देश में सक्रिय विदेशी संस्थाओं की नीतियां चिन्ताजनक
हमारे देश में अनेक ऐसी विदेशी-मजहबी संस्थायें सक्रिय हैं, जिनकी
नीतियां हमारी सामाजिक समरसता व राष्ट्रीय एकता-अखण्डता के लिए अत्यन्त
चिन्ताजनक हैं । इन संस्थाओं की कारगुजारियों के कारण यहां कभी
‘असहिष्णुता’ का ग्राफ ऊपर की ओर उठ जाता है , तो कभी ‘दलितों की
सुरक्षा ’ का ग्राफ नीचे की ओर गिरा हुआ बताया जाता है । ये संस्थायें
भिन्न-भिन्न प्रकृति और प्रवृति की हैं । कुछ शैक्षणिक-अकादमिक हैं , जो
शिक्षण-अध्ययन के नाम पर भारत के विभिन्न मुद्दों पर तरह-तरह का
शोध-अनुसंधान करती रहती हैं ; तो कुछ संस्थायें ऐसी हैं , जो इन कार्यों
के लिए अनेकानेक संस्थायें खडी कर उन्हें साध्य व साधन मुहैय्या
करती-कराती हुई विश्व-स्तर पर उनकी नेटवर्किंग भी करती हैं । भारत-मूल के
एक अमेरिकी लेखक राजीव मलहोत्रा की पुस्तक- ‘ब्रेकिंग इण्डिया’ में इन
संस्थाओं की गतिविधियों का विस्तार से खुलासा हुआ है, जिसके अनुसार
‘डी०एफ०एन०’ (दलित फ्रीडम नेटवर्क) संयुक्त राज्य अमेरिका की एक ऐसी
संस्था है , जो भारत में दलितों के अधिकारों की सुरक्षा के नाम पर उन्हें
भडकाने के लिए विभिन्न भारतीय-अभारतीय संस्थानों का वित्त-पोषण और
नीति-निर्धारण करती है । इसके प्रमुख कर्त्ता-धर्ता डॉ० जोजेफ डिसुजा
नामक अंग्रेज हैं, जो ‘ए०आई०सी०सी०’(आल इण्डिया क्रिश्चियन काउंसिल) के
भी प्रमुख हैं । डी०एन०एफ० के लोग खुद को भारतीय दलितों की मुक्ति का
अगुवा होने का दावा करते हैं । इस डी०एफ०एन० की कार्यकारिणी समिति और
सलाहकार बोर्ड में तमाम वैसे ही लोग हैं , जो हिन्दुओं के धर्मान्तरण एवं
भारत के विभाजन के लिए काम करने वाली विभिन्न ईसाई मिशनरियों से सम्बद्ध
हैं । वस्तुतः धर्मान्तरण और विभाजन ही डी०एफ०एन० की दलित-मुक्ति
परियोजना का गुप्त एजेण्डा है , जिसके लिए यह संस्था भारत में दलितों के
उत्पीडन की इक्की-दुक्की घटनाओं को भी बढा-चढा कर दुनिया भर में प्रचारित
करती है , तथा दलितों को सवर्णों के विरूद्ध विभाजन की हद तक भडकाने के
निमित्त विविध विषयक ‘उत्त्पीडन साहित्य’ के प्रकाशन-वितरण व
तत्सम्बन्धी विभिन्न कार्यक्रमों का आयोजन करती-कराती है । डी०एफ०एन० और
इससे जुडी अम्बेदकरवादी भारतीय संस्थाओं की सक्रियता का आलम यह है कि
इनका नियमित पाक्षिक प्रकाशन- ‘दलित वायस’ भारत में पाकिस्तान की तर्ज पर
एक पृथक ‘दलितस्तान ’ राज्य की वकालत करता रहता है । डी०एफ०एन० को
अमेरिकी सरकार का ऐसा वरदहस्त प्राप्त है कि वह अमेरिका-स्थित दलित-विषयक
विभिन्न सरकारी आयोगों के समक्ष भारत से दलित आन्दोलनकारियों को ले जा-ले
जा कर भारत-सरकार के विरूद्ध गवाहियां भी दिलाता है । डी०एफ०एन० दलितों
को भडकाने वाली राजनीति करने के लिए ही नहीं , बल्कि भारत के बहुसंख्य
समाज के विरूद्ध दलित-उत्पीडन और उसके निवारणार्थ विभाजन की वकालत-विषयक
शोध-अनुसंधान के लिए शिक्षार्थियों व शिक्षाविदों को भी फेलोशिप और
छात्रवृत्ति प्रदान करता है । इसने कांचा इलाइया नामक उस तथाकथित भारतीय
दलित चिंतक को उसकी पुस्तक- ‘ह्वाई आई एम नॉट ए हिन्दू ’ के लिए पोस्ट
डॉक्टोरल फेलोशिप प्रदान किया है , जिसमें अनुसूचित
जातियों-जनजातियों-ईसाइयों और पिछडी जाति के लोगों को अम्बेदकर का हवाला
देते हुए सवर्णों के विरूद्ध सशस्त्र युद्ध के लिए भडकाया गया है ।
मालूम हो कि भीमराव अम्बेदकर एक ऐसे राष्ट्रवादी नेता थे जो अपने
हिन्दू-समाज की सवर्ण जातियों के लोगों द्वारा अस्पृश्यता के नाम पर घोर
प्रताडना झेल चुके होने के बावजूद तत्कालीन ईसाई-मिशनरियों और
मुस्लिम-संगठनों द्वारा प्रेषित धर्मान्तरण-प्रस्तावों को यह कह कर
ठुकरते रहे थे कि “धर्मान्तरण तो राष्ट्रान्तरण है” । अंततः उन्होंने
स्वयं ‘बौद्ध पंथ’ में दीक्षित हो कर धर्मान्तरण के लिए विवश अथवा उत्सुक
लोगों को भी भारत-भूमि से बाहर के किसी भी अभारतीय धर्म-पंथ-मजहब में
दीक्षित नहीं होने का ही संदेश दिया । किन्तु आज उन्हीं अम्बेदकर के नाम
पर दलितों को उनके राष्ट्रीय आदर्शों के विपरीत हिन्दू समाज-धर्म के
विरूद्ध भडका कर अपनी राजनीतिक रोटी सेंकने वाले लोग धर्मान्तरणकारी
चर्च-मिशनरियों की भारत-विरोधी विखण्डनकारी योजनाओं के हस्तक बने हुए हुए
हैं । पी०आई०एफ०आर०ए०एस०(पॉलिसी इंस्टिच्युट फॉर रिलीजन एण्ड स्टेट)
अर्थात ‘पिफ्रास’ अमेरिका की एक ऐसी संस्था है , जिसका चेहरा तो समाज और
राज्य के मानवतावादी लोकतान्त्रिक आधार के अनुकूल नीति-निर्धारण को
प्रोत्साहित करने वाला है , किन्तु इसकी खोपडी में भारत की
वैविध्यतापूर्ण एकता को खण्डित करने और हिन्दुओं (दलितों) के धर्मान्तरण
की योजनायें घूमती रहती हैं । इसके स्वरुप की वास्तविकता यह है कि इसका
कार्यपालक निदेशक जॉन प्रभुदोस नामक एक ऐसा व्यक्ति है , जो
धर्मान्तरणकारी कट्टरपंथी चर्च-मिशनरी संगठनों के गठबन्धन
एफ०आई०ए०के०ओ०एन०ए० (द फेडरेशन आफ इण्डियन अमेरिकन क्रिश्चियन
आर्गनाइजेसंस आफ नार्थ अमेरिका) अर्थात ‘फियाकोना’ का भी प्रतिनिधित्व
करता है । ये दोनो संगठन एक ओर विश्व-मंच पर भारत को ‘मुस्लिम-ईसाई
अल्पसंख्यकों का उत्त्पीडक देश’ के रुप में घेरने की साजिशें रचते रहते
हैं , तो दूसरी ओर भारत के भीतर नस्ली भेद-भाव एवं सामाजिक फुट पैदा
करने के लिए विभिन्न तरह के हथकण्डे अपनाते रहते हैं ।
‘पिफ्रास’ का एक सदस्य सी० रॉबर्ट्सन अमेरिकी सरकार के
विदेश-सेवा संस्थान से सम्बद्ध है , जो ‘अमरिकन नेशनल एण्डाउमेण्ट ऑफ
ह्यूमैनिटिज’ नामक संस्था के आर्थिक सहयोग से भारत में रामायण के राम को
नस्लवादी , महिला उत्पीडक व मुस्लिम-विरोधी बताने के लिए बहुविध
कार्यक्रमों का आयोजन कराता है । इन दोनों अमेरिकी संस्थाओं की
भारत-विरोधी विखण्डनकारी गतिविधियों का आलम यह है कि ‘पिफ्रास’ ने
‘युनाइटेड मेथोडिस्ट बोर्ड आफ चर्च एण्ड सोसाइटी’ और ‘द नेशनल काउन्सिल
ऑफ चर्चेज ऑफ क्राइस्ट इन द यु०एस०ए०’ के सहयोग से आयोजित एक कार्यक्रम
में कांग्रेसी मनमोहनी सरकार की सोनिया-प्रणीत राष्ट्रीय सलाहकर परिषद के
प्रमुख सदस्य- जॉन दयाल की पहल पर यह निष्कर्ष प्रतिपादित किया था कि “
भारत में अल्पसंख्यक लोग अपनी सुरक्षा और अपने प्रति किये जाने वाले
अपराधों के मामले में अपराधियों को दण्डित करने के लिए भारतीय राज्य पर
भरोसा नहीं कर सकते” । इसी तरह से डी०एफ०एन० एक तरफ भारत के भीतर
बहुसंख्यक समाज के विरूद्ध दलितों और अल्पसंख्यकों को भडका कर विखण्डन के
दरार को चौडा करने में लगी हुई है , तो दूसरे तरफ भारत के बाहर वैश्विक
मंचों पर भारतीय राज्य-व्यवस्था को अक्षम-अयोग्य व पक्षपाती होने का
दुष्प्रचार कर इस देश में अमेरिका के हस्तक्षेप का वातवरण तैयार करने में
भी सक्रिय है । ऐसी एक नहीं अनेक संस्थायें हैं , जो भिन्न-भिन्न तरह के
मुद्दों को लेकर भारत के विरूद्ध अलग-अलग मोर्चा खोली हुई हैं , किन्तु
वैश्विक स्तर पर एक संगठित नेटवर्क के तहत उन सबका उद्देश्य एक है और वह
है भारत के विखण्डन की जमीन तैयार करना एवं इसे वेटिकन सिटी-निर्देशित व
अमेरिका-शासित अघोषित ‘श्वेत-साम्राज्य’ के अधीन करना । गौरतलब है कि
दलितों के नाम पर संचालित इन तमाम संस्थाओं-संगठनों के संचालकों में कोई
एक भी दलित नहीं है । इन्हें भारत के दलितों की ऐतिहासिक सामाजिक
पृष्ठभूमि से भी इनका कोई लेना-देना कतई नहीं है । दलित-मामलों को उभारने
के पीछे इनके दो मकसद हैं- पहला, दलितों का धर्मान्तरण और दूसरा- भारत
का पुनर्विभाजन । ‘दलित-मुक्ति’ की इनकी जो परिभाषा है , सो वास्तव में
सनातन-हिन्दू-वैदिक धर्म से दलितों को अलग कर देना और ईसाइयत के बंधन में
बांध देना ही है , जिसे किसी भी कोण से किसी की ‘मुक्ति’ नहीं कहा जा
सकता है । दलितों की हालत के परिप्रेक्ष्य में उनकी ‘मुक्ति’ का वास्तविक
मतलब तो दलितों की सामाजिक-आर्थिक समस्याओं से उनका मुक्त होना अथवा
उन्हें मुक्त करना है, जिसके बावत इन संस्थाओं के पास न तो कोई योजना है
न कोई विचारणा । ऐसे में इन संगठनों की ऐसी सक्रियता हमारी सामाजिक
समरसता और राष्ट्रीय एकता की दृष्टि से अत्यन्त चिन्ताजनक है ।
• सितम्बर’ २०१९
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