शिक्षक-दिवस की विडम्बना !
हमारे देश में प्रचलित पश्चिमी शिक्षा-पद्धति के ‘टीचर’ या
‘फैकल्टी’ और भारतीय ज्ञान-परम्परा के शिक्षक आचार्य व गुरु में
जमीन-आसमान सा अन्तर है । टीचर तो कायदे से भारतीय दृष्टि में शिक्षक भी
नहीं होता है । उसे अधिक से अधिक अध्यापक ही कहा जा सकता है । हमारे
शास्त्रों में सुसंस्कारों से युक्त शिक्षा देने वाले को शिक्षक तथा
सुविचारों से युक्त आचार-व्यवहार सिखाने वाले को आचार्य कहा गया है ।
शिक्षक और आचार्य संसार साधने की शिक्षा भी देते हैं और आत्म-परिष्कार की
विद्या भी सिखाते हैं । भारतीय जीवन-दृष्टि में शिक्षा और विद्या एक ही
सिक्का के दो पहलू होने के बावजूद परस्पर भिन्न हैं । यहां शिक्षक और
आचार्य शिक्षा व विद्या दोनों सिखाते हैं । किन्तु टीचर तो सिर्फ ‘टीच’
(Teach) करता है , सबक सिखाता है , पाठ (Lesson) पढाता है और अध्यापक
अध्ययन (Study) कराता है । यह ‘टीचर’ नाम का पेशेवर व्यक्ति ‘स्टुडेण्ट’
को अधिक से अधिक धन कमाने की कला या ‘ट्रीक’ सिखाता है । आत्म-विकास व
आत्म-परिष्कार तो आज के पाठ्यक्रम का हिसा भी नहीं है । बावजूद इसके अब
इन ‘टिचरों’ को ही शिक्षक के साथ-साथ ‘गुरु’ भी माना जाने लगा है । अब तो
माल बेचने की चाल सिखाने वाले ‘मार्केटिंग गुरु’ से ले कर इश्कबाजी के
नाज-नखरे बताने वाले ‘लव गुरु’ तक की न केवल चर्चा होने लगी है, बल्कि वे
सम्मान भी पा रहे हैं । ‘गुरु’ शब्द के ऐसे बेजा इस्तेमाल पर तो कानूनन
रोक लगनी चाहिए । भारतीय जीवन दर्शन में तो गुरु उसे कहा गया है जो जीवन
को अंधकार से निकाल कर प्रकाशमय बना देता है । गुरु उस दिव्य सत्ता का
नाम है, जो अज्ञात, अव्यक्त, अदृश्य , अगोचर , सत्ता का भी बोध करा कर
शिष्य को परमब्रह्म का साक्षात्कार कराने से ले कर ‘मोक्ष’ तक प्रदान
करने की सामर्थ्य से सम्पन्न होता है । ऐसे में ‘टीचर’ को ‘शिक्षक’ और
‘शिक्षक’ को ‘गुरु’ के रुप में स्थापित करना सर्वथा अनुचित है ।
आज की पश्चिमी अंग्रेजी मैकाले शिक्षा-पद्धति के किसी भी ‘टीचर’
के व्यक्तित्व में कायदे का कोई शिक्षक भी नहीं है (अपवाद छोड कर) , तो
‘टीचर्स डेय’ को ‘शिक्षक दिवस’ घोषित कर टीचरों को शिक्षक मान लेना और
फिर उन्हीं घोषित शिक्षकों को ‘गुरु’ के रुप में महिमामण्डित करना जितना
हास्यास्पद है , उतना ही चिन्ताजनक भी । ऐसी मान्यता दर-असल
ईसाई-षड्यंत्र का एक रुप है और भारतीय सनातन ज्ञान-परम्परा को कुंद करने
की एक पश्चिमी चाल है, जिसका उद्देश्य भारतीय संस्कृति को संजीवनी प्रदान
करते रहने वाले ‘गुरु’ के स्थान पर पश्चिमी संस्कृति के संवाहक ‘टिचर’ को
प्रतिष्ठित करना तथा शिक्षा-वृति पर राजनीति की श्रेष्ठता स्थापित करना
है । एक शिक्षक से राष्टपति बने डॉ राधाकृष्णन के जन्म-दिन को सरकारी
स्तर पर देश भर में शिक्षक-दिवस के रुप में मनाना और उन डॉ साहब को
शिक्षकों का आदर्श बना दिया जाना , शिक्षकों का महिमामण्डन कतई नहीं है,
बल्कि यह तो शिक्षकीय महिमा का क्षरण है ।
इस परिप्रेक्ष्य में यह प्रश्न विचारणीय है कि किसी शिक्षक का
राष्ट्रपति बन जाना शिक्षक के लिए गौरवपूर्ण है , या किसी राष्ट्रपति का
शिक्षक हो जाना गौरवपूर्ण है ? शिक्षक यदि शिक्षा-वृति से विमुख हो
राजनीति के गलियारों में जोड-तोड करते व तीकडम रचते हुए राष्ट्रपति बन
जाए , तो इससे शिक्षक-पद और शिक्षण-कार्य की गरिमा बढती है या घटती है ?
जाहिर है, सादगी-साधना से युक्त शिक्षा-वृत्ति को त्याग कर तिकडमबाजी से
युक्त राजनीति का उच्च पद हासिल कर लेने से तो शिक्षक की गरिमा घटती ही
है, बढती कतई नहीं । ऐसे में शिक्षक से राष्ट्रपति बने ऐसे किसी व्यक्ति
के जन्म-दिन को शिक्षक-दिवस के रुप में महिमा-मण्डित करना हास्यास्पद ही
है, जो शिक्षा वृति को कमतर समझ शिक्षण-कार्य को नकार दिया एवं राजनीति
को बेहतर समझ राज-काज को स्वीकार लिया ; जो शिक्षण-कार्य से आनन्दित न हो
कर राजकाज से तृप्त हुआ । हां , यदि कोई राष्टपति अगर अपना राजनीतिक
सुख-वैभव त्याग कर शिक्षक बन जाए , तो यह शिक्षा-वृति और उसे धारण करने
वाले शिक्षक, दोनों के लिए अवश्य ही गौरवपूर्ण होता । ऐसे त्यागी और
शिक्षा-प्रेमी व्यक्तित्व के जन्म-दिन को शिक्षक-दिवस के रुप में मनाया
जाना सार्थक भी होता । किन्तु अपने देश में ठीक उल्टा हो रहा है ।
शिक्षा-वृत्ति और शिक्षक जाति, दोनों की गरिमा राज-सत्ता के द्वारा घटायी
जा रही है , शिक्षा-वृति पर राजनीति व राज-सत्ता की श्रेठता-उच्चता
स्थापित की जा रही है और सन १९६७ से पिछले ४२ वर्षों से इस पूरे प्रहसन
में शिक्षक ही ताली बजा रहे हैं । जिन राधाकृष्ण जी ने शिक्षण-कार्य और
शिक्षक-पद की घोर उपेक्षा की उसी को शिक्षक अपना आदर्श मान और जान रहे
हैं , तो यह बहुत बडी विडम्बना है ।
गौरतलब है कि शिक्षण-वृति का मान बढाने के लिए डॉ राधाकृष्णन को
शिक्षक की कुर्सी पर से उठा कर के राष्ट्रपति की कुर्सी पर नहीं बैठा
दिया गया था, बल्कि सच तो यह है कि वहां तक पहुंचने के लिए उन शिक्षक
महोदय को भी अपनी शिक्षा-वृति के विरुद्ध जा कर राजनीति के गलियारों में
सत्ता के सौदागरों से अनेक प्रकार की दुरभिसंधियां करनी पडी थीं ।
कैथोलिक चर्च के सहयोग से लुथेरियन मिशन स्कूल व मद्रास क्रिश्चियन कॉलेज
से शिक्षा हासिल किये एक निर्धन मेधावी छात्र को शिक्षक व दर्शन शास्त्र
का प्राध्यापक बन जाने के बाद युरोपीय देशों का राजदूत एवं भारत का
उपराष्टपति और अन्त में राष्ट्रपति बनाया जाना असल में उनके द्वारा
वेद-पुराण-उपनिषद-गीता-ब्रह्मसूत्र-स्मृति-मीमांसा को बाइबिल के अनुकूल
विश्लेषित किये जाने का ‘ईसाई-पारितोषिक’ था, जिसके तहत उनकी विद्वता का
कद इस कदर गढा गया । उनमें दर्शन शास्त्र की विद्वता तो इतनी थी कि
उन्हीं के एक शोधार्थी- विद्यार्थी यदुनाथ सिन्हा ने उन पर ‘इण्डियन
साइकॉलॉजी ऑफ परसेप्सन’ विषयक उसके शोध-सामग्री (थीसिस) को चुरा कर उसके बदौलत ‘भारतीय दर्शन’ नाम की अपनी एक पुस्तक ऑक्सफोर्ड युनिवर्सिटी से प्रकाशित करा लेने का आपराधिक मुकदमा ठोंक रखा रखा था । ऑल इंडिया रेडियो न्यूज़ के तत्कालीन संपादक और वरिष्ठ पत्रकार महेन्द्र यादव के अनुसार “कलकत्ता विश्वविद्यालय में ‘फ़िलिप सैम्युल स्मिथ पुरस्कार’ और ‘क्लिंट मेमोरियल पुरस्कार’ से सम्मानित अत्यन्त मेधावी शोधार्थी छात्र यदुनाथ
सिन्हा द्वारा सन १९२५ में जो थीसिस प्रस्तुत किया गया था, उसे तीन में से दो प्राध्यापकों-प्रो० बीएन सील व प्रो० कृष्णचंद्र भट्टाचार्य ने तो पास कर दिया था , किन्तु डॉ राधाकृष्णन ने जानबूझकर थीसिस पास करने में दो साल की देरी कर उसकी सामग्री को ‘भारतीय दर्शन’ (दूसरा भाग) नामक अपनी पुस्तक के रुप में ऑक्सफ़ोर्ड विश्वविद्यालय से प्रकाशित करा लिया था” । तब कलकत्ता विश्वविद्यालय से प्रकाशित दर्शनशास्त्र की विश्वविख्यात पत्रिका – ‘मॉडर्न रिव्यू’ के कई अंकों में आरोपों-प्रत्यारोपों का वह मामला छाया हुआ था । बाद में जनसंघ के संस्थापक डॉ० श्यामाप्रसाद मुखर्जी, जो उन दिनों कलकत्ता विश्वविद्यालय के कुलपति थे, उन्हीं की पहल पर न्यायालय के बाहर वह मामला सिन्हा को दस हजार रुपये दे-दिला कर सलटाया गया था । तो शिक्षा-वृति पर राजनीति की प्राथमिकता उच्चता व महत्ता को स्थापित करने वाली ऐसी महान विभूति की जयन्ती को शिक्षक दिवस घोषित कर उन्हें शिक्षकों का आदर्श बताया जाना वास्तव में शिक्षा-वृत्ति और शिक्षक जाति की गरिमा के अनुकूल कतई नहीं है । शिक्षकों की गरिमा एक शिक्षक के राष्ट्रपति बन जाने से नहीं बढ सकती है, जबकि एक राष्ट्रपति द्वारा राजसी वैभव त्याग कर शिक्षा-वृत्ति अपना लेने से कदाचित बढ सकती है । क्योंकि शिक्षक का दायित्व एवं गौरव राष्ट्रपति के पद व वैभव से सर्वथा ऊंचा है, ऊंचा ही रहेगा । किन्तु ऐसा तभी होगा जब शिक्षक अपनी शिक्षा-वृत्ति के प्रति निष्ठावान बने रहेंगे ।
• सितम्बर’ २०१९
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