भारत पर ‘आर्य-आक्रमण’ का औपनिवेशिक वामपंथी प्रपंच तिरोहित
आर्यों की आदि-भूमि भारत ही पुनः प्रमाणित
भारत के मूल निवासी ‘आर्य’ हैं तथा पृथ्वी पर आर्यों के उद्भव का
मूल-स्थान भारत ही है ; अर्थात आर्य लोग बाहर के किसी दूर-देश की सीमा
लांघ कर भारत नहीं आये , बल्कि भारत से ही दुनिया के अन्य देशों में जा
कर सभ्यता स्थापित-विकसित किये , यह सत्य हडप्पा-सभ्यता से भी पुरानी
‘राखीगढी सभ्यता’ के अवशेषों की अभी हाल ही में हुई शिनाख्त के आधार पर
स्थापित हो चुकी है । इस सत्य के अकाट्य आधार के तथ्यों की पुष्टि
डेक्कन डीम्ड यूनिवर्सिटी पुणे व वीरबल साहनी इंस्टिच्युट, लखनउ एवं
सेंटर फॉर सेल्युलर एंड मोलिक्यूलर बॉयोलॉजी, हैदराबाद के द्वारा अमेरिका
की हार्वर्ड युनिवर्सिटी तथा कोरिया की स्योल नेशनल यूनिवर्सिटी में किये
गए तत्सम्बन्धी डीएनए के परीक्षण-विश्लेषण की रिपोर्टों के माध्यम से
किया गया है । सभ्यताओं के इतिहास-भूगोल की मानक पडताल करने में सर्वाधिक
विश्वसनीय माने जाने वाले विश्व-स्तरीय अमेरिकी व कोरियाई संस्थानों से
आर्य-सभ्यता के निर्माण व आर्यों की पहचान विषयक नवीनतम विश्लेषण आ जाने
के साथ ही इतिहासकारों एवं समाज-विज्ञानियों की तत्सम्बन्धी वे तमाम
स्थापनायें-मान्यतायें ध्वस्त हो गईं, जिनमें यह कहा जाता रहा है कि आर्य
विदेशी मूल के हैं और भारत पर उनने आक्रमण किया हुआ था । ऐसे सुनियोजित
झूठ की स्थापना-विवेचना युरोप-अमेरिका की ईसाई-विस्तारवादी मजहबी
शक्तियों से पालित-पोषित व निर्देशित मैक्स- मूलर व विलियम जोन्स जैसे
भाषाविद, हर्बर्ट होप रिस्ली जैसे नस्ल-विज्ञानी एवं विलियम विलियम हंटर
जैसे इतिहासकार और थॉमस बैबिंग्टन मैकॉले जैसे शिक्षाविदों के द्वारा की
गई जिसे वामपंथी बुद्धिबाजों ने साहित्य व इतिहास को विविध बौद्धिक
जुगालियों के माध्यम से विकृत कर देश भर में फैलाने का काम किया । इतिहास
के इस विकृतिकरण में इन षड्यंत्रकारियों द्वारा मुख्य रुप से चार-पांच
बातें प्रचारित की जाती रही हैं । पहली यह कि भारतीय इतिहास की शुरुआत
सिंधु घाटी की सभ्यता से होती है । दूसरी यह कि उतर भारत व दक्षिण भारत
के लोग क्रमशः आर्य व द्रविड नामक दो परस्पर विरोधी नस्ल के लोग हैं ।
तीसरी यह कि सिंधु घाटी के लोग आर्य नहीं द्रविड़ थे । चौथी यह कि आर्यो
ने बाहर से आकर सिंधु सभ्यता को नष्ट करके अपना राज्य स्थापित किया था ।
और , पांचवी यह कि आर्यों व द्रविडों के बीच परस्पर संघर्ष होते रहे हैं
। आर्य बाहर से आए, लेकिन कहां से आए हैं इस बावत कोई प्रामाणिक पुष्टि
उनके द्वारा नहीं की जा सकी । कोई आर्यों को साइबेरिया से आया हुआ बताता
रहा तो कोई मंगोलिया व ट्रांस कोकेशिया से ।
थॉमस मैकाले की शिक्षा-नीति-पद्धति से ग्रसित भारत के
स्कूलों-कॉलेजों की प्रचलित पाठ्य-पुस्तकों में आर्यों के आगमन सम्बन्धी
इन अटकलों को वामपंथी बुद्धिबाजों ने ‘आर्यन इन्वेजन थ्योरी’ नाम से
प्रक्षेपित कर रखा है । इन किताबों में आर्यों को घुमंतू या कबीलाई
खानाबदोश बताया जाता रहा है, जिनके पास वेद ही नहीं , रथ भी थे और
संस्कृत नाम की भाषा ही नहीं, उस भाषा की लिपि भी थी । मतलब यह कि वे
पढ़े-लिखे सुशिक्षित, सभ्य व सुसंस्कृत खानाबदोश लोग थे । दरअसल
मैक्समूलर ने अंग्रेजों का औपनिवेशिक हित साधने के लिए यह ‘थ्योरी’
जानबूझ कर गढ़ी थी , ताकि ईसावादियों की श्रेष्ठता के साथ यह सिद्ध किया
जा सके कि सनातनधर्मी भारत सदा से ही विदेशियों का चारागाह रहा है ।
लेकिन सन १९२१ में सिंधु नदी के किनारे हुए उत्खनन में ग्रीस एथेंस व
रोम से भी पहले की एक अत्यन्त विकसित सभ्यता के अवशेष मिल जाने से जब
उनकी ‘आर्यन इन्वेजन थ्योरी’ की हवा निकलने लगी, तब उनने यह यह शोध
प्रतिपादित कर दिया कि सिंधु घाटी-सभ्यता के लोग द्रविड़ थे और
हडप्पा-मोहनजोदडो नामक उनकी उत्कृष्ट नागरीय सभ्यता को आर्यों ने आक्रमण
कर के नष्ट कर दिया था । उपनिवेशवादियों की इसी लकीर पर भारत के
वामपंथी इतिहासकार अपनी-अपनी बुद्धिबाजी के रंग चढाते रहे तथा इसी झूठ को
सच सिद्ध करने की मशक्कत करते रहे कि आर्य व द्रविड दोनों भिन्न हैं और
द्रविड मूल भारतवासी हैं, जबकि आर्य लोग विदेशी आक्रमणकारी हैं ।
लेकिन अभी हाल ही में हरियाणा के राखीगढी में
हडप्पा-मोहनजोडदों-सभ्यता से भी चार हजार साल पुरानी सभ्यता के अवशेषों
का ‘कॉर्बन १४-प्रणाली’ से जो परीक्षण हुआ और उसके उत्त्खनन से प्राप्त
मानव-अस्थी-पंजरों का जो डीएनए टेस्ट हुआ उससे जब यह तथ्य सामने आ गया कि
आज के भारतीय लोगों का भी डीएनए वही का वही एक समान ही है , तब आर्यों के
तथाकथित आक्रमण से सिन्धु-घाटी सभ्यता के नष्ट हो जाने की मनगढन्त कहानी
भी तार-तार हो गई । मालूम हो कि राखीगढी हरियाणा के हिसार जिलान्तर्गत
सरस्वती नदी-घाटी का शुष्क क्षेत्र है , जहां लगभग ८००० ईसापूर्व वैदिक
सभ्यता विकसित हुई थी । सरस्वती नदी के विलुप्त होने के साथ ही वह सभ्यता
भी धराशायी हो गई , जिसके उत्त्खनन से अनेक दुर्ग-प्राचीर , अन्नागार ,
स्तम्भयुक्त मण्डप, चबूतरे और अग्नि-वेदिकायें आदि मिली हैं, जो वैदिक
सभ्यता की निशानियां हैं । उल्लेखनीय है कि हडप्पा-मोहनजोदडो-सभ्यता २६००
से १९०० वर्ष ईसा-पूर्व की आंकी गई थी, जबकि यह राखीगढी सभ्यता उससे भी
४००० वर्ष पहले अर्थात ६५०० वर्ष ईसा-पूर्व की आंकी गई है । डेक्कन डीम्ड
यूनिवर्सिटी , पुणे के पुरातत्वविद प्रोफेसर वसंत शिंदे के नेतृत्व में
सन २०१५ में राखीगढ़ी के आसपास ९०० स्क्वायर मीटर में की गई खुदाई से
प्राप्त नर-कंकालों के डीएनए की यह रिपोर्ट किसी आर्य-समाजी या
संघ-परिवारी शोध-संस्थान से प्रेरित नहीं है , बल्कि अमेरिका की हॉवर्ड
यूनिवर्सिटी और कोरिया से स्योल नेशनल यूनिवर्सिटी के सम्बन्धित
विशेषज्ञों से प्रमाणित है । डेक्कन कॉलेज की आर्कियोलॉजी टीम ने हिसार
में राखीगढ़ी के टीले में दबे मानव कंकालों के ४० ‘डीएनए सैंपल’
हैदराबाद के ‘सेंटर फॉर सेलुलर एंड मॉलिक्यूलर बायोलॉजी’ की लैब को भेजी
थी । वहां डॉ. नीरज राय ने हर सैंपल के दो सेट तैयार किए थे , जिनमें से
एक सेट का अध्ययन भारत में किया गया; जबकि दूसरे की जांच हार्वर्ड
यूनिवर्सिटी में हार्वर्ड मेडिकल स्कूल के डा. डेविड राइख ने की । पुणे
की डेक्कन डीम्ड युनिवर्सिटी ने तो उन संस्थानों से प्राप्त रिपोर्ट का
विश्लेषण मात्र किया है । पुरातत्वविद प्रो० वसंत सिंदे के अनुसार उक्त
रिपोर्ट से यह तथ्य भी गलत साबित हो रहा है कि सिन्धु-घाटी-सभ्यता के
प्रमुख नगरों- हडप्पा व मोहनजोडरो को पश्चिमी मेसोपोटामिया (कुवैत, ईराक
व सिरिया, आदि पश्चिम एशिया ) के लोगों ने आ कर बसाया था । इतना ही नहीं
अब तो युरोपियन-अमेरिकन उपनिदेशवादियों और उनके भारतीय हस्तक वामपंथियों
की इस उलटवासी से उल्टा यह सत्य भी प्रमाणित हो रहा है कि भारत के लोगों
ने ही हड़प्पा, मेसोपोटामिया, मिश्र आदि सभ्यताओं के निर्माण में योगदान
किया है । साथ ही यह भी कि ‘राखीगढ़ी’ में प्राप्त आज से छह हज़ार साल पहले
के नरकंकालों और आज के भारतीय लोगों के डीएनए की समानता को देखने से इस
सत्य को प्रमाणित करने के लिए अब और किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं है कि
वैदिक आर्य ही भारत के मूल निवासी हैं, जो कहीं बाहर से भारत में नहीं
आये हैं, जबकि ईरान-ईराक-मिश्र आदि बाहरी दुनिया से इनके मेल-जोल घनिष्ठ
रहे हैं । इस तरह से युरोपीय उपनिवेशवादियों तथा भारतीय वमपंथियों की
आर्य-सम्बन्धी निराधार बुद्धिबाजी युक्त स्थापनायें पूरी तरह से ध्वस्त
हो चुकी हैं और उनके तत्सम्बन्धी बौद्धिक प्रपंच तिरोहित हो चुके है ।
‘जेनेटिक साइंस’ ने दुनिया के इतिहास को अब एक नया नजरिया
प्रदान किया है, जिसके परेप्रेक्ष्य में ही पिछले दिनों पांच सितंबर को
डेक्कन कॉलेज, पुणे के इतिहासकारों ने दो महत्वपूर्ण घोषणाएं की हैं । इस
डीम्ड यूनिवर्सिटी के कुलपति प्रो. वसंत शिंदे ने हरियाणा में राखीगढ़ी
पुरातत्व स्थल के मानव कंकालों की रिसर्च के नतीजे घोषित करते हुए कहा है
कि हड़प्पा-मोहनजोदड़ो व राखीगढी के लोग ही ‘भारत प्रायद्वीप’ के मूल
निवासी थे, जिनके वंशज आज के भारतीय हैं । इन्होंने ही वेदों-उपनिषदों की
रचना की, जो दुनिया के इतिहास में ‘आर्य जाति’ के नाम से जाने जाते हैं ।
आर्यों की आदि भूमि भारत ही रही है । यहीं से आर्य लोग लोग मध्य एशिया
होते हुए युरोप की ओर गए , न कि उधर से इधर आये । अंग्रेजों द्वारा
प्रायोजित भारतीय इतिहास में यह जो पढाया जाता रहा है कि आर्य भारत के
मूल निवासी नहीं थे, वे आधुनिक यूरोप या मध्य एशिया से भारत आए थे और
हड्डप्पा-मोहनजोदडो पर हमला कर यहां के मूल निवासियों-द्रविडों को दक्षिण
की ओर मार भगाये , सो सर्वथा गलत , भ्रामक व आधारहीन कुतथ्य है ।
मालूम हो कि ‘द्रविड जाति’ भी युरोपीय उपनिवेशवादी इतिहासकारों
ने भारत के वृहतर बहुसंख्य वैदिक-सनातनी हिन्दू-समाज में दरार पैदा कर
ईसाइयत का बीजारोपण करने के कुटिल उद्देश्य से छलपूर्वक गढी हुई उनकी एक
रण-नीति की उपज है । वेदों-पुराणों में ‘द्रविड’ शब्द आर्य-विरोधी या
जातिसूचक नहीं है , बल्कि विन्ध्याचल पर्वत से दक्षिण के समस्त भारतीय
भू-भाग के पांच प्रदेशों के एक समूह के लिए प्रयुक्त हुआ है । अंग्रेजो
के आंने से पूर्व भारत में यह कोई जानता भी नहीं था कि ‘द्रविड़’ व ‘आर्य’
दो अलग-अलग नस्ली जातियां है । यह मिथ्या तो अंग्रेजों ने आर्यों को
विदेशी आक्रमणकारी सिद्ध करने के लिए जबरिया स्थापित किया हुआ है ।
‘संस्कृति के चार अध्याय’ ग्रन्थ में रामधारी सिंह दिनकर ने लिखा है कि
“जाति या नस्ल का सिद्धांत भारत में अंग्रेजो के आने के बाद ही प्रचलित
हुआ, इससे पूर्व इस बात का कहीं कोई प्रमाण ही नहीं मिलता कि द्रविड़ और
आर्य लोग एक दूसरे को विजातीय समझते थे । ‘द्रविड़’ तो वस्तुतः आर्यों के
ही वंशज है । मैथिल, गौड़ व कान्यकुब्ज आदि की तरह ‘द्रविड़’ शब्द भी यहाँ
भोगौलिक अर्थ में प्रयुक्त होते रहा है, न कि जातिसूचक अर्थ में ”। इस
संदर्भ में टॉमस बरो नाम के एक प्रसिद्ध अंग्रेज पुरातत्ववेत्ता की पुस्तक ‘कल्चरल हिस्ट्री ऑफ़ इंडिया’ के ‘दि अर्ली आर्यन्स’ अध्याय में उद्धृत यह कथन उल्लेखनीय है कि- “ भारत पर आर्यों के आक्रमण का न कहीं किसी इतिहास में कोई उल्लेख मिलता है और न इसे पुरातात्विक आधारों पर सिद्ध किया जा सकता है ।” बावजूद इसके, राखीगढी सभ्यता के अवशेषों का परीक्षण-विश्लेषण ईसाई-विस्तारवादी उपनिवेशवादियों और उनके झण्डाबरदार वामपंथियों के ‘आर्यन इन्वेजन थ्योरी’ को एक प्रकार से ध्वस्त कर देने में सफल सिद्ध हो रहा है ।
• सितम्बर’ २०१९
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