कांग्रेस-मुक्त भारत’ में कांग्रेसियत-युक्त भाजपा की विडम्बना
देश के वर्तमान राजनीतिक रुझान से ऐसा प्रतीत होता है कि बहुत
जल्दी ही एक न एक दिन भारत उसी तरह कांग्रेस से मुक्त हो जाएगा , जिस तरह
अंग्रेजों से मुक्त हुआ । ऐसे में जाहिर है , ‘कांग्रेस-मुक्त’ होने से
भारत का उतना ही भला होगा, जितना गोरे अंग्रेजों के चले जाने और उनकी
बनायी सत्ता-व्यवस्था पर काले-अंगरेजों के काबिज होने से हुआ । अर्थात ,
अंग्रेजों के चले जाने के बावजूद अंग्रेजी औपनिवेशिक रीति-नीति,
सोच-संस्कृति, पद्धति-परिपाटी के रूप में सारी अंग्रेजियत कांग्रेस के
नेतृत्व में बदस्तुर कायम ही नहीं रही , बल्कि फलती-फुलती भी रही ।
नतीजा यह हुआ कि लोग-बाग बरबस ही यह महसूस करने लगे कि कांग्रेसियों से
अच्छा तो अंग्रेजों का शासन ही था । मेरा इशारा इस ओर है कि चेहरा बदल
जाना पर्याप्त नहीं है, नये चेहरों के चाल-चलन अगर न बदले । ट्रेन का
ड्राइवर बदल जाने और ट्रेक वही का वही बने रहने से गंतव्य नहीं बदल सकता
।
देश के यशस्वी प्रधानमंत्री व भाजपा के चमत्कारी नेता
नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भारत अंग्रेजों की औपनिवेशिक हस्तक बनी
कांग्रेस के शासन से मुक्ति की ओर आगे बढ रहा है, यह सुखद और आशाजनक है ;
किन्तु महज शासनिक सत्ता से कांग्रेस का सफाया हो जाने के बावजूद सियासत
में कांग्रेसियों की विरासत, या यों कहिए कि कांग्रेसियत का बचा रहना
उतना ही दुर्भाग्यपूर्ण होगा जितना अंग्रेजों के चले जाने के बाद हमारे
देश में अंग्रेजियत का आज तक बने रहना त्रासदपूर्ण है । हालांकि
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का रुझान कांग्रेसी विरासत को बचाए रखने के
प्रति कतई नहीं है, किन्तु कांग्रेस ने देश की राजनीति का जो ट्रैक बना
रखा है, उसे बदलने की दिशा में अभी कोई उल्लेखनीय काम दीख नहीं रहा है ।
बल्कि, स्थिति ऐसी है कि देश में बदलाव की बह रही तेज आंधी के बीच अंधेरी
रात को जिस दस्यु-दल के विरूद्ध पूरा नागरिक समाज लामबंद हो गया है , उस
दल के कतिपय चतुर-शातिर दस्यु भी अफरा-तफरी का लाभ उठा कर नागरिकों की
भीड में शामिल हो जोर-जोर से चिल्ला रहे हैं- पकडो…..मारो….भगाओ… !
ऐसे कई चतुर-शातिर अवसरवादी नेता मेरी व्यक्तिगत जानकारी में
हैं, जो कल तक इस देश की राष्ट्रीयता को कुंद करने वाली कांग्रेस के बडे
झण्डाबरदार थे , साम्प्रदायिक तुष्टिकरण ही जिनकी नीति थी, वन्देमातरम व
भारतमता का जो उपहास उडाते नहीं अघाते थे, वे रातों-रात लम्बी छलांग लगा
कर आज भाजपा में शामिल हो विधायक-सांसद बन बैठे हैं । क्या ऐसा समझा जा
सकता है कि दल बदल कर भाजपा में आ जाने मात्र से वे कांग्रेसी मनोवृत्ति
से उबर कर अब राष्ट्रवादी बन गए , या बन जाएंगे ? गौरतलब है कि हमारे देश
में कांग्रेस महज एक राजनीतिक दल का नाम नहीं है , बल्कि यह अंग्रेजी
उपनिवेशवाद की प्रतिनिधि और औपनिवेशिक राजनीति की अभारतीय संस्कृति का
सरंजाम भी है । इसकी स्थापना ही अंग्रेजों ने अपने औपनिवेशिक एजेण्डे को
क्रियान्वित करने के लिए किया हुआ था । लाल-बाल-पाल और सुभाष चन्द्र बोस
ने इसमें राष्ट्रवादी संस्कार डालने की कोशिश की, तो उनका हश्र क्या हुआ,
सभी जानते हैं । महात्मा गांधी ने इसे अपने ‘हिन्द-स्वराज’ दर्शन से देशज
स्वरूप प्रदान कर देशव्यापी बना दिया तब उनकी उस लोकप्रियता की वैशाखी के
सहारे अपना सियासी कद बढा कर पूरी कांग्रेस का अपहरण कर लेने के पश्चात
अंग्रेजों से सत्ता हासिल कर नेहरू ने किस कदर महात्मा के विचारों की
धज्जियां उडा कर गांधीवाद को सिर्फ बौद्धिक वाग्विलास की वस्तु बना कर रख
दिया, यह सत्य पूरी दुनिया जानती है । जिस तरह से अंग्रेजों ने अपनी
सोची-समझी कूटनीति के तहत अंग्रेजी शासन के विरोधी स्वर को भी अपने
अनुकूल बनाने के लिए कांग्रेस की स्थापना करायी थी, उसी तरह से आजादी के
बाद कांग्रेस-विरोधी राजनीति के उठते स्वर को अनुकूल बनाने के लिए यद्यपि
कांग्रेस की ओर से अंग्रेजों की तर्ज पर कोई सुनियोजित संगठन खडा नहीं
किया गया ; तथापि कांग्रेस से निकले हुए लोग भी विविध नामों से दल
बना-बना कर सत्ता की राजनीति करते रहे । कांग्रेस-विरोध में निकले स्वरों
के राग-सुर अचानक रातों-रात बदलते रहे और नेताओं के हाथ एक-दूसरे से
मिलते रहे । ‘राजनीति में सब कुछ चलता है’ , ऐसा कह कर वंशवाद व
परिवारवाद के साथ-साथ ‘दल-बदल’ को भी न केवल प्रश्रय दिया जाता रहा ,
बल्कि सुविधावाद व अवसरवाद को राजनीति का आवश्यक रंग बना दिया गया ।
विधायकों-सांसदों की हैसियत-अहमियत एवं सुख-सुविधा, वेतन-भत्ता में
अनावश्यक अतिशय बढोतरी कर-कर के समाज में एक ‘माननीय’ तबका और उनकी
चमचागिरी-विचौलियागिरी करने का धंधा कांग्रेसियत की ही देन है, जिसका लाभ
सभी दलों के लोग उठाते रहे हैं । मेरे कहने का मतलब यह है कि अंग्रेजी
उपनिवेशवाद की प्रतिनिधि-कांग्रेस ने ही इस देश में राजनीति की कांग्रेसी
संस्कृति और तदनुसार राजनीतिक परम्पराओं का निर्माण किया जिसे सभी दलों
ने बिना किसी परिवर्तन के स्वीकारा और अपनाया ।
ऐसे में गैर-कांग्रेसियों के हाथों स्थापित भाजपा द्वारा जब
कांग्रेस-मुक्त भारत का नारा लगा कर संसद व विधान-सभाओं में नये-नये
संख्या-समीकरण बनाये-बदले जा रहे हैं, तो उसके सांसदों-विधायकों के
चिन्तन-आचरण में भी परिवर्तन होना चाहिए , जो कहीं भी दीख नहीं रहा है ।
भाजपा-शासित राज्यों के विधायकों ने भी अपने-अपने वेतन-भत्ते स्वयं
बढा-बढवा लिए । भाजपाई सांसदों-विधायकों के ठाट-बाट, लाव-लश्कर ,
नाज-नखरे सब वैसे ही हैं- कांग्रेसियत से सराबोर । एक नरेन्द्र मोदी को
छोड कर किसी ने ऐसी कोई नजीर पेश नहीं की है अब तक, जो कांग्रेसियत से
रहित हो । जिस तरह से कांग्रेसियों द्वरा गांधी के हिन्द-स्वराज को
तिलांजलि दे कर सत्ता-सुख भोगना ही अपनी प्राथमिकताओं मे शामिल कर लिया
गया, उसी तरह दीनदयाल उपाध्याय के एकात्म-मानव दर्शन का ज्ञान औसत
भाजपाइयों को भी आज नहीं है । अपने वैचारिक अधिष्ठान की उपेक्षा कर सत्ता
हासिल करने के लिए आदर्शवादिता से रहित जिस राजनीति का ईजाद कांग्रेस ने
किया है , उस कांग्रेसियत से भाजपा भी कतई मुक्त नहीं है । अपने राजनीतिक
अधिष्ठान की वैचारिकता के प्रशिक्षण और तदनुसार राजनीतिक आचरण सुनिश्चित
करने की ठोस व्यवस्था किये बिना भाजपा के ‘कांग्रेस-मुक्त भारत’ अभियान
का परिणाम भी ‘सत्ता-हस्तान्तरण’ की तरह ‘सत्ता-परिवर्तन’ तक ही सिमट कर
रह जाएगा, इससे इंकार नहीं किया जा सकता । क्योंकि , भाजपा द्वारा
कांग्रेसियों को अंगीकार करते हुए ‘कांग्रेस-मुक्त भारत’ का नारा लगाना
‘कांग्रेसियत-युक्त सियासत’ को ही दोहराना है । कांग्रेस का सफाया करने
के जोश व जुनून में भाजपा के भीतर की कांग्रेसियत का उन्मूलन होने के
बाजाय , बाहर से बे-रोक-टोक आ रहे कांग्रेसियों के कारण भाजपा का ही कहीं
कांग्रेसीकरण न हो जाए , इस ओर भी भाजपा के शीर्ष नेतृत्व को ध्यान देना
चाहिए , तभी यह नारा सार्थक होगा ; अन्यथा ‘अंग्रेज-मुक्त भारत’ के
अंग्रेजीकरण जैसी एक नयी त्रासदी की पुनरावृति भी हो सकती है ।
• मनोज ज्वाला ; मई’ २०१९
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