महात्मा’ के सारथी और ‘गांधी’ की पालकी
मालूम हो कि चालु वर्ष- २०१९ महात्मा गांधी की १५०वीं जयन्ती का
वर्ष है । इस उपलक्ष्य में भाजपाई केन्द्र सरकार और भारतीय जनता पार्टी
, दोनों की ओर से कई तत्सम्बन्धी कार्यक्रम आयोजित किये गए हैं , जिनकी
शुरुआत आगामी ०२ अक्तुबर से होने वाली है । प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी
ने भाजपा के सभी सांसदों को निर्देशित किया है कि वे महात्मा गांधी की
१५०वीं जयंती पर अपने-अपने क्षेत्र में १५० किलोमीटर पैदल यात्रा करें
और गांधीजी के विचारों को फैलायें । भाजपा-सांसदों की वह पैदल यात्रा ०२
अक्टुबर गांधी जयंती से शुरू हो कर ३१ अक्टूबर पटेल जयंती तक चलेगी । इस
प्रस्तावित यात्रा के खास भाजपाई निहितार्थ और कांग्रेसी फलितार्थ हैं ।
आर्थत उस यात्रा से उद्देश्य तो सधेगा भाजपा का, लेकिन उसका फल कांग्रेस
को चखना पडेगा । वह फल मीठा होगा या कडवा, यह विचारणीय है । गौरतलब है कि
भाजपा जहां देश के जनमानस में बैठे महात्मा के चिन्तन-दर्शन को अपने
हिसाब से फैलाने का उपक्रम करती दिख रही है, वही कांग्रेस दस-जनपथ के उस
गांधी को मनाने का उद्यम करने में लगी हुई है, जो खुद को महात्मा की
विरासत के अधिकारी होने का दावा करते रहे हैं । जी हां, उस गांधी को
मनाने का उद्यम करने में लगी हुई है पूरी कांग्रेसी जमात , जो कांग्रेस
की नैय्या डुबते जाने से खीझ कर , या यों कहिए कि रुष्ट हो कर उसके
अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिए हैं । हालाकि सत्ता के शीर्ष पर जब हुआ
करती थी कांग्रेस, तब भी दस-जनपथ का यह गांधी-परिवार महात्माजी को वर्ष
में दो बार ही याद किया करता था, एक बार उनकी जयन्ती पर और दूसरी बार
उनकी पुण्य तिथि पर । कांग्रेस की नैय्या डुबने का कारण भी यही रहा ।
महात्मा गांधी की विरासत को अभिव्यक्त करने वाली कांग्रेस का
उन्हीं की कृपा से सर्वेसर्वा बन उसी के सहारे सत्तासीन हुए जवाहरलाल
नेहरु ही असल में महात्मा को तिलांजलि देते हुए बडी चतुराईपूर्वक
‘गांधी’ को सत्ता की ताबीज में गढ-मढ कर अपनी बेटी के गले से लटका दिया
था । फिर तो ‘इन्दिरा प्रियदर्शिनी नेहरु’ उसके प्रभाव से ‘इन्दिरा
गांधी’ बन कर कांग्रेस की सियासत और महात्मा की विरासत पर ऐसे अधिकार जमा
लिया जैसे उस ‘साबरमति के संत’ ने उस बावत उन्हें उतराधिकारी होने की
वसीयत लिख रखा हो । बावजूद इसके, देश यही समझता रहा या देश को यही समझाया
जाता रहा और इन्दिरा के बाद राजीव तथा राजीव के बाद सोनिया व राहुल सभी
उस ताबीज को धारण किये रहे तथा उसी की बदौलत कांग्रेस का सर्वेसर्वा बन
पूरे साठ-बासठ वर्षों तक ये तमाम गांधी सत्ता-सुख भोगते रहे । जबकि ,
महात्मा के विचारों की छाया से भी बचते रहे और गाहे-बगाहे उनकी ऐसी-तैसी
भी करते रहे । जाहिर है, सत्ता के सौदागर बने इन गांधियों की विरादरी के
हाथों कांग्रेस उस महात्मा से वंचित होती रही, जो राजसत्ता के भारतीय
सनातन मूल्यों की वकालत करते रहे थे , जो धर्मविहीन राजनीति को अनर्थकारी
बताते रहे थे , जो रामराज्य की स्थापना को कांग्रेस का ध्येय बताते रहे
थे और इस बावत ‘हिन्द-स्वराज’ की अवधारणा रच गढ कर उसे धरातल पर उतारने
का सपना सारे देश को दिखाये थे । किन्तु उन्हीं के आशीर्वाद से पटेल की
जगह खुद कांग्रेस का अध्यक्ष बने जवाहरलाल ने उनके जीते-जी
‘हिन्द-स्वराज’ को सिरे से नकार दिया और प्रधानमंत्री बन जाने के बाद तो
उसे रद्दी की टोकरी में ही डाल दिया । महात्माजी का ‘हिन्द-स्वराज’
वास्तव में ‘राम-राज्य’ का ही सोपान था- भारत की माटी से निःसृत भारतीय
मन-मिजाज का ऐसा स्वराज, जिससे भारतीय संस्कृति के सनातन जीवन-मूल्यों का
संरक्षण व संवर्द्धन होता रहे । स्वराज-प्राप्ति का उनका संघर्ष भारतीय व
अभारतीय सभ्यताओं का परस्पर विरोधी संघर्ष था, किन्तु पटेल के हाथों बुरी
तरह से हार कर भी महात्माजी के हाथों कांग्रेस का अध्यक्ष बने नेहरु
प्रधानमंत्री बनते ही अभारतीय पक्ष के साथ खडा हो गए । वे कांग्रेस को
महात्माजी के विचारों से दूर ही नहीं, बल्कि वंचित भी करते रहे । अभारतीय
वैचारिक अधिष्ठान को प्रतिष्ठित कर उन्होंने सत्ता का ऐसा प्रतिष्ठान खडा
किया, जिसमें महात्माजी के विचारों को जूतियों से रौंदा जाता रहा । सेवा,
सादगी व शुचिता के बजाय शोषण, तिकडम व भ्रष्टाचरण को ही अहमियत दी जाती
रही । नेहरु के जमाने तक तो महात्मा के महात्म से वंचित हो जाने के
बावजूद कांग्रेस उनकी छाया से पूर्णतः मुक्त नहीं हो सकी, परन्तु नेहरु
के बाद की कांग्रेस को तो ‘गांधी’ नामक ताबीज धारण किये उनके वंशवृक्ष ने
इस कदर अपनी चपेट में ले लिया कि महात्मा महज किंवदन्ती बन कर रह गए ।
कांग्रेस की वैचारिकता नेहरु की वंशवादिता बन कर रह गई । न केवल
महात्माजी, बल्कि उनके साथ के तमाम स्वतंत्रता सेनानी इतिहास की अंधेरे
गर्त में धकेल दिए गए , जिसमें से सरदार पटेल को निकाल कर नरेन्द्र मोदी
ने भाजपा के वैचारिक अधिष्ठान पर खडा कर दिया, तब कांग्रेस को मिर्ची
लगने लगी थी ।
यह विडम्बना ही है कि ‘कांग्रेस-मुक्त भारत’ का अभियान चला रहे मोदी
जी अब ‘महात्मा-मुक्त कांग्रेस’ का अघोषित अभियान चलाने की ओर प्रवृत
होते दिख रहे हैं , किन्तु कांग्रेस अपने दुर्दिन के इस दौर में भी
‘गांधी-युक्त’ होने की मशक्कत करने में ही लगी है । ध्यातव्य है कि
नरेन्द्र मोदी को प्रतीकों का सियासी प्रयोग करने में महारत हासिल है ।
वे सरदार पटेल को जिस तर्ज पर ‘गुजराती अस्मिता’ से अलग-थलग कर नेहरु-वंश
के पटेल-विरोधी होने की बात स्थापित कर चुके हैं, उसी तर्ज पर वे सबरमति
के महात्मा को भी ‘दस-जनपथ के गांधियों’ से अलग-थलग कर दें तो किसी को
आश्चर्य नहीं होना चाहिए । कांग्रेस की आज यही सबसे बडी त्रासदी है कि
वह अपनी वैचारिकी और अपने विचारकों से खुद ही वंचित होती जा रही है ,
जबकि राजनीतिक विचारकों की विरासत के मामले में वह आज भी कम समृद्ध नहीं
है । किन्तु वह उन्हें सहेजने और तदनुसार अपना सामाजिक सरोकार विकसित
करने के बजाय ‘दस जनपथ के गांधी’ को सत्तासीन करने के लिए उनकी पालकी
ढोने में ही लगी हुई है । आगामी ०२ अक्तुबर को तमाम भाजपाई सांसद एवं
उसके नेता-कार्यकर्ता महात्माजी का डण्डा-झण्डा , हिन्द-स्वराज व गीता ले
कर सारथि बने गांव-गांव नगर-नगर पदयात्रा कर रहे होंगे , तब कांग्रेसी
सांसद व नेता-कार्यकर्ता ‘अपने उस गांधी’ के मान-मनव्वल में लगे रहेंगे,
जो कांग्रेस को सत्ता से वंचित कर चुके हैं । जाहिर है, भाजपा महात्मा जी
के राष्ट्रीय विचारों की सारथि बन जएगी और कांग्रेस सत्तालोलुप गांधी की
पालकी बन कर के रह जाएगी । सम्भव है इस बीच कांग्रेस अपने नये अध्यक्ष का
चुनाव कर भी ले, जो उस गांधी-परिवार से इतर हो; किन्तु कांग्रेस में जैसी
कि वर्तमान स्थिति व परिपाटी है, क्या वह नया अध्यक्ष ‘गांधी’ के प्रति
ऐसी आशक्ति से विमुख हो कर ‘महात्मा’ का सारथि बन सकेगा ? शायद नहीं,
क्योंकि विगत साठ-सत्तर वर्षों से किसी न किसी ‘गांधी’ के हाथों
‘महात्मा’ से विरक्त होती रही है कांग्रेस । इस कारण यही अब कांग्रेस का
स्वभाव बन गया है । कांग्रेसियों का यह स्वभाव कांग्रेस के अस्वाभाविक
अंत का कारण भी बन सकता है , अतएव इससे उबरना चाहिए कांग्रेस को ।
• जुलाई’२०१९
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