आसेतु-हिमाचल भारत की राष्ट्रभाषा- हिन्दी का दक्षिण भारतीय
प्रदेशों में ही विरोध का स्वर एक बार फिर सुनाई पडने लगा है । यह विरोध
केवल राजनीतिक विरोध है, जो भारत के विरुद्ध विखण्डनकारी षडयंत्रों को
अंजाम देने वाली वैश्विक शक्तियों-समूहों के द्वारा समय-समय पर प्रायोजित
किया जाता रहा है । इस हिन्दी-विरोध का मूल कारण- भारत के दक्षिण में
दुनिया के ‘पश्चिम’ का षड्यंत्रकारी उसूल कायम हो जाना है, जो अंग्रेजों के औपनिवेशिक शासन की सुनियोजित परिणति है । जी हां ! पश्चिम की
वैश्विक शक्तियां, अर्थात युरोप-अमेरिका की वे शक्तियां, जो भारत राष्ट्र
के विखण्डन हेतु पिछले १००-१५० वर्षों से एक षड्यंत्र के तहत अनेकानेक
विखण्डनकारी योजनाओं को भाषा, साहित्य व शिक्षा विषयक विविध हथकण्डों के माध्यम से अंजाम देने में लगी हुई हैं । इस बावत उन मजहबी शक्तियों से
सम्बद्ध विदेशी संस्थाओं ने अत्यन्त चतुराई से अपने प्रायोजित भाषा-विज्ञान में बे-सिर-पैर के विधान रचते हुए तरह-तरह की संगतियां-विसंगतियां उठा-बैठा कर दक्षिण भारत की दो प्रमुख भाषाओं- ‘तमिल’ और ‘तेलगू’ को जबरन ही ‘संस्कृत भाषा-परिवार’ से बाहर की ‘हिब्रू’ से मिलती-जुलती भाषा प्रतिपादित कर उसे इस कदर प्रचारित कर दिया है कि अब वहां के शिक्षण-संस्थानों में भी कमो-बेस यही तथ्य स्थापित हो चुका है । जबकि यह निर्विवादित सत्य है कि भारत की समस्त भाषायें संस्कृत से निकली हुई एक ही भाषा-परिवार की हैं । इसी तरह से उनके द्वारा ‘नस्ल-विज्ञान’ खडा कर उसके षड्यंत्रकारी विधान के सहारे उतर भारतीय लोगों को यूरोप से आये हुए आक्रमणकारी नस्ल का ‘आर्य’ और दक्षिण भारतीय लोगों को आर्यों से अलग नस्ल का ‘द्रविड’ घोषित करते हुए उन्हें अफ्रीकी हब्सियों व निग्रो जन-जातीय समूहों में शामिल कर इस आधारहीन तथ्य के आधार पर उतर भारत और दक्षिण भारत के बीच एक अदृश्य विभाजक दरार कायम करने का प्रयत्न किया जाता रहा है । जबकि , मानव-जाति विज्ञान के विभिन्न शोध-निष्कर्षों से यह तथ्य सत्य प्रमाणित हो चुका है कि वेद-वर्णित ‘आर्य’ शब्द जातिवाचक नहीं, बल्कि सदैव ही गुणवाचक रहा है । इसी तरह ‘द्रविड’ शब्द भारत के दक्षिणी भाग में अवस्थित पांच राज्यों के समूह के लिए प्रयुक्त हुआ है , न कि मानव जाति के लिए । बावजूद इसके विलियम जोन्स और मैक्समूलर आदि यूरोपियन षड्यंत्रकारी भाषाविदों ने अपनी गुप्त ईसाई-विस्तारवादी परियोजना के तहत ‘आर्य’ और ‘द्रविड’ दोनों शब्दों को ‘श्रेष्ठ व निकृष्ट नस्ल’ के रूप में
परिभाषित-विश्लेषित कर श्वेत व अश्वेत चमडी के आधार पर समस्त संसार के
लोगों का विभाजन करने वाले ‘मजहबी नस्ल-विज्ञानियों’ के हाथों में एक
उपकरण थमा दिया । इस उपकरण से उनने उतर भारतीय सवर्ण लोगों को
संस्कृत-भाषी ‘आर्य’ और दक्षिण भारत के लोगों को उन आर्यों से
शोषित-विजित ‘द्रविड’ नाम दे कर एक ही मूल भाषा- संस्कृत एवं एक ही मूल
संस्कृति (सनातन-वैदिक) से समरस बृहतर भारतीय समाज के बीच शोषक-शोषित की विभाजक-रेखा खींच दी । उन शक्तियों से सम्बद्ध चर्च-मिशनरी संगठनों की शैक्षिक संस्थाओं ने इस आधारहीन विभाजन को अपने प्रायोजित भाषा-विज्ञान और नस्ल-विज्ञान के सहारे इतना हवा दिया कि यह ‘सफेद झूठ’ ही सच के रूप में स्थापित हो कर भारत की राष्ट्रभाषा- हिन्दी को नकारने का उत्प्रेरक
बना हुआ है ।
दक्षिण में ‘पश्चिम’ का यह उसूल स्थापित करने की शुरुआत भारत
पर ईस्ट इण्डिया कम्पनी का राज-पाट स्थापित हो जाने के बाद उस औपनिवेशिक शासन का औचित्य सिद्ध करने के बावत पश्चिमी विद्वानों द्वारा
‘भाषा-विज्ञान’ व ‘नस्ल-विज्ञान’ नामक हथकण्डा खडा किये जाने के साथ ही
शुरू हो गई थी, किन्तु ‘द्रविड’ नस्ल गढने एवं उसके आधार पर संस्कृत और
संस्कृत से निःसृत हिन्दी के विरोध का षड्यंत्र सन १८५६ ई० में कैथोलिक
चर्च के एक पादरी ने क्रियान्वित किया । रॉबर्ट कॉल्डवेल नामक वह पादरी
ऐंग्लिकन चर्च के ‘सोसायटी फॉर द प्रोपेगेशन ऑफ द गास्पल’ से सम्बद्ध
मद्रास-स्थित तिरुनेलवेली चर्च का ‘बिशप’ था । इस षड्यंत्र को अंजाम देने
के लिए पहले उसने सन १८८१ ई० में ‘कम्परेटिव ग्रामर ऑफ द ड्रैवेडियन रेश’
नामक एक पुस्तक लिख कर ‘द्रविड’ शब्द के अर्थ का अनर्थ करते हुए यह
प्रस्तावित किया कि भारत के मूलवासी द्रविड थे और तमिल भाषा
संस्कृत-परिवार से बाहर की भाषा है ।
अंग्रेजों की विभेदकारी नीति के अनुसार काल्डवेल ने भारतीय
लोगों को भाषा और धर्म के आधार पर दो भागों में विभाजित करने तथा
तमिल-भारतीयों को ईसाइयत के ढांचे में बैठाने के उद्देश्य से दक्षिण भारत
के एक स्थान-विशेष के तथाकथित इतिहास की एक पुस्तक लिखी- ‘ए पॉलिटिकल एण्ड जेनरल हिस्ट्री ऑफ द डिस्ट्रिक्ट ऑफ तिरुनेलवेली’ जिसे सन- १८८१ ई० में ईस्ट इण्डिया कम्पनी की मद्रास प्रेजिडेन्सी ने प्रकाशित कराया था ।
उस पुस्तक में तिरुनेलवेली के उस कैथोलिक चर्च बीशप ने आसेतु हिमाचल
व्याप्त बहुसंख्य बृहतर भारतीय धर्म-समाज में दरार पैदा करने तथा द्रविड
नस्ल की सांस्कृतिक व भाषिक पृथकता प्रस्तुत करने और उस द्रविडता को
ईसाइयत के नजदीक ले जाने का जो काम किया , उससे अंग्रेजी औपनिवेशिक शासन और चर्च के विस्तारवादी कार्यक्रम , दोनों को आगे चल कर बहुत लाभ मिला । ‘एशिया में निवासियों की पहचान’ पर कथित रुप से शोध करने वाले टिमोथी ब्रूक और आन्द्रे स्मिथ के अनुस “कॉल्डवेल ने व्यवस्थित रूप
से द्रविड विचारधारा की बुनियाद रखी और…..उसने दक्षिण भारत की
संस्कृत-भाषी आबादी व गैर-संस्कृत-भाषी आबादी के बीच भाषिक, सांस्कृतिक,
धार्मिक व नस्ली विभेद खडा कर असंस्कृत-भाषी तमिलों को ‘द्रविड’ घोषित कर
उनके पुनरुद्धार की परियोजना प्रस्तुत की ।” इसी कारण बाद में अंग्रेज
प्रशासकों ने मद्रास के मरीना समुद्र-तट पर बीशप काल्ड्वेल की एक प्रतिमा
स्थापित कर दी, जो आज के चेन्नई शहर का एक ऐतिहासिक स्मारक बना हुआ है । इतना ही नहीं, उस षड्यंत्रकारी काल्ड्वेल के ऐसे काले कारनामों को ही
अंग्रेज हुक्मरानों द्वारा और बाद में उनके हस्तकों द्वारा दक्षिण भारत
का इतिहास बना दिया गया और उसी विकृत इतिहास के आधार पर न केवल वहां के समाज-धर्म-संस्कृति को विकृत करने का एक अभियान सा चल पडा , बल्कि
हिन्दी को उतर भारतीय भाषा बता कर उसके विरोध का राजनीतिक वितण्डा भी खडा कर दिया गया ।
कालान्तर बाद उन्हीं चर्च मिशनरियों और उपनिवेशवादियों
द्वारा चर्च-मिशन-संचालित विभिन्न शिक्षण-संस्थानों में ततविषयक
पाठ्यक्रम और शोध कार्यक्रम भी चलाये जाने लगे , जिनके शिक्षार्थी और
शोधार्थी खुलेआम दावा करने लगे कि संस्कृत-भाषी आर्यों अर्थात उतर
भारतीय लोगों ने सदियों से दक्षिण भारतीय- द्रविडों को अपने अधीनस्थ रखा
हुआ है , जिन्हें अब मुक्त होना चाहिए । इसी आधार पर सन १९१६ में
चर्च-मिशनरियों ने ‘जस्टिस पार्टी’ नाम से एक राजनीतिक दल का गठन
किया-कराया , जिसने सन १९४४ में एक पृथक ‘द्रविडस्तान’ देश की मांग कर
डाली थी । उसी जस्टिस पार्टी का नया संस्करण है- ‘द्रविड मुनेत्र कड्गम’,
है, जिसका अर्थ है- द्रविडोत्थान संघ ।
दक्षिण भारत में राष्ट्रभाषा- हिन्दी का विरोध किये जाने के
पीछे इन्हीं पश्चिमी तत्वों का यही विभाजनकारी उसूल सक्रिय रहता है ।
तमिल-तेलंगाना आदि इन दक्षिणी प्रदेशों में यूरोप-अमेरिका की चर्च
मिशनरियों के साथ उनसे सम्बद्ध अनेक एन०जी०ओ० भी भाषिक-अलगाववाद फैलाने
के बावत इस कदर सक्रिय हैं कि तमिलनाडू में जिन दो प्रमुख राजनीतिक दलों-
‘द्रमुक’ और ‘अन्ना द्रमुक’ की सरकार हुआ करती है, वे दोनों भी द्रविडवाद
और हिन्दी-विरोध की ही राजनीति करते हैं । पिछले दिनों शिक्षा-सुधार
सम्बन्धी भारत-सरकार की एक समिति के द्वारा प्रस्तावित प्रारुप में सभी
प्रदेशों के बच्चों को उनकी मातृभाषा के अलावे एक सम्पर्क भाषा के साथ
राष्ट्रभाषा (हिन्दी) भी पढाये जाने की अनुशंसा किये जाने पर दक्षिण के
तमिल तेलंगाना प्रदेशों में हिन्दी-विरोध का जो शोर पुनर्ध्वनित हुआ है,
उसे हवा देने का काम ये दोनों राजनीतिक दल के लोग ही कर रहे हैं । इनका
कहना है कि उक्त समिति की उपरोक्त अनुशंसा तमिल-तेलगु भाषी लोगों पर
हिन्दी को थोपने की मंशा है । इस विरोध से विचलित हो कर भारत-सरकार के
मानव संसाधन मंत्री ने अपने हाथ खडे करते हुए बयान जारी कर दिया है कि
हिन्दी किसी पर थोपी नहीं जाएगी । ऐसे में भारत के विखण्डन को सक्रिय
वैश्विक शक्तियां भाषा-विवाद के इस वितण्डावाद की सफलता पर फुले नहीं समा
रही हैं ।
मई’ २०१९
//php// if (!empty($article['pdf'])): ?>
//php// endif; ?>