ‘सत्य वेदम’,‘वेदम भाष्य’ अथवा ‘शुद्ध
वेदम’ जैसे नामों से पुकारे ।”
मजे की बात यह है कि जिस फ्रांस का एक विख्यात विद्वान इस कथित वेद
की ऐसी प्रशंसा करता है , उसी देश के एक दूसरे अनुसंधानकर्ता विद्वान-
प्रियरे सोन्नराट ने सन १७८२ में इस ‘इजूरवेद’ की एक प्रति के साथ भारत
आकर इसके फर्जी होने का भण्डाफोड भी कर दिया । यहां आकर उन्होंने पहले
संस्कृत-शिक्षा ग्रहण कर चारो वेदों को ठीक से समझा और तब इस तथाकथित
‘पांचवें वेद’ का विश्लेषण करते हुए अपना निष्कर्ष घोषित किया कि यह
फर्जी है और वैदिक-आध्यात्मिक तत्वों को ईसाई शास्त्र के साथ मिलाने के
लिए षड्यंत्रपूर्वक रचा गया है । उन्होंने भारत की अपनी यात्रा के
विवरण में लिखा है- “ हमें सतर्क रहना चाहिए कि हम भारतीयों के धार्मिक
ग्रन्थ में ‘इजूरवेद’ को शामिल न करें , जिसका रायल लाईब्रेरी में एक
तथाकथित अनुवाद भी है, जिसे सन १७७८ में प्रकाशित किया गया था । यह
निश्चित रूप से चार वेदों में से कोई एक नहीं है, नाम मात्र का भी नहीं
है । यह विवादों की पुस्तक है , जिसे मुसलीपट्टम में एक मिशनरी द्वारा
लिखा गया है । इसमें विष्णु को समर्पित पुराणों में से अनेक का खण्डन है,
जो वेदों से अनेक शताब्दी बाद के हैं । लेखक सब कुछ को ईसाइयत में बदलने
का प्रयास करता दिखाई देता है । उसने जानबूझ कर कुछ त्रुटियों का भी
समावेश किया है, ताकि कोई ब्राह्मण के वेष में छिपे मिशनरी को पहचानने
में सफल न हो सके ।”
वेदों को ईसाई ग्रन्थ में तब्दील कर देने , अर्थात उन्हें हडप लेने
के इस षड्यंत्र का भण्डाफोड हो जाने के कारण पूरी परियोजना के असफल हो
जाने के बावजूद मैक्समूलर जैसे कुछ छद्मवेषी भाषाविदों ने डी नोबिली को
इस बौद्धिक धोखाधडी से दोष-मुक्त करने अथवा उसके इस अपराध को कम कर के
आंकने का भरपूर प्रयास किया; यह प्रचारित करते हुए कि “ वह पूरा प्रकरण
नोबिली के कुछ भारतीय नौकरों का कमाल था ।” गौरतलब है कि भारतीय
बुद्धिजीवियों के बीच आज तक श्रद्धा का पात्र बना हुआ मैक्समूलर भी कम
षड्यंत्रकारी नहीं था, जिसने डी० नोबिली की इस काली करतूत के लिए उसकी
प्रशंसा की है । इस षड्यंत्र का पर्दाफास हो जाने के लगभग एक सौ साल बाद
सन १८६१ ई० में मैक्समूलर ने नोबिली की प्रशंसा करते हुए लिखा है- “
…….यह विचार कि वे, जैसा कि उन्होंने कहा है, एक नये अथवा पांचवें वेद की
शिक्षा देने आये हैं, जो खो गया था, प्रदर्शित करता है कि वे जिस
धर्मशास्त्रीय प्रणाली पर विजय प्राप्त करने आये थे, उसके सबल और निर्बल
पक्षों को वे कितनी अच्छी तरह से जानते थे ।” स्पष्ट है कि भाषाविद होने
के बावजूद मैक्समूलर को भी श्रद्धेय कतई नहीं माना जा सकता, क्योंकि उसकी
भाषिक विद्वता षड्यंत्रकारी थी । बावजूद इसके , आज भी अंग्रेजीदां भारतीय
बुद्धिजीवी वैदिक शास्त्रों-ग्रन्थों की विवेचना के क्रम में उसे
संदर्भित कर के ही अपनी विद्वता प्रमाणित करते हैं ।
वेदों को ईसाइयत में तब्दील कर उन्हें हडप लेने के बावत एक औजार के
तौर पर ईजाद किये गए ‘पंचम वेद’ की पोल खुल जाने के बावजूद उसके प्रचार
और तत्सम्बन्धी अन्य हथकण्डों के इस्तेमाल का प्रभाव आज भी इतना है कि
तमिलनाडू के तीन दक्षिणी जिलों- तिरूनेलवेली, टुटीकोरिन एवं कन्याकुमारी
में सामान्य सनातनधर्मी भी ईसाइयत को इंगित करने के लिए ‘वेदिक धर्म’
शब्द का इस्तेमाल करते हैं , जबकि चर्च को ‘वेदा कोइल’ (वैदिक मंदिर) और
बाइबिल को ‘वेदा-पुथकम’ ( वैदिक पुस्तक ) कहते हैं । यह वेदों के अपहरण
की कोशिश का ही परिणाम है कि वहां चर्च की सभाओं को ‘वेदगामा शिक्षा
गोष्ठी’ और चर्च के धार्मिक स्कूलों को ‘वेदगामा स्कूल’ कहा जाने लगा है
। किसी भी धर्म अथवा सम्प्रदाय-पंथ के विचारों का प्रचार करने की स्वतंत्रता प्रदान करने वाले भारत में विदेशी धर्म-प्रचारकों द्वारा इस देश की सांस्कृतिक विरासत, भाषा और शास्त्र से इस कदर छेड-छाड करना नैतिक रूप से निन्दनीय तो है ही , कानूनी रूप से यह दण्डनीय भी कैसे हो, यह विचारनीय है ।
* अक्तुबर; २०१९
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