- भारत राष्ट्र की विविधतामूलक एकात्मता को विखण्डित करने पर आमदा पश्चिम की विस्तारवादी शक्तियों ने भाषाई छिद्रान्वेषण के सहारे विभेद पैदा करने के निमित्त ‘भाषा-विज्ञान’ के नाम से भी एक ऐसा बौद्धिक प्रपंच खडा कर रखा है, जो उनकी आवश्यकता व सुविधा के अनुसार हमारी पहचान गढने का एक उपकरण बना हुआ है । जी हां, उतर भारतीय व दक्षिण भारतीय लोगों या वनवासी जनजातीय लोगों अथवा सवर्ण सुसंस्कृत संभ्रान्त भारतीयों की मूल पहचान सृजित करने तथा प्रायोजित इतिहास रचने और इस आधार पर सामाजिक दरार पैदा करने का माध्यम है पश्चिम का भाषा विज्ञान , जिसके विखण्ड्नकारी परिणाम भाषा-विवाद के रुप में देखने-सुनने को मिलते रहते हैं ।
‘भाषा विज्ञान’ वैसे तो भारतीय चिन्तन-दर्शन का विषय रहा है ,
पश्चिमी जगत सोलहवीं शताब्दी तक इस विज्ञान से अनभिज्ञ ही था । जबकि ,
ईसा पूर्व से ही भारत में पाणिनी और मम्मट जैसे विद्वान क्रमशः
‘अष्टाध्यायी’ और ‘काव्य-प्रकाश’ जैसे ग्रन्थ लिख कर भाषा के विविध
पहलुओं पर वैज्ञानिक विमर्श करते रहे थे । किन्तु पश्चिम का
विद्वत-चिन्तक समुदाय जब साम्राज्यवादी उपनिवेशवाद की पीठ पर सवार होकर
भारत आया और संस्कृत भाषा से जब उसका परिचय हुआ , तब उनने उपनिवेशकों का
हित साधने हेतु न केवल संस्कृत-साहित्य का शिक्षण-प्रशिक्षण व
अनुवाद-कर्म शुरू किया, बल्कि युरोपीय भाषाओं से उसका तुलनात्मक अध्ययन
भी । उसी अध्ययन-विश्लेषण के दौर में भाषा-विज्ञान से भी उनका सामना हुआ
। वे संस्कृत से अपनी भाषाओं की तुलना करते-करते १७वीं-१८वीं शताब्दी में
‘तुलनात्मक भाषा-विज्ञान’ का टंट-घंट खडा कर प्रचार-माध्यमों के सहारे
भारतीय भाषा-विज्ञान पर भी हावी हो गए । पश्चिम का भाषा-विज्ञान वास्तव
में तुलनात्मक भाषा-विज्ञान है, जो साम्राज्यवादी औपनिवेशवाद के दृश्य
प्रयोजनों से इतर नस्ल-भेदी राज-सत्ता और विस्तारवादी चर्च-मिशनरियों के
अदृश्य उद्देश्यों के तहत काम करता रहा है ।
सन् 1767 में एक फ्रांसीसी पादरी कोर्डो ने संस्कृत के कुछ
शब्दों की लैटिन-शब्दों से तुलना करते हुए भारत और यूरोप की (भारोपीय)
भाषाओं का तुलनात्मक अध्ययन किया, जिससे इस वर्तमान यूरोपीय भाषा-विज्ञान
का जन्म हुआ माना जाता है । इसके बाद ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के कथित
भाषाविद प्रोफेसर मोनियर विलियम जोंस ने 1784 में ‘द एशियाटिक सोसायटी’
नामक संस्था की नींव डालते हुए ईसाइयत के विस्तार में संस्कृत के महत्व
को रेखांकित किया, क्योंकि संस्कृत साहित्य से ईसाइयत की पुष्टि करा कर
ही उसे गैर-ईसाई देशों में ग्राह्य बनाया जा सकता था । जोन्स ने
प्रतिपादित किया कि भाषिक संरचना की दृष्टि से संस्कृत भाषा ग्रीक एवं
लैटिन की सजातीय है । सन् 1786 में इसने यह भी प्रतिपादित किया कि यूरोप
की अधिकतर भाषाएँ तथा भारत के बड़े हिस्से और शेष एशिया के एक भूभाग में
बोली जाने वाली भाषाओं के उद्भव का मूल स्रोत ग्रीक व लैटिन है । जबकि,
दक्षिण भारतीय लोगों की भाषा- तमिल व तेलगू का संस्कृत से कोई सम्बन्ध
नहीं है और इस कारण वे लोग आर्य नहीं, द्रविड हैं । ऐसे तथाकथित
भाषा-विज्ञान से ऐसे मनमाना निष्कर्ष निकाल कर आगे की औपनिवेशिक
साम्राज्यवादी और ईसाई विस्तारवादी योजना की भाषिक पृष्ठभूमि तैयार कर
लेने के बाद उन भाषाविदों और इतिहासकारों ने भारतीय भाषा- संस्कृत और
संस्कृति को अपना शिकार बनाना शुरू कर दिया ।
अपने तुलनात्मक भाषा-विज्ञान के हवाले से उननें यह कहने-कहलवाने
और प्रचारित करने का अभियान चला दिया कि संस्कृत ग्रीक से निकली हुई भाषा
है । संस्कृत को ग्रीक से निकली हुई ‘ब्राह्मणों की भाषा’ बताने के पीछे
उनकी मंशा यह रही है कि इससे आर्यों के युरोपीयन मूल के होने का दावा
पुष्ट किया जा सकता है । इसी तरह तमिल को संस्कृत से अलग द्रविडों की
भाषा बताने के पीछे उनका उद्देश्य भारत की सांस्कृतिक-सामाजिक एकता को
खण्डित कर ईसाइयत का विस्तार करना रहा है । अपने इस दावा की पुष्टि के
लिए उनने एशियाटिक सोसाइटी, फोर्ट विलियम कॉलेज, ईस्ट इण्डिया कॉलेज, व
कॉलेज ऑफ फोर्ट सेन्ट जार्ज, रॉयल एशियाटिक सोसाइटी, बोडेन चेयर ऑफ
ऑक्सफोर्ड, तथा हेलिवेरी एण्ड इम्पिरियलिस्ट सर्विस कॉलेज और इण्डियन
इंस्टिच्युट आफ आक्सफोर्ड नामक संस्थाओं को संस्कृत-साहित्य का सुनियोजित
अनुवाद और तुलनात्मक विश्लेषण करने के काम में लगा दिया ।
. इन संस्थाओं ने तुलनात्मक भाषा-विज्ञान में शोध-अनुसंधान के
नाम पर संस्कृत-साहित्य के अध्ययन-विश्लेषण-अनुवाद-लेखन-प्रकाशन का काम
किस योजना के तहत किया, यह इनमें से एक- ‘बोडेन चेयर ऑक्सफोर्ड’ के
संस्थापक कर्नल जोजेफ बोडेन की वसीयत से स्पष्ट हो जाता है ; जिसमें उसने
लिखा है कि “ इस चेयर की स्थापना हेतु मेरे उदार अनुदान का लक्ष्य है-
संस्कृत-ग्रन्थों के अनुवाद को प्रोत्साहन देना, ताकि मेरे देशवासी
भारतीयों को ईसाइयत में परिवर्तित करने की दिशा में आगे बढने के योग्य बन
जाएं ।” इसी तरह ‘इण्डियन इंस्टिच्युट ऑफ ऑक्सफोर्ड’ के संस्थापक मॉनियर
विलियम्स ने लिखा है- “ जब ब्राह्मण्वाद के सशक्त किले की दीवारों
(अर्थात, संस्कृत साहित्य) को घेर लिया जाएगा, दुर्बल कर दिया जाएगा और
सलीब के सिपाहियों द्वारा अन्ततः धावा बोल दिया जाएगा ; तब ईसाइयत की
विजय-पताका अवश्य ही लहरायेगी और यह अभियान तेज हो जाएगा ।”
पश्चिमी भाषा-विज्ञानियों और औपनिवेशिक शासकों-प्रशासकों ने
ईसाइयत के प्रसार-विस्तार हेतु भारतीय समाज को विखण्डित करने के लिए किस
तरह से भाषाई षड्यंत्र को अंजाम दिया यह मद्रास-स्थित कॉलेज ऑफ फोर्ट
सेन्ट जॉर्ज के एक भाषाविद डी० कैम्पबेल और मद्रास के तत्कालीन कलेक्टर
फ्रांसिस वाइट एलिस की सन-१८१६ में प्रकाशित पुस्तक- ‘ग्रामर ऑफ द तेलगू
लैंग्वेज’ की सामग्री से स्पष्ट हो जाता है , जिसमें लेखक-द्वय ने दावा
किया है कि “दक्षिण भारतीय भाषा-परिवार का उद्भव संस्कृत से नहीं हुआ है
।” उननें यह दलील दी है कि “तमिल और तेलगू के एक ही गैर-संस्कृत पूर्वज
हैं ।” आप समझ सकते हैं कि उन दोनों महाशयों को तेलगू भाषा का व्याकरण
लिखने और उसके उद्भव का स्रोत खोजने की जरूरत क्यों पड गई । जाहिर है,
दक्षिण भारतीय लोगों को उतर भारतीयों से अलग करने के लिए ।
मालूम हो कि ईसावादियों द्वारा भाषा-विज्ञान के हवाले से
ऐसे-ऐसे तथ्य गढ-गढ कर स्कूली पाठ्य-पुस्तकों में कीलों की तरह ठोके जाते
रहे हैं , जिनसे संस्कृत सहित अन्य भारतीय भाषायें ही नहीं , बल्कि भारत
की सहस्त्राब्दियों पुरानी विविधतामूलक सांस्कृतिक-सामाजिक समरसता व
राष्ट्रीय एकता भी सलीब पर लटकती जा रही है । स्काटलैण्ड के एक तथाकथित
भाषाविद डुगाल्ड स्टुवार्ट ने इसी भषा विज्ञान के कतिपय छद्म सिद्धान्तों
के आधार पर यह प्रतिपादित किया है कि “संस्कृत ईसा के बाद सिकन्दर के
आक्रमण द्वारा ग्रीक से आई हुई भाषा है । संस्कृत के ग्रीक से
मिलते-जुलते होने का कारण यह नहीं है कि दोनों के स्रोत पूर्वज एक ही हैं
, बल्कि इसका कारण यह है कि संस्कृत भारतीय परिधान में ग्रीक ही है” ।
स्पष्ट है कि पश्चिम के इस तुलनात्मक भाषा-विज्ञान के ऐसे-ऐसे अनर्थकारी
प्रतिपादनों से भारतीय राष्ट्रीय एकता-अस्मिता और सांस्कृतिक-सामाजिक
समरसता को गम्भीर खतरा है, जिनसे सावधान रहने की सख्त जरूरत है ।
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जुन’ २०१९ /
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