सिन्धु-सभ्यता की लिपि को नहीं पढा जाना एक बडी साजिश


जेनेटिक साइंस (गुणसूत्र-विज्ञान) के विविध अनुसंधानों से अब जब यह
सिद्ध हो चुका है कि सिन्धु-घाटी-सभ्यता वास्तव में वैदिक आर्यों की ही
एक पुरानी सभ्यता थी और भारत-भूमि ही आर्यों की उद्गम-भूमि रही है , तब
उसके अवशेषों में उपलब्ध लिखित-सामग्रियों की लिपि को अब तक नहीं पढा
जाना एक गहरे साजिश का परिणाम प्रतीत हो रहा है । इजिप्ट, चीनी,
फोनेशियाई, आर्मेनिक, तथा सुमेरियाई और मेसोपोटामियाई सभ्यताओं की
लिपियां जब पढ ली गई हैं, तब सिन्धु-सभ्यता के अवशेषों को आखिर क्यों
नहीं पढा जा सका है अब तक । जबकि , जेनेटिक साइंस एवं कम्प्युटर
टेक्नोलॉजी से प्राचीन लिपियों का पढा जाना पहले की तुलना में अब ज्यादा
आसान हो गया है और भारत के इतिहास को सही दिशा में सुव्यवस्थित करने के
निमित्त इसका पढा जाना आवश्यक भी है । पहले इस सभ्यता का विस्तार पंजाब,
सिंध, गुजरात व , राजस्थान तक बताया जाता था, किन्तु नवीन वैज्ञानिक
विश्लेषणों के आधार पर अब इसका विस्तार तमिलनाडु से वैशाली बिहार तक
समूचा भारत, पूरा पाकिस्तान-अफगानिस्तान तथा ईरान तक बताया जा रहा है ।
वहीं काल-क्रम भी अब ७००० वर्ष ईसापूर्व तक आंका जाने लगा है । इतनी
विस्तृत व इतनी महति सभ्यता के लिखित अवशेषों को अब तक नहीं पढा जाना और
बिना पढे ही उसके बारे में भ्रम पैदा करने वाली अटकलें लगाते रहना स्वयं
की जडों पर स्वयं ही कुल्हाडी मारने के समान है ।
पश्चिम के एक प्रसिद्ध इतिहासकार अर्नाल्ड जे टायनबी ने ठीक ही
कहा है कि – विश्व में अगर किसी देश के इतिहास के साथ सर्वाधिक छेड़-छाड़
किया गया है, तो वह भारत का इतिहास है । दरअसल हुआ यह कि ऐतिहासिक
विरासतों-अवशेषों का संरक्षण-विश्लेषण करने वाली हमारी जो संस्था है-
भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद , सो आरम्भ से ही उस अंग्रेजी शासन के
कब्जे में रही है, जो ईसाइयत को श्रेष्ठत्तम व प्राचीनत्तम सिद्ध करने और
भारतीय सभ्यता-संस्कृति-इतिहास-विरासत को अपने औपनिवेशिक हितों की दृष्टि
से पहचान देने की नीति के तहत काम करता रहा । अपनी इसी नीति के तहत
अंग्रेजी औपनिवेशिक इतिहासकारों ने यह कहानी गढ रखी है कि आर्य लोग भारत
के मूल निवासी नहीं , बल्कि बाहर के आक्रमण्कारी थे और उनके आक्रमण से ही
सिन्धु-घाटी-सभ्यता नष्ट हो गई । अंग्रेजी शासन की समाप्ति के बाद से ले
कर आज तक भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद पर उन्हीं के झण्डाबरदार
वामपंथियों का कब्जा रहा है,जो उनकी छद्म योजनाओं को आकार देते रहे । इसी
कारण इस प्राचीन सभ्यता के अवशेषों में उपलब्ध बर्तनों, पत्थरों,
पट्टियों आदि पर विद्यमान लिखावटों को आज तक नहीं पढा गया, पढने की दिशा
में कोई कोशिश ही नहीं की गई । बहाना यह बनाया व बताया जाता रहा कि उन
लिखावटों के लिपि को पढना सम्भव ही नहीं है । जबकि सच यह है कि किसी भी
प्राचीन लिपि के अक्षरों की आवृति का विश्लेषण करने की ‘मार्कोव विधि’ से
उसका पढना अब सरल हो गया है ।
दरअसल भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद पर कब्जा जमाये वामपंथी
इतिहासकार दूसरे कारणों से इस लिपि की पठनीयता को अपठनीय बताते रहे हैं ।
सबसे बडा कारण यह है कि इसे पढ लिये जाने से उनकी झुठी ऐतिहासिक
स्थापनायें ध्वस्त हो जाएंगी । मसलन यह कि तब सिन्धु-सभ्यता की
प्राचीनता मिस्र (इजिप्ट), चीन, रोम, ग्रीस, मेसोपोटामिया, सुमेर की
सभ्यता से भी अधिक पुरानी सिद्ध हो जाएगी । उन्हें यह भय है कि
सिन्धु-सभ्यता की लिपि को पढ लिए जाने से वह वैदिक सभ्यता साबित हो ही
जाएगी, तो इससे आर्य-द्रविड संघर्ष की उनकी गढी हुई कहानी तात-तार हो
जाएगी । ईसाई-विस्तारवादी औपनिवेशिक अंग्रेजों की यह जो आधारहीन स्थापना
है कि आर्य लोग अभारतीय बाहरी आक्रमणकारी हैं और इनने भारत के मूल
निवासियों अर्थात सिन्धु घाटी के लोगों को मार भगा कर दक्षिण में खदेड
दिया, जहां वे आदिवासी के तौर पर जंगलों में छुप कर रहने लगे और वे लोग
‘द्रविड’ हैं , सो गलत साबित हो जाएगा । यही कारण है कि औपनिवेशिक
वामपंथी इतिहासकारों के गिरोह में से कुछ लोग सिन्धु घाटी सभ्यता की लिपि
को सुमेरियन भाषा से जोड़ कर पढने का प्रयास करते रहे तो कुछ लोग इसे चीनी
भाषा के नजदीक ले जाते हैं । उन्हीं इतिहासकारों में से, कुछ इसे मुंडा
आदिवासियों की भाषा, बताते हैं, तो कुछ इसे ईस्टर द्वीप के आदिवासियों की
भाषा से जोड़ कर पढने की वकालत करते हैं । जबकि सच यह है कि
सिन्धु-घाटी-सभ्यता की लिपि ‘ब्राम्ही’ लिपि से मिलती-जुलती हुई है. जिसे
पूर्व-ब्राम्ही’ लिपि कहा जा सकता है, जिसमें लगभग ४०० प्रकार के
अक्षर-चिन्ह हैं और ३९ अक्षर हैं । ठीक वैसे ही जैसे रोमन में २६ और
देवनागरी में ५२ प्रकार के अक्षर हैं ।
मालूम हो कि ब्राम्ही लिपि भारत की प्राचीनतम लिपियों में से
एक है, जो वैदिक काल से ले कर गुप्त काल तल प्रचलन में रही । इसी लिपि
से पाली, प्राकृत व संस्कृत की कई लिपियों का निर्माण हुआ है । सम्राट
अशोक ने गौतम बुद्ध के ‘धम्म’ का प्रचार-प्रसार इसी लिपि में कराया था ।
उसके सारे शिला-लेख इसी लिपि में हैं । सिन्धु-घाटी-सभ्यता के लेखों की
लिपि और ब्राम्ही लिपि में अनेक समानतायें पाई गई हैं । ब्राम्ही की तरह
वह लिपि भी बाएं से दाएं लिखी पायी गई है , जिसमें स्वर-व्यंजन एवं उनके
मात्रा-चिन्हों सहित लगभग ४०० अक्षर-चिन्ह हैं । पुरातात्विक सूत्रों से
मिली जानकारी के अनुसार सिन्धु-घाटी-सभ्यता के अवशेषों में से लगभग ३०००
लेख प्राप्त हुए हैं , जिन्हें पढने की आधी-अधुरी कोशिश हुई भी है तो
अभारतीय लिपियों के आधार पर हुई है । ब्राम्ही लिपि के आधार पर इसे पढने
की कोशिश करने वाले इतिहासकारों के अनुसार इसके ४०० अक्षर-चिन्हों में ३९
अक्षरों का व्यवहार सर्वाधिक ८०% बार हुआ है । ब्राम्ही लिपि के आधार पर
इसे पढने से संस्कृत के ऐसे अनेक शब्द बनते हैं, जो उन अवशेषों के
संदर्भों से मेल खाते हैं । जैसे- श्री, अगस्त्य, मृग, हस्त, वरुण,
क्षमा, कामदेव, महादेव, मूषक, महादेव, अग्नि, गृह, यज्ञ, इंद्र, मित्र,
कामधेनु आदि । बावजूद इसके , उसे पढने की दिशा को भारत से दूर-सुदूर
देशों की लिपि अथवा असंस्कृत भाषाओं की लिपि के तरफ मोडने की चेष्टा होती
रही है । सिन्धु-सभ्यता की लिपि को पढने में एकमात्र कठिनाई यह है कि
उसकी लिखावट की शैली में अनेक प्रकार भिन्नतायें हैं, जिसे सम्यक दृष्टि
से सुलझाया जा सकता है । ब्राम्ही लिपि के आधार पर उस प्राचीन भारतीय
सभ्यता के लेखों को पढने से यह स्पष्ट हो जाएगा कि उस काल की भाषा वही थी
जो वेदों की भाषा है । अर्थात सिन्धु-घाटी-सभ्यता सभ्यता के लोग उस वैदिक
धर्म व वैदिक संस्कृति से ही सम्बद्ध थे , जिससे आज का सनातन हिन्दू समाज
समब्द्ध है । साथ ही, यह भी कि आर्य और द्रविड कोई अलग-अलग परस्पर-विरोधी जातियां नहीं थीं । यह सत्य स्थापित हो जाने से आर्य-द्रविड विभेद का
दरार स्वतः समाप्त हो जाएगा, जिसे ईसाई-विस्तारवादी इतिहासकारों ने
ईसाइयत के विस्तार और भारत राष्ट्र व हिन्दू समाज में विखण्डन की अपनी
कुटिल कूटनीति के तहत कायम किया हुआ है और जिसकी वजह से दक्षिण भारत में भाषिक-सांस्कृति अलगाव पनप रहा है । ऐसे में एक साजिश के तहत
सिन्धु-घाटी-सभ्यता के लेखों को भारतीय दृष्टि से भारतीय लिपि के आधार पर
नहीं पढा जाना एक राष्ट्रीय त्रासदी से कम नहीं है , क्योंकि इसी कारण भारत के इतिहास को वास्तविक स्वरुप नहीं मिल पा रहा है और इसके प्रति तरह-तरह के भ्रम कायम हैं ।
• सितम्बर’ २०१९