नस्ल-विज्ञान में भी है भाषा-द्वेष का भारत-भंजक षड्यंत्र


पश्चिम की विस्तारवदी मजहबी शक्तियों ने भारत राष्ट्र को विखण्डित
कर देने के बावत भाषा-विज्ञान के सहारे हमारे देश में भाषा-विवाद का जो
वितण्डा खडा कर रखा है वह उनके नस्ल-विज्ञान से भी गहरा जुडा हुआ है ।
अंग्रेजी शासन की स्वीकार्यता कायम करने के लिए अंग्रेजों ने पहले तो
इतिहास की किताबों में यह असत्य प्रक्षेपित कर दिया कि ‘आर्य’ भारत के
मूल निवासी नहीं हैं , फिर उनने अपने इस प्रतिपादन को सत्य सिद्ध करने के
लिए ‘नस्ल-विज्ञान’ को ज्ञान की एक नई शाखा के रूप में स्थापित कर उसके
माध्यम से यह भी प्रमाणित-प्रचारित करने में लगे रहे (आज भी लगे हुए हैं)
कि भारत के लोग नाक-नक्श , कद-काठी से भारतीय नहीं , यूरोपीय हैं और
‘मनु’ की नहीं ‘नूह’ की संतानें हैं । उनने अपनी इस परिकल्पना का आधार
बनाया ‘बाइबिल’ की उस कथा को, जिसके अनुसार प्राचीन काल में एक महा
जल-प्रलय के बाद ‘नूह’ की सन्तानों ने पृथ्वी को आबाद किया था । नूह के
तीन पुत्र थे- ‘हैम’ , ‘शेम’ और ‘जॉफेथ’ । ‘नूह’ नग्न रहा करता था, जिसकी
नग्नता पर एक बार ‘हैम’ हंस पडा, तो उससे अपमानित होकर उसने उसे श्राप दे
दिया कि वह (हैम) सदा ही उसके दो भाइयों ( शेम और जॉफेथ) की संतानों के
दासत्व में जीवन व्यतीत करे । इस कपोल-कल्पित बे-सिर-पैर की कथा को पूरी
दुनिया का इतिहास घोषित कर अंग्रेजों ने स्वयं को नूह के दो पुत्रों- शेम
व जॉफेथ की सन्तान घोषित कर लिया और उपनिवेशित देश (गुलाम देश) के लोगों
को गुलामी के लिए अभिशप्त ‘हैम की सन्तति’ करार देते हुए उन्हें ‘गुलामी
के लायक ही’ प्रमाणित कर दिया ।
फिर तो उनके इस दुष्प्रचार के आधार पर उनके औपनिवेशिक साम्राज्य
का औचित्य सिद्ध करने में समूचा यूरोप-अमेरिका ही उनके साथ खडा हो गया ।
वहां के बुद्धिजीवियों, वैज्ञानिकों व दार्शनिकों ने इस भ्रामक तथ्य को
स्थापित प्रतिपादित करने का एक अभियान ही चला दिया, जिसकी परिणति है
‘नस्ल-विज्ञान’ । यह नस्ल-विज्ञान असल में श्वेत चमडी के लोगों द्वारा
दुनिया की समस्त अश्वेत प्रजा पर अपना आधिपत्य स्थापित कर देने और
पृथ्वी के समस्त संसाधनों को अपने अधीन कर लेने के साथ-साथ भारत-भंजन के
लिए कायम किये गए भिन्न-भिन्न तरह के बौद्धिक षड्यंत्रों में से एक
प्रमुख नाम है ।
मालूम हो कि भारत के सम्पर्क में आने के पश्चात भारतीय सभ्यता
संकृति की जडों को तलाशने के क्रम में वेदों के अध्ययन व संस्कृत भाषा के
मंथन से यूरोपीय विद्वानों-दार्शनिकों को जब ‘आर्य ’ जाति की श्रेष्ठता व
बौद्धिकता का ज्ञान हुआ, तब उननें भाषा-विज्ञान का प्रतिपादन कर उसके
सहारे कतिपय शब्दों व ध्वनियों की संगति बैठा कर यह मिथक गढ दिया कि
संस्कृत ‘इण्डो-यूरोपियन’ भाषा-परिवार की एक भाषा है तथा आर्य मूलतया
यूरोप के निवासी व ‘नूह’ की सन्तान थे और श्वेत चमडी वाले थे , जो भारत
पर आक्रमण करने के पश्चात अश्वेत भारतवासियों से घुलने-मिलने के कारण
थोडा प्रदूषित (‘अश्वेत’) हो गए । जोजेफ ऑर्थर कॉमटे डी गोबिनो नामक एक
फ्रांसिसी इतिहासकार ने मानव की ‘गोरी श्रेणी’ और उसके भीतर
‘आर्य-परिवार’ की श्रेठता का सिद्धांत प्रतिपादित किया , जिसके अनुसार
उसने पृथ्वी पर तीन नस्लों की परिकल्पना प्रस्तुत की- ‘श्वेत’ , ‘अश्वेत’
और ‘प्रदूषित’ ।
कालान्तर बाद अठारहवीं शताब्दी में उन यूरोपियन बुद्धिबाजों ने
‘नस्ल-विज्ञान’ का आविष्कार कर के औपनिवेशिक साम्राज्यवाद और
ईसाई-विस्तारवाद का औचित्य सिद्ध करना शुरू कर दिया । ब्रिटिश
योजनापूर्वक प्रतिस्थापित और बहु-प्रचारित विद्वान फ्रेडरिक मैक्समूलर ने
वैदिक साहित्य के अनुवाद के क्रम में वेदों की व्याख्या ‘दो नस्लों के
पारस्परिक संघर्ष’ के रूप में कर के यह विभेद स्थापित करने का प्रयास
किया कि भारत के मूलवासी द्रविड-अनार्य हैं, जो आर्यों द्वारा शोषित होते
रहे हैं ; जबकि भारत में बसे हुए आर्य स्वयं भी हेम की संतति हैं, जो नूह
के शेष दो पुत्रों की दासता के लिए अभिशप्त हैं । उसने भारतीयों में
नस्ली-भेद निर्धारण के बावत वेद-वर्णित विभिन्न वर्णों-समुदायों से
सम्बद्ध लोगों के बीच की शारीरिक विशिष्टतायें-भिन्नतायें खोजने का बहुत
प्रयास किया , किन्तु कुछ नहीं मिला; क्योंकि वर्ण-व्यवस्था शारीरिक
भिन्नता अथवा नस्ल-भेद पर तो आधारित थी नहीं । तब उसने थक हार कर ऋग वेद
में किसी स्थान पर प्रयुक्त ‘अनास’ शब्द (जिसका सम्बन्ध नासिका से कतई
नहीं है) के आधार पर यह व्याख्यायित कर दिया कि वेदों में विभिन्न
जनजातियों के लिए उनकी नासिकाओं (नाकों) की अलग-अलग पहचान का वर्णन है ।
बाद में लन्दन स्थित ‘रॉयल एन्थ्रोपोलॉजिकल इंस्टिच्युट’ के एक
प्रभावशाली ब्रिटिश अधिकारी- हर्बर्ट होप रिस्ले ने मैक्समूलर की उसी
अधकचरी व्याख्या को अपनी सुविधानुसार खींच-तान कर एक पूरी की पूरी
‘नासिका-तालिका’ ही बना दी, जिसमें विभिन्न आकार-प्रकार की नाकों की
लम्बाई-चौडाई-ऊंचाई के आधार पर सम्बन्धित नाक वालों के नस्ल का निर्धारण
कर दिया । इस नस्ल-निर्धारण का सिर्फ और सिर्फ एक ही उद्देश्य था- भारतीय
समाज की जीविका व श्रम आधारित वर्ण-व्यवस्था को नस्ल-आधारित बनाना अर्थात
सामाजिक विखण्डन का बीज बोना और अपने सहयोगी-शुभचिन्तक लोगों-समुदायों की
नाकों को अपनी नाकों के समान घोषित कर अपना औपनिवेशिक साम्राज्यवादी
उल्लू सीधा करते रहना । द्रविड और दलित दारारों में पश्चिमी हस्तक्षेप
विषयक पुस्तक- ‘ब्रेकिंग इण्डिया’ के लेखक-द्वय राजीव मलहोत्रा व
अरविन्दन नीलकन्दन के अनुसार नासिका-तालिका बनाने वाले उस ब्रिटिश
अधिकारी ने लिखा भी है कि “ वह अपने नस्ल विज्ञान के सहारे
हिन्दू-जनसमुदाय से अनार्यों की एक बडी जनसंख्या को अलग कर देना चाहता
था” ।
उल्लेखनीय है कि रिस्ले द्वारा प्रतिपादित नस्ल-विज्ञान
विषयक नासिका तालिका के विभिन्न आंकडों के आधार पर ही अंग्रेजों ने भारत
के मैदानी क्षेत्रों में वास करने वाली विभिन्न जातियों को हिन्दू और
जंगली क्षेत्रों में रहनेवाली जनजातियों को गैर-हिन्दू के रूप में
चिन्हित-विभाजित कर भारतीयों को सात नस्ल-समूहों और दो प्रमुख
नस्ल-समुच्चयों- आर्य व द्रविड में विभाजित कर दिया । फिर तो सन १९०१ में
भारतीय जनगणना आयोग का अध्यक्ष बन रिस्ले ने अपनी उसी नासिका तालिका के
आधार पर जनगणना करा कर समस्त भारतीयों को २३७८ जातियों-जनजातियों और ४३ नस्लों में विभाजित कर दिया । रिस्ले द्वारा शुरू की गई वह जनगणना आज भी हर दस वर्ष पर होती है, जिसमें हर भारतीय को उसी ‘रिस्ली वर्गीकरण’ के आधार पर अपनी जाति दर्ज करानी होती है ।
ऐसे में यह समझा जा सकता है कि आज अपने देश में व्याप्त जातीयता और
भाषा-द्वेष के विष-बेल का बीज वस्तुतः अंग्रेजों के इसी नस्ल-विज्ञान से
निकला हुआ और उन्हीं के द्वारा बोया हुआ है । इस नस्ल-विज्ञान का विधान
ऐसा विभेदकारी है कि अब दक्षिण भारत के लोग खुद को आर्यों से अलग-
‘द्रविड’ मानते हुए अपनी अलग राष्ट्रीयता और पृथक संस्कृति की वकालत के
साथ-साथ राष्ट्रभाषा- हिन्दी के विरोध की मशक्कत भी करने लगे हैं ; जबकि
वनवासी जनजातियां भी वामपंथी-माओवादी शक्तियों और चर्च की ‘ श्वेत
गतिविधियों ’ के बहकावे में आकर अपनी पृथक पहचान का दावा करने लगी हैं ।
• जुन’ २०१९